सोमवार, 9 मई 2016

सुबह की कोचिंग



सुबह उठने से लेकर रात को सोने से पहले तक वह छह बार चाय पीती है। चाय बनाने के लिए कमरे का पंखा बंद करना पड़ता है इस तरह पंखे को थोड़ी देर की राहत मिलती है।
थोड़ी देर पहले सुबह के साढ़े सात बजे थे। वह चादर तान कर सो रही थी। कूलर की हवा से उसे ठंड लग रही थी। मैंने उसे जगाया कि उसके कोचिंग का टाइम हो रहा है। वह एक आंख खोलकर मुझे देखी (जैसे दोनों आंखें खोलने पर आंखों से नींद चली जाती हो) और फिर सो गई। थोड़ी देर बाद उठी और दोनों आंखें खोलकर बैठ गई। कभी पैर में खुजली करती तो कभी सिर में.. और मुझे घूर कर देख रही थी। उस वक्त शायद मैं उसकी मम्मी थी जिसने सुबह स्कूल भेजने के लिए उसे जगाने की जुर्रत कर ली थी।

जब वह सुबह जग जाती है तब से लेकर रात को सोने तक कमरे की शांति भंग रहती है। वह उठी, सबसे पहले कूलर और पंखा बंद की। सिर में खुजली करते और मुंह फुलाए हुए(सोकर उठने के बाद उसका चेहरा सूजा हुआ दिखता है) पानी गरम करने लगी। गिलास उठाने की जहमत उठाए बिना वह भगौने से ही गमर पानी गटक गई। अब मेरा चेहरा उसे साफ-साफ दिखाई दे रहा था। वह बोली-दीदू मुझे कोचिंग नहीं जाना आज...लेकिन तुमने जगा दिया तो तुम्हारा नाम रोशन कर आती हूं..जाती हूं और पढ़ ही आती हूं। जब मैं यह पोस्ट लिख रही हूं कमरे में खटर-पटर मची हुई है।
वह बेड के नीचे से बाल्टी और साबुन उठायी। कोने में रखी मेज से उसका पैर टकरा गया। उसपर रखी पानी की दो बोतलें जमीन पर आ गिरी। वह उन्हें उसी हाल में छोड़ बाथरूम में घुस गई।

 उफ्फ...वह कमरे में मिनट भर भी नहीं रहती है तो कितना सुकून सा लगता है। कोचिंग के लिए देर तो उसे वैसे ही हो रही थी। कुल सात मिनट में वह नहा कर आ गई। कुल एक मिनट लगा उसे गीले कपड़े फैलाने में। वह बॉलकनी से उसैन वोल्ट की रफ्तार में कमरे में आयी और बाल्टी, साबुन बेड के नीचे पटक दी। थोड़ी देर बाद वह कमरे में बरसाती मेंढक की तरह उछलने लगी ओहो—बहुत देर हो रहा है...जाऊं कि न जाऊं...जाऊं कि न जाऊं। 

एक बार फिर से कमरे का पंखा बंद हो गया। भगवान जी की आरती और अगरबत्ती करनी थी। पूजा के बाद वह मेरे हाथों पर पांच किशमिश रखी औऱ बोली माथे चढ़ाकर खा जाओ। कमरे का पंखा अभी तक बंद था। वह गैस पर भगौना चढ़ायी थी चाय बनाने के लिए। उधर चाय उबल रही थी और इधर मैडम रामदेव का योगा कर रही थीं। उसका एक पैर मेरे सिर के ऊपर से गुजरता तो दूसरा मेरे थोबड़े के ठीक सामने तना रहता। चाय भी फुर्सत में उबल रही थी। 

योगा पूरा हो चुका था। चाय छानकर कप में रखी जा चुकी थी। वह आंखों में काजल लगा रही थी। उसने एक बार अपने बालों को संवारा..ठीक से नहीं संवरे..तीन –चार बार की कोशिशों के बाद उसके मनमुताबिक बाल संवर गए। वह चेहरे पर क्रीम लगाई फिर एक और क्रीम लगाई। हाथ में घड़ी पहनी। इसके बाद चाय पीने बैठ गई। 

