सोमवार, 9 जून 2014

हार की मार...

पिछले कई दिनों से उत्तर भारत में भीषण गर्मी से त्राहि-त्राहि मची है। आसमान से मानो आग के गोले बरस रहे हैं और लोग अंडे की तरह उबल रहे हैं। इस भीषण गर्मी से जब मनुष्य इतना बेहाल है तो बेजुबान जानवरों का क्या कहा जाए। जहां पूरा देश बिजली की अघोषित कटौती की मार झेल रहा है वहीं बिजली औऱ पानी को लेकर उत्तर प्रदेश की हालत बेहद खराब है। इनमें वाराणसी इस समय अपने सबसे बुरे दिनों को झेल रहा है। प्रदेश सरकार लोगों से हार का बदला निकाल रही है। वाराणसी सीट से भाजपा की जीत के बाद लोगों को उम्मीद थी कि अच्छे दिनों में ये गर्मी बस यूं ही बीत जाएगी। लेकिन देखा जाए तो बिजली-पानी के मामले में सबसे ज्यादा बदतर हालत वाराणसी की ही है।

 इस दुर्दशा के लिए लोग प्रदेश सरकार  को तो कोस ही रहे हैं साथ ही भाजपा को भी जिम्मेदार ठहरा रहे हैं जिसने यहां से जीत तो दर्ज कर ली लेकिन इस जीत का बदला कोई औऱ निकाल रहा है। वहां की जनता आस लगाए जरूर बैठी है लेकिन उन्हें यह नहीं पता है कि यहां अच्छे दिन कैसे आएंगे। लोगों को बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं जिससे उन पर इस भीषण गर्मी की दोतरफा मार पड़ रही है। लोग कराह रहे हैं, दम भर रहे हैं और फिर एक दूसरे को वही आसरा दे रहे हैं कि वाराणसी के अच्छे दिन आने ही वाले हैं, लेकिन कब यह किसी को नहीं पता।

पिछले कई सालों से इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का सबसे गर्म शहर बन चुका है। इस भीषण गर्मी में अब तक दिल्ली, मथुरा, झारखंड और इलाहाबाद से कई लोगों की जानें भी जा चुकी हैं। कहा जाता है कि कर्क रेखा इलाहाबाद से होकर गुजरती है शायद इसलिए यहां जबरदस्त गर्मी पड़ती है।

बहरहाल इस साल समूचा उत्तर प्रदेश अखिलेश सरकार की कोपभाजन का शिकार बन रहा है। अपने ही घर के मतदाताओं का वोट न पाकर करारी हार का सामना करने वाली सपा इस भीषण गर्मी में लोगों को बिजली-पानी जैसी बुनियादी चीजों की कटौती कर अपनी हार का बदला ले रही है। अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो इस भीषण गर्मी में दम तोड़ने वालों की संख्या में इजाफा होने से कोई नहीं रोक सकता।

शनिवार, 7 जून 2014

ਜੁਲਮ ਦੀ ਹੱਦ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ !!



