बुधवार, 4 दिसंबर 2013

यह कैसा मोहभंग..??



वह हमारे बीच रहती है, हमारी तरह पढ़ती है, खाती है, सोती और खेलती है। लेकिन वह हमारी तरह बातें नहीं करती। उसकी शादी को दस महिने हुए है। तब से लेकर अब तक वह अपने मायके नहीं गयी। उसके ससुरालवालों ने उसे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए इलाहाबाद भेजा है।
एक फॉर्म में मैने उसे माता के नाम की जगह  सास का नाम तथा पिता के नाम की जगह ससुर का नाम, घर के पते में ससुराल का पता भरते देखा। तब मैने उससे कहा कि पते मे ससुराल का पता भरना तो समझ में आता है, लेकिन माता की जगह सास का नाम, पिता की जगह ससुर का नाम भरना मुझे समझ में नही आया।

वह बोली-अब मेरे सब कुछ तो वही लोग है। मैने कहा- अच्छा, अब माता-पिता से इतना भी रिश्ता नहीं बचा, जो हमारे जन्मदाता है, जिनके नाम से हमारी पहचान है, जिनके नाम पर हमारा अब तक का प्रमाणपत्र है, कम से कम वह पहचान तो कोई सास-ससुर को नही देता। वह बोली- नहीं, हमारे सास-ससुर ही सब कुछ हैं।

वह ऐसा क्यों बोल रही थी, मेरी समझ में नहीं आया। उसके मायके में भी सब ठीक है। लोग हमेशा उसे याद करते हैं और बुलाते हैं, लेकिन वहां जाने का उसका मन नही होता।
वह हॉस्टल की हर एक लड़की को सलाह देती है कि शादी जल्दी करना। शादी के बाद जीवन बहुत हसीन हो जाता है। जब वह ऐसा बोल रही होती है, सारी लड़कियां उसे एक टक देखती रहती हैं।
लड़कियां जब अपने भाई-बहनों की बाते करती है, मेरे भाई-बहन पढ़ने में ऐसे हैं, वैसे हैं। वह अपने देवर औऱ ननद की बातें करती है, मेरा देवर ऐसा है, मेरी ननद वैसी है।

वह किसी भी वक्त अपने माता-पिता या भाई-बहन का जिक्र ही नही करती, चाहे उनकी याद आने के बहाने ही सही।
मायके तथा माता-पिता से मोहभंग, ससुराल वालों पर अटूट प्यार, यह किस तरह का बदलाव है? कम से कम मेरी समझ में तो नहीं ही आ रहा।

रविवार, 1 दिसंबर 2013

बंदर बालक एक समान !!



एक औरत अपने तीन बच्चों के साथ कानपुर स्टेशन से ट्रेन में चढ़ी। वह निहायत ही सुंदर पीली साड़ी पहने हुए थी, जो उस पर कम ही अच्छी लग रही थी। उसके तीनों बच्चे फुदकते हुए आए औऱ मेरे बगल में बैठ गए। तीनों एक ही रंग और साइज के लेदर के जैकेट पहने थे।
मैने देखा है, लोग अपने बच्चों को एक जैसे कपड़े या तो खोने के डर से पहनाते है या बच्चे जुड़वा हों तब पहनाते है। लेकिन मैने उनमे से दो बच्चों की उम्र बराबर देखकर अंदाजा लगाया कि ये दोनो जरुर जुड़वा होंगे। मगर वे जुड़वा नहीं थे।
थोड़ी ही देर में वे तीनों बंदरों की तरह धमाल मचाने लगे। एक उपर की बर्थ पर चढ़कर धड़ाम से नीचे कूद रहा था, दूसरा ट्रेन की खिड़की में एक धागा बांधकर उसमें अपना हाथ बांधे रखा था, और तीसरा चाय बेचने वाले का प्लास्टिक की गिलास निकालकर हवा में उड़ा देता था।
उन तीनों की उम्र पांच-छः साल के आसपास थी और वे अपनी मां के साथ मुगलसराय चाचा की शादी में जा रहे थे।
सबसे छोटा बच्चा जो पांच साल का दिखता था उसके आगे के दो दांत टूट गए थे। जिस दिन दांत टूटा उस रात वह सो नहीं पाया था, अभी वह जीव विज्ञान का छात्र भी नहीं था कि उसे पता चले कि नए दांत आने में कितने दिन लगते हैं। उसे बस इतना पता था कि दांत टूटने के कारण वह सुंदर नहीं दिख रहा है औऱ चाचा की शादी में जा रहा है। वह उसके जीवन की पहली चिंता थी। इस चिंता से निजात पाने के लिए उसने अपने एक दोस्त के बताने पर अपने टूटे दांत गड्ढे में ढ़क दिए थे ताकि नए दांत जल्दी उग आए। उसने ऐसा मुझे बताया।
तीनों बच्चों की आवाज औऱ शक्ल लगभग एक जैसे थी। लेकिन उनमें से एक लड़की थी जो अपने दोनो भाईयों के जैसे ही कपड़े पहनी थी और हाथ में नेल पालिश लगाए थी। वे तीनों अंग्रेजी माध्यम से पढ़ते थे औऱ तू लगावेली जब लिपिस्टिक हिलेला सारा डिस्टिक गाने पर अपने चाचा की शादी में नाचने की सोच रहे थे। उन्हें हनी सिंह भी पसंद था लेकिन उसके गाने पर वे तीनों नाचने में असमर्थ थे।
उनकी मम्मी उनसे तंग आ गयी थीं और चाहती थीं कि उनको उठाकर कोई ले जाए। मम्मी की कहानियां तीनों को नहीं पसंद आती थी और वे चाहते थे कि गांव से दादी आकर कानपुर ही रहें। उन तीनों ने मिलकर प्लास्टिक की एक कार खरीदी थी जो उनकी नई चाची के लिए गिफ्ट था।
इतने शैतान बच्चे औऱ उनकी नौटंकी बातें कि कानपुर से इलाहाबाद का सफर पता ही नहीं चल पाया। हमें तो रोज तलाश रहती है ऐसे बच्चों की।   