दीदू..मुझे कोचिंग जाना चाहिए कि नहीं जाना चाहिए?
मर्जी तुम्हारी..नहीं जाने की कोई खास वजह है क्या।
नींद आ रही है। लेकिन फिर भी जाती हूं।
सब कुछ कंपलीट हो गया था। वह टेबल से परफ्यूम की शीशी उठाई और साथ ही डर्मी कूल, नवरत्न तेल और आंवला जूस का डिब्बा जमीन पर गिरा दी। कमरा स्पिंज की महज से भर गया था..वह बैग में दो –चार किताबें रखी और मुझे टाटा की स्टाइल में हाथ दिखाते हुए कमरे से खिसक गई।
शांति..शांति..शांति

गुरुवार, 10 मार्च 2016

हॉस्टल की लड़कियां !



वह दो कमरों के बीच गैलरी में जमीन पर सोया था। टेबल फैन जमीन पर रखा हुआ था उसके सिर के ठीक पीछे। यदि हाथ-पैर की तरह सिर भी मारा जा सकता तो अब तक वह फैन उसका तकिया बन चुका होता। पंखे के बगल में गुलाबी रंग की बोतल में पानी भरकर रखा था। लुसेंट की किताब खुली पड़ी थी। यह बात सिर्फ उसे ही पता थी कि वह विज्ञान पढ़ते हुए सो गया था या फिर राजनीति शास्त्र या भूगोल।

किराए का वह घर दो गर्ल्स हॉस्टलों के बीच था, जिसमें वह रहता था। ऐसी जगहों पर किराए का कमरा मिलने पर लड़के अक्सर अपने को भाग्यशाली समझा करते थे। पहला हॉस्टल उस घर की गेट से दिखता था जबकि दूसरा घर के पीछे की छत से सटा हुआ था।

छत पर गैलरी में वह चादर तानकर सोया हुआ था। चादर की बाहर की दुनिया में सूरज ने रौशनी बिखेर दी थी। चिड़ियां दाने की तलाश में उसके छत पर चहलकदमी कर रही थीं। थोड़ी देर में वह उठ गया। बच्चों की तरह आंख मलते हुए उसने अपनी तरह की अंगड़ाई ली और उठकर चादर समेटने लगा। उसने पूरे बिस्तर को समेटा और चटाई सहित मोड़कर दीवार के किनारे लगा दिया। गुलाबी बोतल से वह पानी गटका और लुसेंट की किताब लेकर कहीं अदृश्य हो गया।

दोपहर में हॉस्टल की छत पर लड़कियों के कपड़े लटक रहे थे। सड़क से गुजरने वाले लोग उन कपड़ों को कुछ यूं देख रहे थे मानो इनकी नीलामी होने वाली हो। छत पर रखी सिंटेक्स की चार टंकियां ओवरफ्लो हो रही थी। पानी छत पर गिर रहा था और उसपर सूखी काई खुद को तरोताजा महसूस कर रही थी। उस हॉस्टल की एक लड़की दुपट्टे से सिर ढक कर तुलसी को दीया दिखा रही थी इसके बाद उसने अर्घ्य भी दिया।

उसके बिस्तर दीवार के किनारे ही पड़े दिख रहे थे। वह मोड़े गए बिस्तर के ऊपर बैठा था और अपने घुटनों पर थाली रखकर दोपहर का भोजन कर रहा था।

वह लड़की अर्घ्य देकर छत से नीचे उतरी और दूसरी लड़की से बोली- बिना घर वाले भैया जी छत पर बैठकर खाना खा रहे हैं। दूसरी लड़की खिलखिलाते हुए छत पर उसे देखने के लिए भागी।
शाम ढल गई थी। सूरज पलाश के पेड़ों के बीच से गुजरते हुए अंधेरा छोड़ गया था। उसके छत पर गैलरी में पीली रोशनी वाला एक बल्ब लटक रहा था। टेबल फैन जमीन पर हनहना रहा था। गुलाबी रंग की पानी की बोतल सीन से गायब दिखी। बिस्तर सुबह की तरह बिछे हुए थे। वह बैठकर पढ़ रहा था। उसके हाथ में एक नोटबुक थी।