ਕੱਲ ਅਲਜਜੀਰਾ ਚੈਨਲ ਦੁਆਰਾ ਔਰਤਾਂ ਉੱਤੇ ਬਣੀ ਡਾਕਿਊਮੇਂਟਰੀ ਵੇਖ ਰਹੀ ਸੀ ।  ਉਸ ਵਿੱਚ ਕਈ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਦੀਆਂ ਔਰਤਾਂ ਦੀਆਂ ਹਲਾਤਾਂ ਨੂੰ ਵਖਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ ।  ਪਹਿਲਾ ਸੀਨ ਹਰਿਆਣਾ ਵਲੋਂ ਸ਼ੂਟ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸੀ ਜਿੱਥੇ ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਦਾ ਵਪਾਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।  ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਖਰੀਦ ਕਰ ਲਿਆਈ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਜਬਰਦਸਤੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਵਿਆਹ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ । ਇਹ ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਜਦੋਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਮਾਂ ਬਣਦੀਆਂ ਹਨ ਤਾਂ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਛੋਟੀ ਬੱਚੀਆਂ ਨੂੰ ਚੁੱਕਕੇ  ਬਚਪਨ ਵਿੱਚ ਹੀ ਬੇਂਚ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ । 
 ਪਸ਼ੁਆਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅੱਧੀ ਰਾਤ ਨੂੰ ਇਸ ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਨੂੰ ਟਰੱਕਾਂ ਉੱਤੇ ਲਾਦਕਰ ਦੂੱਜੇ ਸ਼ਹਿਰ ਭੇਜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।
ਇੱਕ ਤੀਵੀਂ ਮਜਦੂਰ ਆਪਣੀ ਕਹਾਣੀ ਦੱਸਦੇ ਹੋਏ ਫਫਕ - ਫਫਕ ਕਰ ਰੋ ਰਹੀ ਸੀ ।  ਆਪਣੀ ਛੋਟੀ ਗੁੱਡੀ ਨੂੰ ਉਹ ਅੰਚਲ ਵਿੱਚ ਦਬਾਏ ਦੱਸ ਰਹੀ ਸੀ ਕਿ ਸਾਲਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਉਸਨੂੰ ਵੀ ਇੰਜ ਹੀ ਉਸਦੇ ਪਿੰਡ ਵਲੋਂ ਚੁੱਕਕੇ ਇੱਥੇ ਲਿਆਇਆ ਗਿਆ ਸੀ ਔਜਬਰਦਸਤੀ ਵਿਆਹ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਗਈ ਸੀ ।  
 ਉਸਦਾ ਪਤੀ ਮਜਦੂਰ ਸੀ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਵਿਆਹ  ਦੇ ਬਾਅਦ ਉਸਨੂੰ ਵੀ ਮਜਦੂਰੀ ਕਰਣੀ ਪਈ ।  ਹੁਣ ਉਸਦਾ ਪਤੀ ਘਰ ਵਿੱਚ ਦਾਰੂ ਪੀਕੇ ਸੁੱਤਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ ਔਉਹ ਇਕੱਲੇ ਮਜਦੂਰੀ ਕਰਦੀ ਹੈ ।  ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ ਘਰ ਆਉਣ ਉੱਤੇ ਨਸ਼ੇ ਦੀ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਪਹਿਲਾਂ ਉਸਦਾ ਪਤੀ ਉਸਨੂੰ ਪੀਟਤਾ ਹੈ ।  ਉਹ ਰੋਂਦੇ ਹੋਏ ਖਾਨਾ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੈ । 
 ਉਸਨੂੰ ਖਿਡਾਉਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਰਾਤ ਵਿੱਚ ਪੈਰ ਵੀ ਦਬਾਤੀ ਹੈ ।  ਇਹ ਕਹਾਣੀ ਦੱਸਦੇ ਹੋਏ ਤੀਵੀਂ ਜ਼ੋਰ ਵਲੋਂ ਰੋ ਰਹੀ ਸੀ । 

ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਔਰਤਾਂ ਹਮੇਸ਼ਾ ਵਲੋਂ ਹੀ ਕੋਮਲ ਹਿਰਦਾ ਦੀ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ ।  ਮਰਦ ਚਾਹੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਜੀਨਾ ਹਰਾਮ ਕਰ  ਦੇ ਲੇਕਿਨ ਉਹ ਕਿਵੇਂ ਵੀ ਖੁਸ਼ ਰਹਿਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੀਆਂ ਹਨ ।  ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਨੂੰ ਬਚਪਨ ਵਲੋਂ ਇਹੀ ਸੀਖਾਇਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੁੜੀ ਦੀ ਡੋਲੀ ਪਿਤਾ  ਦੇ ਘਰ ਵਲੋਂ ਔਅਰਥੀ ਪਤੀ  ਦੇ ਘਰ ਵਲੋਂ ਉੱਠਦੀ ਹੈ ।  ਔਰਤਾਂ ਕਿਸੇ ਵੀ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਮਰਦਾਂ  ਦੇ ਨਾਲ ਸਮੱਝੌਤਾ ਕਰਣ ਨੂੰ ਤਿਆਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਲੇਕਿਨ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਛੋੜਤੀ ।  ਅੱਜਕੱਲ੍ਹ ਪੁਰਖ ਔਰਤਾਂ ਦਾ ਜੋ ਹਾਲ ਕਰ ਰਹੇ ਹੈ ਉਹ ਸੱਚ ਵਿੱਚ ਅਤਿ ਤਰਸਯੋਗ ਹੈ । ਜੇਕਰ ਔਰਤਾਂ ਉੱਤੇ ਇੰਜ ਹੀ ਜੁਲਮ ਚੱਲਦਾ ਰਿਹਾ ਤਾਂ ਇੱਕ ਦਿਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਅਸਤੀਤਵ ਹੀ ਖ਼ਤਮ ਹੋ ਜਾਵੇਗਾ ।

शुक्रवार, 6 जून 2014

ਜੀਵਨ ਦੁੱਖ ਹੈ ! !

ਗੌਤਮ ਬੁੱਧ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਜੀਵਨ ਇੱਕ ਦੁੱਖ ਹੈ ।  ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਜੀਵਨ ਸੱਚ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਦੁੱਖ ਹੈ ,  ਦੁਖਾਂ ਦਾ ਪਹਾੜ ਹੈ ਜਿਨੂੰ ਲਾਂਘਤੇ ਹੋਏ ਅਸੀ ਜੀਵਨ ਭਰ ਅੱਗੇ ਵਧਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ।  ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਪੜਾਉ ਇਹ ਵੀ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਸਾਡੀ ਪੜਾਈ ਪੂਰੀ ਹੋ ਚੁੱਕੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਸੀ ਨੌਕਰੀ ਲਈ ਮਾਰੇ - ਮਾਰੇ  ਫਿਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ । ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਿੰਦਗੀ ਬੇਹੱਦ ਨੀਰਸ ਲੱਗਦੀ ਹੈ ਔऱ ਅਸੀ ਦੁਨੀਆ  ਦੇ ਸਭਤੋਂ ਦੁਖੀ ਇੰਸਾਨ ਹੁੰਦੇ ਹਨ । ਇਸ ਸਾਰੀ ਚੀਜਾਂ ਦੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਚੱਲ ਹੀ ਰਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਕਿ ਘਰ ਵਾਲੇ ਵਿਆਹ ਕਰਣ ਦਾ ਦਬਾਅ ਬਣਾਉਣ ਲੱਗਦੇ ਹਾਂ ।  ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਿਸ ਦੌਰ ਵਲੋਂ ਅਸੀ ਗੁਜਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਆਪਣੀ ਹਾਲਤ ਉਸ ਗਧੇ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਨੂੰ ਢੋਣ ਦਾ ਦਮ ਨਾ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਉਹ ਦਮ ਲਗਾਕੇ ਪਿੱਠ ਉੱਤੇ ਲਦਾ ਬੋਝ ਢੋਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ । ਠੀਕ ਉਂਜ ਹੀ ਅਸੀ ਵੀ ਨਿਠੱਲੇ ਬਣਕੇ ਢਿੱਡ  ਦੇ ਜੂਗਾੜ ਲਈ ਮਾਰੇ - ਮਾਰੇ ਫਿਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹੈ ।  ਲੇਕਿਨ ਘਰ ਵਾਲੇ ਕਿਸੇ ਔऱ ਹੀ ਦੁਨੀਆ ਦਾ ਸੁਫ਼ਨਾ ਦਿਖਾਂਦੇ ਹਾਂ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਰੰਗ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ।  ਅਤੇ ਆਖ਼ਿਰਕਾਰ ਅਜਿਹੇ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਪਰਵੇਸ਼  ਕਰਣਾ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਿੱਥੋਂ ਇੱਕ ਵਾਰ ਫਿਰ ਜਿੰਦਗੀ ਦੀ ਦੋਹਰੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ।

मंगलवार, 3 जून 2014

एक सबक दूसरों के काम आ रहा...