सोमवार, 18 नवंबर 2013

वध के बिना गुज़ारा नहीं....






मैनें पहली बार किसी का वध होते हुए देखा था, एक मरे हुए जानवर का वध, जिसे मरने के बाद भी मारने की प्रक्रिया पूरी की जा रही थी। उस वक्त स्कूल से छुट्टी हुई थी औऱ मैं कच्चे रास्तों से होते हुए घऱ आ रही थी। उसी वक्त मैने पहली बार देखा था, एक आदमी सूखी नहर के बीचो-बीच एक भैंस को काट रहा था। घर आने पर दिमाग में सिर्फ लाल मांस का लोथड़ा ही घूम रहा था, औऱ खाना खाते वक्त मैनें कई बार उल्टियां की थी।
दूसरी बार मैने उस आदमी को तब देखा जब मेरे भैंस का बच्चा मर गया था औऱ वह उसे लेने घर आय़ा था। उसका बारह साल का लड़का दरवाजे पर ट्राली औऱ एक मोटा रस्सा लेकर खड़ा था। तब मुझे पता चला कि वह हमारे गांव का ही एक आदमी है। उसका नाम जवाहर था, दुनिया वाले उसे जवाहिर डोम बुलाते थे।
 उसकी आवाज मुझे श्री कृष्ण के कंस मामा की तरह लगती थी। मैं जब भी रामानंद सागर कृत श्री कृष्णा में कंस को देखती, मेरी आंखों के सामने जवाहिर डोम की छवि आ जाती।
मरे जानवर के चमड़े उतारने के अलावा वह छत्तीस सूअरों का मालिक था, साथ में बांस के डंडियो से बेना, सूप और टोकरी बनाकर उसे रंग-बिरंगे रंगों में रंग कर बेचता था।
मैनें देखा था जब भी वह हमारे दरवाजे पर सूप औऱ बेना लेकर आता था अपनी गठरी से निकालकर उसे फैला देता था ताकि मेरी दादी उसे अपने हाथों से खुद उठाकर देख सकें। लोग डोम को नहीं छूते थे, औऱ उससे दूर रहते थे।
जब मैनें दादी से पूछा था कि आप इन्हें छूती नहीं औऱ इनके बनाए सूप, बेना औऱ टोकरी को घर में इस्तेमाल करती हैं? तब दादी ने मुझे डांटा था जिसके पीछे का रहस्य आज तक मेरी समझ में नहीं आय़ा।

 इस दीवाली जब मैं घर गई, तब मैनें उसी जवाहिर डोम को कई वर्षों बाद देखा। जो मेरे घर के पिछवाड़े घने बांस के वृक्षों के बीच लकड़ी बीन रहा था। उस दिन दीवाली थी, गांव वाले बाजार में मिठाईयां छांट रहे थे, लेकिन ये इधर-उधर भटककर घर का चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का इंतजाम कर रहे थे। अब भैंस का वध नहीं करते? ऐसा पूछने पर मेरी तरफ गर्दन उठाकर देखा उन्होंने और बोले अब लोग भैंस ही कितनी रखते हैं? जो है सब खा-पीकर बरियार हैं, मरती ही नहीं हैं।
सूअरें एक के बाद एक खतम होती गईं। आंख धोखा दे रही है, सूप-बेना कहां से बनाए। किसी तरह पेट का जुगाड़ हो जाए बहुत है।

मैने अपनी ही आखों के सामने कभी उनका रौद्र रुप देखा था जब वह जानवरों को काटते थे, औऱ आज इनकी यह दुश्वारियां देख रही हूं। जिस दिन इन्हें चूल्हा फूंकने के लिए लकड़ी औऱ पकाने के लिए अन्न मिल जाए वही

सोमवार, 4 नवंबर 2013

दलिद्दर ने बहुत छकाया...