वह स्पोर्ट्स का हॉफ टी-शर्ट और पैंट पहना था। पढ़ाई से ज्यादा वह मच्छरों को मारने में मेहनत कर रहा था। हॉस्टल की छत पर म्यूजिक की पढ़ाई करने वाली एक लड़की तबला बजाने का अभ्यास कर रही थी। सीन में तबले की धुन पर ही वह अपने हाथों से अपने शरीर को पीटते दिखाई दे रहा था। वह मच्छर मार रहा था।

रात के नौ बज चुके थे। वह पढ़ाई में लीन हो गया था। ठंडी हवा आलस के साथ बह रही थी। हॉस्टल की लड़कियां खाना खाकर छत पर टहलने के लिए आ गई थीं। ज्यादातर लड़कियां छत पर टहल-टहल कर फोन पर बातें कर रही थीं जबकि कुछ लड़कियों को उनके ब्वॉयफ्रेंड ने कब कौन सा तोहफा दिया था इसका हिसाब लगा रही थीं।

छत पर वैसे ही कोलाहल था जैसे चिड़ियों का झुंड दाना चुगते हुए करता है। उसकी निगाह लड़कियों की तरफ थी। इतनी सारी लड़कियों में से वो जाने कौन सी लड़की को देख रहा था या एक साथ सभी को देख रहा था। हवा में उसके नोटबुक का पन्ना फड़फड़ाता हुआ आखिरी पेज पर पहुंच गया था। वह होश में नहीं था। हॉस्टल की लड़कियां मिनी स्कर्ट्स और शार्ट्स में थीं। वह उन्हें बर्दाश्त करने की हद तक देख रहा था। वह कभी अपना फोन देखता तो कभी उन लड़कियों को। 

अचानक वह तेजी से अपना गर्दन झटका और आंखों को मसला। जैसे नींद से जाग गया हो। वह अपनी नोटबुक लेकर उठा, गैलरी की पीली रोशनी को बुझाया और फिर कहीं अदृश्य हो गया।

शनिवार, 5 मार्च 2016

लाइब्रेरी बंद थी !(भाग-2)



वह जब पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ रही थी। उसी दौरान एक गिलहरी उसके पैरों को कुचलते हुए निकल गई। गिलहरी के नाखून की खरोंच उसके पैरों पर आ गई थी। लेकिन वह कुछ इस तरह खुश हो रही थी जैसे मां लक्ष्मी उसके घर में अपने पदचिह्न छोड़ गई हों।

पेड़ के ऊपर दो गिलहरियां टहनियों पर दौड़ते हुए एक-दूसरे से आगे निकलने का खेल खेल रही थी। मच्छर के तीन छोटे बच्चे उसकी आंखों के सामने इस तरह भिनभिना रहे थे मानों उसकी आखों के आशिक हों। कोलाहल के बावजूद दो कुत्ते लाइब्रेरी के पास इतनी गहरी नींद में सो रहे थे जैसे किसी शराबी की पत्नी ने घर में रखी शराब चोरी से इन कुत्तों को पिला दी हो। दो अन्य कुत्ते मैदान में क्रिकेट खेल रहे लड़कों को देख रहे थे। जैसे उनकी मैच देखने की इच्छा इसी जन्म में पूरी होना लिखा गया था।

जैसे ही थोड़ा सन्नाटा छा जाता तब पेड़ पर बैठी एक चिड़ियां जोर से टींटींटीं करने लगती। मानो उसे उसी काम के लिए पेड़ की टहनी पर नियुक्त किया गया हो। पेड़ के पत्ते लगातार पड़ों से विदा ले रहे थे। गुलाब के दो फूल खिलकर डाली से लटक रहे थे। जैसे ही हवी बहती दो फूल एक दूसरे के गले लग जा रहे थे। खूबसूरत पत्तों से सड़क ढकी हुई थी। देखने में ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी दूसरे देश की सड़क हो।