सालों पहले जब हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं में आज की तरह अच्छे प्रतिशत नहीं आते थे उसी दौर में जतिन ने इंटरमीडिएट की परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाकर स्कूल ही नहीं वरन अपने जिले में भी टॉप किया। जतिन मेधावी छात्र था लेकिन इंटरमीडिएट के बाद आगे की पढ़ाई को लेकर उलझ गया। जतिन के माता-पिता कम पढ़े लिखे थे, अतः उनसे आर्थिक मदद के अलावा आगे के भविष्य को लेकर जतिन को कोई मार्गदर्शन नहीं मिला। जतिन के कुछ रिश्तेदारों ने उसे ग्रेजुएशन करने को कहा तो किसी ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का सुझाव दिया। 

जतिन दोनो लोगों की बातों में इस तरह उलझा कि उसने कला वर्ग से स्नातक में दाखिला ले लिया जबकि वह अब तक विज्ञान का छात्र था। पढ़ाई के प्रथम वर्ष में ही उसका मन न लगा। 
अगले साल उसने फिर से प्रवेश परीक्षा दी और इस बार वह विज्ञान वर्ग में दाखिला लिया। स्नातक पूरा हो जाने के बाद भी उसका लक्ष्य स्पष्ट नहीं हुआ कि उसको अपने जीवन में क्या करना है।जो कोई उसे जैसी राय दे देता वह उसी विषय में दाखिला ले लेता। 

इस तरह उसके पास डिग्रियों की भरमार हो गयी जबकि नौकरी अभी भी उससे कोसों दूर थी। वह रोजगार के चक्कर में दिन भर यहां से वहां चप्पलें घिसता औऱ किसी भी नौकरी की जल्द कोई आसार न दिखने पर वह मानसिक तनाव से गुजरने लगा। उसे लोगों का कहा अब बिल्कुल पसंद नहीं आता औऱ चिड़चिड़ेपन ने उसे घेर लिया।

इस सब चीजों से निजात पाने के लिए उसने एक कोचिंग संस्था में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया जिससे उसकी आजीविका चलनी शुरू हो गयी। धीरे-धीरे उसने उन्नति की और आज खुद का एक बड़ा कोचिंग संस्थान चलाता है। जिसमें सैकड़ों हाईस्कूल औऱ इंटरमीडिएट के बच्चे कोचिंग पढ़ने आते हैं।

बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट आ गए हैं और हर साल जतिन की तरह ही लाखों बच्चे यह नहीं समझ पाते की उन्हें आगे करना क्या है। वह अपनी रुचि ना तो समझ पाते हैं ना ही जाहिर कर पाते हैं और लोगों की कही बातों में उलझ कर कुछ भी करने के चक्कर में किसी भी विषय में दाखिला ले लेते हैं। आगे उस विषय में मन ना लगने पर उन्हें उसे मजबूरन छोड़ना पड़ता है। इससे पैसे के साथ-साथ उनका कीमती वक्त भी बर्बाद होता है। इससे वे बच्चा मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं।