आज सुबह मैं गहरी नींद में थी, उन्होंने पास आकर मुझे हिलाया, यहां तक कि मेरे पूरे शरीर को झकझोर डाला, लेकिन मेरी नींद नही खुली। वह झल्लाकर बोलीं-अगले साल यह सब खुद करना पड़ेगा, मैं नहीं रहूंगी तब जगाने के लिए। उनकी यह बातें नींद में ही मुझे बेध गयीं औऱ मैं तुरंत उठ गई लेकिन आंखों में नींद सवार ही थी..आखिर भोर की नींद जो थी।

दिवाली की अगली सुबह हमारे य़हां घर से दलिद्दर निकालने का रिवाज है। मैं जब से अपने खुद के पैरों से चलना शुरु की हूं तब से लेकर आज तक हर दिवाली की सुबह अपने नींद की बलि देकर दलिद्दर भगाने के काम में दादी की मदद करती आयी हूं। 

बाकी सालों की तरह इस साल भी दादी के साथ मिलकर वही काम करना था।  दादी ज्यादा बिमार चल रही हैं और वह हर काम को ऐसे कर रही थी जैसे जिंदगी ने उन्हें अंतिम अवसर बख्सा हो। इसलिए उन्होंने अगली दिवाली पर अपने ना होने की बात कहकर मेरी नींद खुलवा दी।

दलिद्दर निकालने के लिए बांस की बनी एक पुरानी टोकरी ऱखी गयी थी जिसे घर के हर कमरे में हसिया से बजाते हुए ईश्वर बैठें दलिद्दर निकलें ऐसा बोलना होता था जो कि मेरा काम था। दादी मेरे पीछे तेल से भरा एक मिट्टी का दीया लेकर चल रही थीं।

मैं हाथ में बांस की पुरानी टोकरी और हसिया लेकर जम्हाई ले रही थी, बस कहीं लुढ़क जाने का मन कर रहा था। लेकिन दलिद्दर को भी तो निकालना था सूर्य उदय होने से पहले। खैर मैं अपने काम पर लग गई, लेकिन एक गलती हो गई शुरुआत में ही। घर के पहले चार कमरों में ईश्वर निकले दलिद्दर बैठें ऐसा उल्टा-पुल्टा बोल दी...दादी ने पीछे से जोर की डांट लगायी..और कहा कि फिर से शुरु करो दलिद्दर तो बैठा ही रह गया ईश्वर निकल गए..

मेरी शामत.... जहां से शुरु की थी वहीं से फिर शुरु करना पड़ा यानि पहले कमरे से ठीक ठीक ईश्वर बैठें दलिद्दर निकलें बोलते हुए टोकरी पीटना शुरु की। अभी पीछे चौदह कमरे बाकी थे।
सारे कमरों को निपटाते हुए अब उस कमरे की बारी आयी जिसमें की भैंस अपने बच्चों के साथ सो रही थी। अब तक मैं नींद से पूरी तरह बाहर आ गयी थी। जैसे ही मैं भैंस के कमरे में टोकरी पीटते हुए गई भैंस भड़क उठी और खूंटे के चारो तरफ चक्कर लगाते हुए जोर-जोर से बें बें बें करने लगी, लेकिन पीछे से दादी ने आकर उसे शांत कराया।

 अब लगभग घर के कोने-कोने से दलिद्दर निकल चुका था फिर हम खलिहान के पास नहर के किनारे जाकर उस टोकरी को रखकर और दीपक जलाकर रखे औऱ दलिद्दर को बोले-अगर कहीं से सुन रहे हो तो सुनो अगले साल ऐसे ना छकाना,आसानी से घर से निकल जाना, चाहे दादी रहें या ना रहें।

शनिवार, 2 नवंबर 2013

धूल पीसने वाली चक्की..




यह श्रेय श्रेया को जाता है कि इनका चित्र उतारने में हम सफल रहे वरना पुराने कपड़ों में फोटो खिंचाने से इन्हें गुरेज है। इनके जीवन की पिछली दो दीवाली ऐसे ही बीत गई..घर वालों ने इन्हें पटाखे नहीं दिलवाए..अबकि इनकी तीसरी दीवाली है, मुहल्ले के बच्चों ने इनके कान भर दिए कि दीवाली में किन-किन चीजों की फरमाईश करनी है...

तो शुरुआत यहां से हुई कि आज जब दीपक बांटने वाले कुम्हार घर आए तो इन्होंने मिट्टी की बनी चक्की लेने की जिद की...जब इनसे पूछा गया कि चक्की का क्या करोगी तो बोलीं- धूल पीसेगें..फिर उसे कपड़े मे चालेंगे...फिर उसे पानी मे सानकर हलुवा पूड़ी बनाएंगे और धूप में सुखाएंगे...और कल दुकान लगाकर उसे बेचेगें। बाकी पटाखे, मिठाई और कपड़ों के जुगाड़ में लोग लगे हैं इनके खातिर।

बचपन को करीब से देखना कितना प्यारा लगता है, आजकल बस मैं भी इनका मिट्टी का बना हलवा पुड़ी बेचवाने में मदद कर रही हूं।