शनिवार, 20 जुलाई 2019

मुझे यही अच्छा लगता है....

कभी-कभी किसी का जाना बहुत अच्छा लगता है...अगर बहुत से भी बेहतर कोई शब्द हो तो शायद उतना ही अच्छा लगता है। किसी का जाना- दुनिया से नहीं, जिंदगी से नहीं बल्कि कमरे से। एक ही छत के नीचे जब दो लोग रहते हों और उसमें से एक सिर्फ नहाने और वॉशरुम के लिए बाहर निकलता हो तो हफ्ते या महीने में एक बार, एक घंटे के लिए भी उसका कमरे से जाना बहुत अच्छा लगता है...बहुत ज्यादा।

हर इंसान को एक पर्सनल स्पेस की जरूरत पड़ती होगी। वैसे ही जैसे बच्चों को पड़ती है...जब मम्मी पापा किसी काम से घर से कुछ घंटों के लिए बाहर जाते हैं तो उनकी गैरमौजूदगी में पढ़ाई ना करना, सोफे पर पसरकर दोस्तों से बातें करना, मनचाहा टीवी सीरियल देखना अच्छा लगता है। उतना ही अच्छा तब भी लगता है जब किसी को पर्सनल स्पेस मिलता है।

अच्छा लगता है जब कोई नहीं होता....अच्छा लगता है जब रोने के लिए जगह मिल जाती है...अच्छा लगता है जब बेढंगे तरीके से रहने का मौका मिलता है...अच्छा लगता है जब कोई घूरने वाला न हो...अच्छा लगता है जब कटोरी मैगी अकेले खाने का मौका मिलता है...सबकुछ अच्छा लगता है..हफ्ते या महीने के एक दिन।

अकेले रहना मेडिटेशन जैसा लगता है...अपने आप में रहना..अपने आप से बातें करना...अपने आप में खोना..अपने को ढूंढना...किसी के साथ रहने पर कहां कोई खुद से बातें कर पाता है...कहां खुद को समझा पाता है..कहां खुद को देख पाता है।

बहरहाल...एक घंटे की आजादी खत्म हो चुकी है...नमस्ते!


बुधवार, 2 जनवरी 2019

तेरा जाना....

पिछले साल इसी महीने में ढेर सारा सामान लेकर शिफ्ट हुई थी वो। इस कमरे में मेरे साथ उसका पहला दिन था। हम दोनों ने एक दूसरे से सिर्फ नाम पूछा था। मैं नाम से आगे भी कुछ पूछना चाहती थी लेकिन वह बताने के मूड में नहीं थी। सारा सामान एक कोने में रखकर उसने सबसे पहले खीर बनाया और बैठकर खाने लगी। थोड़ा अजीब लगा..जाने क्यों...अब तक रुममेट के साथ शेयर करके खाने की आदत थी, शायद इसलिए। इसके बाद हम दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई..अगले तीन महीनों तक। वह बात नहीं करना चाहती थी...बोलने पर भी नहीं बोलती..पूछने पर भी नहीं बताती और शायद कहने पर भी नहीं सुनती थी। वजह नहीं पता..लेकिन अजीब था सबकुछ...बहुत अजीब...विचित्र सा। फिर धीरे धीरे ऐसे ही रहने की आदत पड़ गई। एक कमरे में दो लोग..लेकिन मरे हुए की तरह..कोई बातचीत नहीं...कोई मुस्कुराहट नहीं..एक दूसरे की तरफ देखना भी नहीं। लेकिन धीरे धीरे मरे हुए की तरह रहना भी अच्छा लगने लगा, उसे भी, मुझे भी।
वह कमरे के अंदर खिड़की और दरवाजे बंद करके हवन कर देती( पूरी और चिप्स तलकर खाने की शौकीन थी) और मुझे बाहर निकलना पड़ता...समझदार इतनी ज्यादा थी कि किसी चीज की उम्मीद नहीं रखी जा सकती थी। फिर एक दिन अचानक बिना बताए जाने कहां चली गई...शायद घर..कुछ लोगों को ऐसा ही बतायी थी।

उसका जाना जाने क्यों अच्छा लगा। लेकिन18 दिन बाद जब लौटकर आयी तो वो, वो नहीं थी। अब वो वो थी जो शायद पहले रही होगी। बड़ा सा ट्रॉली बैग कमरे में लेकर आते ही मैंने उसे 'हाय' बोला...उसने थोड़ी ज्यादा मेहनत करके मुझसे पूछा 'कैसी हो'। इसके बाद बातचीत शुरू हो गई। मैडम ने जिस खुशी में उस दिन से मुझसे बात करनी शुरू की थी उसे शायद 'सपनों का राजकुमार' मिलना कहते हैं। शादी लग गई थी उसकी और 'अपने उनके' साथ कहीं घूमकर लौटी थी। फ्रेश होने के बाद उनकी फोटो दिखायी और बोली देखो कैसा है मेरा हीरो..उसका हीरो, हीरो टाइप ही था। लेकिन बात न करने की जो वजह थी..वो नहीं पता चल पायी और वो बात भी खत्म हो गई।
इसके बात मैंने सिर्फ उसको ही नहीं झेला...उसके 'उनको' भी झेला...'इनकी' और 'उनकी' बातों को भी झेला..दोनों के झगड़े को भी झेला और प्यार को भी। इतना ही नहीं कमरे में शादीशुदा लड़कियों ने उसको जो सुहागरात, ननद को खुश करने की टिप्स, सास को हैंडल करने की टिप्स, पति से चटर पटर खाने की फरमाइश करने की टिप्स, थोक मार्केट से बिंदी, चूड़ी,टेडीवियर और जाने क्या क्या खरीदने की टिप्स, आटे में बेसन भरकर पूरी बनाने की टिप्स और सुबह उठकर मां दुर्गा टाइप श्रृंगार करने की टिप्स जैसी जाने कितनी नसीहतें झेलीं। शादी लगने के बाद वह दस महीनों तक वह बस ऐसा वैसा करने की टिप्स बटोरती रही और शादी का दिन नजदीक आ गया।
आज बेड खाली है उसका..आलमारी खाली है..रैक खाली है...कुर्सी और टेबल खाली है। कमरे में खालीपन है, सूनापन है...बार बार नजरें कोने में उसकी बेड की तरफ जा रही हैं। बेड तो है..वो नहीं है।