रविवार, 22 मार्च 2015

अपनी तरह रहा जाए!!

सुनो..मैने एक फीमेल टीचर का जुगाड़ कर दिया है। कल से वो तुम्हें तुम्हारे घर पर इंग्लिश और मैथ्स पढ़ाने जाएंगी।
-यार उन्हें घर पर मत भेजो।
क्यों...क्या दिक्कत है?
-मेरा मकानमालिक उन्हें यहां आने नहीं देगा।
मकान मालिक को बोल देना फीमेल टीचर है..शिक्षक नहीं शिक्षिका है।
-मकानमालिक अपने गेस्टरुम में किराएदारों के जान-पहचान वालों को बैठने नहीं देता..घर में और कोई जगह नहीं है जहां बैठकर पढ़ा जा सके।
ज्यादा बहानेबाजी मत कर..पढ़ने वाले ना सड़क पर भी खड़े होकर पढ़ लेते हैं। तू एक काम कर उन्हें अपने कमरे में ही बिठा कर पढ़ लेना।
-यार एक ही तो छोटा सा कमरा है..जिसमें सोना, खाना बनाना सब करना पड़ता है। सामान भी बिखरा रहता है। इतनी मॉड टीचर ऐसे कमरे में बैठ कर कैसे पढ़ा पाएगी?
हां हां...पता है...तेरे कपड़े, लैपटाप, चार्जर, किताबें सब बेड पर फेंके होते हैं...एक जोड़ी जूते इधर तो दो जोड़ी सैंडिल उधर फेंके होते हैं। चार दिन के जूठे बर्तन पड़े होते हैं। प्याज के छिलके कमरे में उड़ रहे होते हैं?
-तुमने कब देखा..मैं कैसे रहती हूं?
देखा नहीं फिर भी कह सकता हूं...तू ऐसे ही रहती है। सब समेटना सीख। और सुन लड़कों की तरह नहीं लड़कियों की तरह रहा कर।

शनिवार, 21 मार्च 2015

उस भीड़ में सिर्फ वही चिल्लाने वाला निकला



टैक्सी कैंट से मुगलसराय के लिए जा रही थी। ड्राइवर ने यात्रियों को जितना जल्दी चलने का आश्वासन देकर टैक्सी में बिठाया, बाद में उतना ही झेलाया। एक आदमी काला चादर ओढे हुए आया और टैक्सी में बैठ गया। देखने में उस टैक्सी ड्राइवर के भाई माफिक लगता था। लेकिन ड्राइवर होश में था जबकि टैक्सी में बैठा आदमी नशे में। सबसे बड़ी बात यह थी कि वह ड्राइवर का भाई नहीं था..महज एक यात्री था।

यात्रियों के हो-हल्ला के बाद ड्राइवर ने टैक्सी स्टार्ट की। लेकिन कैंट से चलकर चौकाघाट पर ही रोक दिया। सभी यात्री परेशान। किसी को मुगलसराय से ट्रेन पकड़नी थी तो किसी को अपने काम पर जाने की जल्दी थी। सभी लोग ड्राइवर को जल्दी चलने के लिए बोल रहे थे। लेकिन वो किसी की न सुनता। कुछ दूर चलकर पान खाने के लिए टैक्सी रोक देता तो कहीं चाय पीने के लिए।

वह आदमी जो काला चादर लपेटे नशे में बैठा था..वह भी काफी उकता गया और टैक्सी में ही आंदोलन छेड़ दिया। उसने सभी यात्रियों से बारी-बारी से पूछा कि किसको कहां तक जाना है...इसके बाद ड्राइवर को सुनाते हुए जोर से बोला..फलाने भाई आप जहां उतरना दस रुपये कम किराया देना..बहन जी आप जहां उतरना आप भी पूरा किराया मत देना।

उसकी यह बातें सुनकर ड्राइवर के सीने में आग धधकने लगी और वह गाड़ी की रफ्तार को तेज कर दिया मानो अब सीधे जाकर मुगलसराय के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर ही रोकेगा। 

नशे में धुत वह आदमी मन ही मन मुस्कुरा रहा था जैसे उसने नशे में होने के बाद भी कोई नेकी वाला काम कर दिया हो।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

चलती ट्रेन और गोभी का अचार...