चूंकि जतिन इस दौर से गुजर चुका है। भटकते-भटकते ही सही लेकिन आज उसके पास उसकी खुद की बड़ी कोचिंग संस्था है। वह इंटरमीडिएट के बाद आगे की पढ़ाई को लेकर होने वाली उलझन को अच्छी तरह समझता है। इन उलझनों से तमाम बच्चों को बाहर निकालने के वह हर साल अपने कोचिंग संस्था में बाहर से कुछ कॅरियर काउंसलर को बुलाता है। जिनकी सहायता से बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए विषय चुनने में काफी सहायता मिलती है। इस साल भी सैकड़ों बच्चे उसके कोचिंग संस्था में जाकर कॅरियर काउंसलर से मार्गदर्शन लेकर अपने भविष्य की नींव खुद रखने के लिए तैयार हैं। जिससे जतिन को इस बात की खुशी मिलती है कि बच्चा दूसरों की बातों में न आकर अपना निर्णय खुद ले रहा है।

अगर हम अपनी गलतियों से सीखें और आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर मार्गदर्शन प्रदान कर उन्हें गर्त में जाने से बचाएं तो ऐसे लाखों बच्चों का भविष्य खराब होने से बचाया जा सकता है, जो मेधावी तो होते हैं लेकिन यह नहीं समझ पाते कि किस रास्ते पर चलकर जीवन में आगे बढ़ा जा सकता है।

शनिवार, 31 मई 2014

छोटी मगर बड़ी बात..




पिछले दिनों एक मित्र अपनी बीवी के साथ एक शादी समारोह में शरीक़ होने गए। वहां अलग-अलग स्टॉलों पर विभिन्न किस्म के व्यंजन सजाए गए थे। खाने वालों की जबरदस्त भीड़ थी। खाने-पीने के बाद वापस आते समय वे कार्यक्रम के होस्ट से मिले और उन्हें शुक्रिया अदा करते हुए घर वापसी की विदाई ली। होस्ट ने उनसे आइसक्रीम खाने का निवेदन किया तब मित्र ने बताया कि वे आइसक्रीम खा चुके हैं। विदा लेकर चलते हुए दोस्त की बीवी ने होस्ट से कहा- भाईसाहब सारे व्यंजन बहुत अच्छे थे औऱ आइसक्रीम भी अच्छी थी।

रास्ते में मित्र ने अपनी बीवी को समझाते हुए कहा कि तुमने कहा खाना बहुत अच्छा था अगर तुम कहती खाना अच्छा था तब भी खाने का महत्व उतना ही रहता। उसके बाद तुमने यह कहा कि आइसक्रीम भी अच्छी थी मतलब खाना तो अच्छा था लेकिन उसके आगे आइसक्रीम अच्छी नहीं थी।

मित्र की बीवी उनके इस बात से तुनक गयी। मित्र ने उन्हें समझाते हुए कहा- कम शब्दों में बात को अच्छे ढंग से कहना आना चाहिए। खाना बहुत अच्छा है कहने से बेहतर है अगर हम कहें खाना अच्छा है तब भी बात वही होती है। चीजें या तो अच्छी होती हैं या बुरी। फिर उसमें बहुत शब्द जोड़कर उन्हें बहुत अच्छा या बहुत खराब नहीं कहा जा सकता। यदि अच्छा है तो अच्छा और खराब है तो खराब।

कहा जाता है कि हिटलर लोगों से बातें करते वक्त कम से कम शब्दों के प्रयोग से ज्यादा से ज्यादा बातें समझा देता था। उसे लंबे और बड़े वाक्य बिल्कुल पसंद नहीं थे।

यूं तो नाहक ही बोलना लोगों की आदत होती है। किसी भी बात को कहने का सलीका या तो उन्हें पता नहीं होता या इसे कम लोग पसंद करते हैं। जो लोग शब्दों और बड़े या छोटे वाक्यों पर बारीकी से ध्यान देते हैं ऐसे लोगों को अक्सर चुप औऱ शांत ही देखा जाता है। वहीं कुछ लोग इतना बोलते हैं कि उनके शब्द और वाक्य तो गलत होते ही हैं साथ में उन्हें दस-पन्द्रह मिनट तक सुनते रहने के बाद समझ में आता है कि आखिर वे कहना क्या चाह रहे थे। छोटी सी बात को कहने के लिए लोग वाक्यों में ना जाने कितने विशेषण जोड़कर उसे प्रस्तुत करते हैं जबकि सीधे तौर पर कम शब्दों के इस्तेमाल से भी बात का सीधा और सटीक अर्थ वही होता है जो बात हम समझाना चाहते हैं।

शुक्रवार, 30 मई 2014

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण व जनसत्ता में प्रकाशित ..