कबूतर जैसी दिखने वाली कुछ चिड़िया सड़क पर दाने चुग रही थीं। जैसे अमरीश पुरी साहब तो सुबह से ही चावल के दाने डाले चिड़ियों का इंतजार कर रहे हों और चिड़ियो को अब जाकर फुर्सत मिली हो। 

उसके सफेद दुपट्टे पर पेड़ से कुछ चीटें गिर रहे थे और गिरते ही उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे अर्श से फर्श पर आ गए हों। कुछ चीटियां भी उसके सफेद दुपट्टे पर पेड़ के ऊपर से गिर रही थी जिनके चेहरे और आंखों को नॉर्मल आंखों से देख पाना संभव नहीं था। नन्हीं चीटियां उसके सफेद दुपट्टे पर इस कदर दुबक रही थीं मानों उन्हें शैतानी करने के लिए साफ-सुथरा सफेद चादर वाला बिस्तर मिल गया हो।

सड़क पर बिछी पेड़ों की पत्तियां हवा के साथ कुछ यूं पलट जा रही खीं जैसे करवट बदल रही हों।
धीरे-धीरे शाम हो गई। सूरज ढलने को आ गया था। उसने अपनी किताबें अपने झोले में रखी और हॉस्टल का रास्ता एक बार फिर नापने के लिए निकल गई।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

लाइब्रेरी बंद थी! (भाग-1)

उस दिन लाइब्रेरी बंद रहती थी। उसे यह बात मालूम नहीं थी। वह रोज की तरह पीठ पर अपना झोला टांगे हॉस्टल से निकली और करीब दो किलोमीटर रास्ता नापते हुए लाइब्रेरी पहुंच गई।
राजकीय पब्लिक लाइब्रेरी की गेट पर ताला लटका था। उसे लाइब्रेरी के कैंपस में एक लड़का बैठा दिखा। उसने लड़के से पूछा-लाइब्रेरी बंद क्यों है? गेट पर तो ताला लटका है फिर आप अंदर कैसे गए?

लड़का अपने कानों में इयरफोन लगाए हुए था। वह उसकी तरफ ऐसे देख रहा था जैसे उसकी आवाज भी वह इयरफोन के जरिए ही सुनना चाह रहा हो। अंदर से ही वह जोर से बोला-लाइब्रेरी नहीं खुली है। उसने पूछा- आज तो संडे भी नहीं है फिर बंद क्यों है? इस बार लड़का जवाब देने के मूड में नहीं था।

वह लाइब्रेरी के पास ही पेड़ की छाया में बैठ गई। उसने पिछले दो दिनों में लाइब्रेरी में जो नोट्स बनाए थे, उसे झोले से निकाली और पढने लगी। लाइब्रेरी के दोनों तरफ बड़े-बड़े मैदान थे। वहां पेड़ों की छांव में बैठकर बहुत सारे लोग पढ़ाई कर रहे थे।
उन बहुत सारे लोगों में सिर्फ वही एक लड़की थी। पढ़ाई करने वाले लड़के पहले उसने मिनटों घूरते रहे और फिर जल्द ही स्वीकार कर लिया कि इस जगह पर पढ़ाई करने का सबको समान अधिकार है।

कुछ ही देर बाद लाइब्रेरी के कैंपस से दो लड़के गेट के पास आए। एक ने गेट पर लगे ताले पर बिना चाभी के अपनी उंगलियां चलाई और ताला खुल गया। लड़कों के पीछे एक बुजुर्ग हाथ में दूध का डिब्बा लिए आ रहे थे। गेट पर पहले से खड़ा एक लड़का गेट खुलते ही अंदर जाने लगा। लेकिन बुजुर्ग ने उसे जोर से डांटा और अंदर जाने से रोक दिया। उन्होंने ताले में चाभी लगायी और गेट में ताला लटका दिया।

वह पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई कर रही थी। बीच-बीच में उसे कुछ लड़कियां दिखाई पड़ रही थीं जो किसी लड़के का हाथ पकड़कर और चेहरे को दुपट्टे से ढककर आ रही थीं। 