मेरी ट्रेन तुम्हारे शहर से होकर गुजरेगी। कुछ चहिए तो बता देना घर से लेते आऊंगा...हां.. तुम्हें जहमत इतना भर उठाना पड़ेगा कि स्टेशन पर आना होगा...वो भी बिल्कुल समय पर या समय से पहले...ट्रेन उस स्टेशन पर सिर्फ दो मिनट ही रूकती है।

रात को उससे बात करते हुए यह तय हुआ कि वो घर से गोभी का अचार लाएगा...और मैं समय से पहले स्टेशन पर पहुंच जाऊंगी।

लेकिन अगली सुबह ठंड ने ऐसे दबोचे रखा कि मेरी नींद ही नहीं खुली....कई बार उसका फोन आया...और मैं यह सोचकर फोन नहीं उठा सकी कि चलो..अचार ही तो है..अगर समय पर स्टेशन नहीं पहुंच पाई तो वह अचार लेकर चला जाएगा..थोड़ा नाराज भी होगा...लेकिन इतनी भारी चीज तो है नहीं...अगर मैं नहीं ले सकी तो उसके काम आ जाएगा

खैर...उसकी ट्रेन लेट थी...और मेरे उठने का समय भी हो चुका था.... लेकिन जब मैंने उसे फोन किया तो वह काशी (सिटी स्टेशन) तक पहुंच चुका था। अगला स्टेशन कैंट था...ट्रेन वहां दस मिनट रुकने वाली थी...इसके बाद मडुआडीह स्टेशन..जहां मुझे जाकर अचार लेना था...

मेरे घर से निकलने तक वह कैंट स्टेशन पहुंच चुका था.... और मैं मडुआडीह क्रासिंग पर भयंकर जाम में फंस गई। मैं उसे फोन पर सिर्फ एक ही बात कहती रही..अगर मैं समय पर नहीं पहुंच पायी..तो तुम ट्रेन से उतर जाना...अगली ट्रेन पकड़ कर चले जाना... लेकिन अचार देकर जाना....

मैं पैंतालिस मिनट तक जाम में फंसी रही...और उसकी ट्रेन कहीं आउटर पर खड़ी रही। फिर भी मन में यह आशंका जरूर थी कि मैं समय पर स्टेशन नहीं पहुंच पाउंगी....अब तक मैं अचार के भयंकर मोह में जकड़ चुकी थी।
जाम में अन्य गाड़ियों से टकराते हुए रिक्शे वाले ने जाने कैसे-कैसे रिक्शा निकाला...औऱ उसैन वोल्ट वाली रफ्तार से रिक्शा दौड़ाकर मुझे तीन मिनट के अंदर स्टेशन पर पहुंचा दिया।

लेकिन हाय राम...ट्रेन का वहां कुछ अता-पता नहीं था...कोई अनाउंसमेंट नहीं...ना जाने निकल गई या आने वाली है....कुछ पता नहीं चल रहा था।
मैंने फोन किया तो उसने बताया कि उसकी ट्रेन निकल चुकी है...थोड़ी ही देर में पहुंच जाएगी। मैं प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुंच गई...कुछ देर बाद उसकी ट्रेन रुकी...और वह हीरो की तरह एक थैला हाथ में लिए उतरा....उसने मुझे थैला पकड़ाया ही था कि ट्रेन के जाने का सिग्नल हो गया और वह चला गया।

गोभी का अचार खाने के लिए दिन में दो बार खाना खाने लगी...और चार दिन के भीतर सिर्फ खाली डिब्बा बचा..अचार खतम हो चुका था।


कभी-कभी दोस्त शहर से गुजरते हुए अचार का थैला पकड़ा जाते हैं.... चार दिन तक चाटने के बाद अचार भले ही खत्म हो जाए...लेकिन सुगंध दिमाग में रोज बनी रहती है....खाली डिब्बा जो पड़ा है घर में..

बियाह का कैसट



बुआ..दरवाजा कोलो....
कोलो जी...
खट्ट..खट्टट..धम्म...धम्म..

(..और जब मैंने दरवाजा खोला..)

इतने देर से दरवाजा कटकटा रही थी में..तुम कोली नहीं..
-खोल तो दिया बेटा...अंदर आ जाओ
नहीं...अंदर नहीं आना मेने..
चलो मेरे पापा के बियाह का कैसट लगा है टीबी में..
सभ लोग देक रहा है...तुम भी देक लो..

(उसकी बातें सुनकर जाने क्यों मेरी हंसी छूट गई)
मेरे हंसते ही उसका चेहरा जाने कैसा बन गया....
वो सकपकाई हुई सी मुझे ऐसे देख रही थी..जैसे मैंने उसकी कोई चोरी पकड़ ली हो...