कौन सिखाता है इन्हें!!


कल त्रिपाठी जी के यहां उनके एक रिश्तदार आए। अपनी बाइक घर के बाहर गली में खड़ी कर जैसे ही वे अन्दर गए वैसे ही त्रिपाठी जी के दोनो बच्चे निकले और बाइक पर बंदरों की तरह झूलने लगे। बड़ा वाला बच्चा दोनो हाथों से बाइक की हैंडल पकड़ कर मुंह से गर्र..गर्र की आवाज निकाल रहा था मानों बाइक स्टार्ट करने की उसकी पुरजोर कोशिश नाकाम हो रही हो। दूसरा बच्चा हैंडिल के ऊपर लगे शीशे ऐंठ रहा था। उस शीशे में उसे अपना चेहरा फैला हुआ और बड़ा भद्दा दिख रहा था औऱ वह सोच में पड़ा था कि मैं इतना बदसूरत तो नहीं। उसने बाइक के पेट्रोल टैंक का ढक्कन खोला औऱ उसके अंदर झांकने लगा औऱ बड़े वाले से बोला भैया चलो तुम पीछे बैठो मैं बाइक चलाता हूं। बड़े वाले ने कहा नहीं मैं चलाउंगा। दोनों बाइक पर बैठे-बैठे ही लड़ने लगे, और एक दूसरे का गला पकड़ने लगे। नीचे से बाइक अपने स्टैंड से फिसल गयी और बड़ा लड़का बाइक के नीचे दब गया औऱ जोर-जोर से रोने लगा। उसे काफी चोटें लगी जबकि छोटे वाले को पैर छिल गया औऱ गाढ़ा खून बहने लगा।
 
मैने छोटे बच्चों को देखा है। उनमें सीखने की ललक बहुत ही ज्यादा होती है। पापा की नजर बचाकर उनकी मोबाइल का सारा बटन इधर-उधर दबाकर देखते रहते हैं कि किससे क्या होता है। ज्यादातर बच्चे कंप्यूटर औऱ मोबाइल पर गेम खेलना खुद ही सीखते हैं। इन्हें अलग से सीखाने की जरूरत नहीं पड़ती। कुछ बच्चे ऐसे भी होते हैं जो अपनी घड़ी औऱ विडियोगेम्स के सारे पार्ट्स अलग करके उसे जोड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं। बचपन में सीखने की ललक तो लड़कियों में भी होती है लेकिन ज्यादातर बच्चियां ऐसे टेक्निकल औऱ इलेक्ट्रिकल चीजों में कम रुचि लेती हैं। उन्हें गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेलना अच्छा लगता है, मां  या बड़ी बहन के बालों में कंघी करना या उनकी उल्टी सीधी चोटियां बनाना अच्छा लगता है। जबकि छोटे लड़के गुड्डे-गुड़ियों से खेलते हुए कम ही दिखाई देते हैं। उन्हें चश्मा, घड़ी, विडियोगेम इत्यादि की जरूरत होती है।

लड़के और लड़कियों की पसंद बचपन से ही अलग होती है। लेकिन यह सच है कि सीखने के मामले में लड़के बचपन से ही लड़कियों से आगे होते हैं। इन्हें सीखाने की जरूरत नहीं पड़ती ये खुद ही घर की चीजों या अपने टेक्निकल खिलौनों पर एक्सपेरिमेंट शुरू कर देते हैं। बड़े होने पर हो सकता है लड़के-लड़कियों की पसंद एक जैसे हो जाती हो, भले ही वह सीखने के मामले में हो।