थोड़ी देर बाद पीठ पर बैग टांगे लाइब्रेरी की गेट पर एक लड़का आया। वो वही था, जिसने लाइब्रेरी के अंदर कल उसे दो बार मुड़कर देखा था। उसके चेहरे पर एक प्यारी मुस्कुराहट थी। वह उसके पास आया और पूछा- लाइब्रेरी क्यों बंद है? उसने कहा- शायद गुरुवार को बंद रहती है। वह अपने बैग से पानी की बोतल निकाला, एक घूंट पानी पिया और वापस लौट गया।

अब उसे भूख लगने लगी थी। वह अपने बैग से टिफिन और चम्मच निकाली और हलवा खाने लगी। इसी दौरान नल से बोतल में पानी भरकर तीन लड़के उसके बगल से गुजरे। एक ने दूसरे से कहा-सोच रहा हूं इस बार गांव जाऊं तो शादी करके पत्नी को साथ ले आऊं। जब मैं लाइब्रेरी पढ़ने के लिए आऊंगा तो कम से कम वह टिफिन बनाकर तो देगी। शायद उसे भूख लगी थी। वह उसे अपना हलवा देना चाह रही थी। लेकिन उसे खुद नहीं पता चला कि उसका टिफिन कब खाली हो चुका था। उसने पानी पिया और फिर से पढ़ाई करने में जुट गई। 

लोग लगातार आ रहे थे और लाइब्रेरी की गेट पर ताला लटका देखकर वापस लौट जा रहे थे। कुछ लोग लाइब्रेरी की बाऊंड्री फांदकर अंदर जा रहे थे और जमीन पर चादर बिछाकर पढ़ाई कर रहे थे।
लाइब्रेरी के ठीक सामने पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना उसे काफी अच्छा लग रहा था। अचानक उसे पीछे से पांच लड़के आते हुए दिखाई दिए। चार लड़के कद में छोटे  और लगभग एक बराबर कद के थे लेकिन पांचवा लड़का कद में उन चारों से बड़ा था। उसकी शर्ट पर रंग-बिरंगे फूल-पत्तियां बनी थी। उसने अपनी दोनों आंखे काले चश्में से ढक रखी थी। वह लड़का उसके बगल से गुजरा और उन चारों लड़कों में से जाने किससे बोला-नंबर मांग लो मैडम का, तभी तो पटा पाओगे। यह कहते हुए वे पांचों एक साथ हंसे जैसे वह दुनिया की सबसे आनंदमयी बात रही हो, और वहां से आगे बढ़ गए।

इस बीच घूमकर चाय बेचने वाला उससे चार बार चाय के लिए पूछ चुका था और वह दस बार मना कर चुकी थी।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

पलाश की दीवानी



बारिश होने पर जैसे मोर झूमता है, उसका भी मन वैसे ही झूमता है जब वह पलाश के फूलों को देखती है। लहरतारा पुल से गुजरने पर पुल के नीचे फूलों से लदे पलाश के पेड़ उसकी एक नजर के आतुर दिखते हैं। पुल से गुजरते वक्त वह पलाश के फूलों को वह जी भरकर निहारती है और अपनी आंखों में कहीं छुपा लेती है। उसे उस रात सिर्फ पलाश के ही सपने आते हैं। वह उन्हें महसूस करती है, आधी रात को जब उसे सपना आता है कि वह पलाश के पेड़ के नीचे उसके नर्म फूलों के बिस्तर पर लेटकर कोई प्रेम कहानी पढ़ रही है। 
 
वह शहर भर के रास्तों को जब नापती है तो उसे इस बात का गुमान होता है कि आगे न सही लेकिन उसके आगे पलाश का पेड़ जरूर दिखेगा। लेकिन मानो शहर ने पलाश को पलायन का रास्ता दिखा दिया हो। वह निराश हो जाती है। वह रास्ते में जहां कहीं भी छह-सात पेड़ों का झुंड देखती है, देखती ही जाती है, मुड़-मुड़ कर देखती है कि उन पेड़ों के बीच से कहीं पलाश न झांककर उसे देखे। वह दीदार करना चाहती है तो सिर्फ पलाश के फूलों का। वह उन फूलों को अपने में समा लेना चाहती है। वह दीवानी है तो बस पलाश के फूलों की।