मैंने कहा- तुम चलो..मैं दो मिनट में आती हूं...
वो पैर पटकते हुए चली और बोली- आओ चाहे मत आओ..फिर ना कहना अपने पापा के बियाह को मेने टीबी पर नहीं दिकाया...

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

भाई का साबुन..

वह भाई के साबुन से नहाने की जिद करती रही..मां ने उसके सिर पर दो लोटा पानी डालकर गाल पर दो थप्पड़ जड़ दिया और उसकी नाक, आंख, कान, मुंह को हाथों से ऐसा रगड़ा कि कोई और चीज होती तो उसका हुलिया बदल जाता।
 मां उसे वहीं छोड़ कर चली गई। वह जोर-जोर से रोती रही...शायद वैसे जैसे दादी की कहानियों में स्त्रियों के रोने पर जंगल की पत्तियां झड़ जाया करती थीं। जहां खड़ी होकर वह रो रही थी..वहांं भी तो एक नीम का पेड़ था...लेकिन उसका रूदन सुनकर एक भी पत्ती नहीं गिरी।

थोड़ी देर बाद मां अपने कमरे से तैयार होकर भाई को गोद में लेकर घर से बाहर कहीं चली गई। वह वहीं खड़ी होकर अभी भी रो रही थी। उसके देह का पानी सूख गया था। भाई का साबुन बगल में पड़ा था। लेकिन उसके लिए अब साबुन का कोई महत्व नहीं था।

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

देखो...ये किस तरह से बताते हैं

कल शाम पड़ोस के एक घर में बैठी थी। तभी पड़ोसिन के बच्चे अपनी आंटी से मिलकर उनके मायके से आए। पड़ोसिन की देवरानी यानि उन बच्चों की आंटी प्रेग्नेंट थीं, और वह अपने मायके गई थीं। आंटी से मिलने की जिद करने पर पड़ोसिन ने बच्चों को उनके मायके भेजा था।
 बच्चों के वहां से लौटने के बाद पड़ोसिन अपनी देवरानी का हाल जानने के लिए बेताब थीं।
 उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे से पूछा,  'बताओ ना आंटी कैसी दिख रही थीं '?
 बेटा बोला,  'जैसी यहां पर दिखती थीं"।
पड़ोसिन बोली,  'आंटी का पेट देखा कितना निकला था' !!
बेटा चिढ़ कर बोला,  क्या बात कर रही हो मम्मी, मैं यह देखने थोड़े ही गया था कि आंटी का पेट कितना निकला है...हां तुम जाने से पहले मुझे यह बात बोली होती तो मैं देख कर आता...मेरा तो ध्यान ही नहीं गया कि पेट कितना निकला है। हां....वो मोटी जरूर हो गयी थीं।
 पड़ोसिन ने फिर अपनी बेटी से पूछा,  'तू बता न चाची का पेट कितना निकला था' !!
बेटी बोली...अरे मम्मी, चाची का पेट तो तोंदूमल की तरह निकला था, उनको बहुत पसीना आ रहा था और मिचली भी। पैरों में सूजन  थी...वो कह रही थीं कि उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगता। मन घबराता है .....
बेटी की बातें सुनकर पड़ोसिन किसी सोच में गोते खाने लगीं ।

मैनें अक्सर देखा है...मर्द किसी बात को उस तरीके से नहीं कहते जैसे कि लड़कियां।

मेरे पिजाजी जब बुआ से मिलकर आते थे तब मां उन्हें पानी का गिलास थमाकर हालचाल पूछने बैठ जाती थी पिताजी उन्हें एक गिलास पानी जितना ही बुआ का हालचाल बताते। मतलब पानी खतम तो हालचाल खतम। फिर वो उठते और चले जाते। फिर बुआ का हालचाल  नहीं पूछा जाता।
मां बुआ का हालचाल उस ढंग से सुनना चाहती थी जैसे दो सहेलियां आपस में बतिआती हैं, लेकिन पिताजी कक्षा में पढ़ाए गए किसी अध्याय की तरह शुरू और  खत्म कर देते। मां को यह हजम न होता...और वह गुस्से के मारे दोबारा पूछती ही नहीं थीं।
लेकिन यह सच है कि जिस तरह औरतें किस्सा सुनाती हैं...मर्द उसकी बस शुरूआत भर ही कर पाते हैं।