मंगलवार, 21 मार्च 2017

ऐसी हैं मेरी दादी...



कुछ साल पहले मेरी एक भैंस को जाने कौन सा बीमारी हो गई थी। दिन भर वह बेचारी मुंह से गोबर की उल्टी करती और बेचैन रहती। उसके दोनों आंखों से खूब आंसू भी निकलते। जितने दिन भैंस ने गोबर की उल्टी की उसकी चिंता में मेरी दादी की हालत खराब होने लगी। एक दिन रात में दूरदर्शन पर घर के सभी लोग फिल्म देख रहे थे तभी दादी के जोर-जोर से रोने की आवाज आयी। दादी घर के बरामदे में जमीन पर बैठी दहाड़े मारकर रो रही थीं। उनके ठीक बगल में भैंस गिरकर मर गई थी। उसकी जीभ बाहर निकल गई थी। मेरी दादी अपने सिर के बाल नोंच नोंचकर पागलों की तरह रो रही थीं और लगातार यह कह रही थीं कि तुम लोगों के दादा जब इसे खरीद कर लाए थे तब 15 दिन का बच्चा था ये। इतना गोरा-चिट्ठा(ज्यादातर भैंस काली होती हैं लेकिन मेरी वो भैंस भूरी या गोरी थी) थी। ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती थी..इसकी मां मर गयी थी तो मैंने इसे गिलास से दूध पिलाकर पाला। दादी के आंसू नहीं रूक रहे थे उस भैंस से उनको बहुत प्यार था।

दादी को घर के सभी भैंसों से उतनी ही ममता है अब। कुछ दिन पहले मैं घर गयी थी तो देखा कि भैंस के गले में मोटी रस्सी डालते-डालते उसकी गर्दन पर घाव के निशान आ गए थे। भैंस घर के बाहर बंधी थी और कौवे आकर उसके घाव को इतना कुरेद दिए कि वहां से बहुत तेजी से खून निकलने लगा। घर के बाकी लोगों ने भी यह देखा लेकिन सभी भैंस को दवा लगाने के नाम पर टाल-मटोल कर गए। लेकिन दादी ऐसे तिलमिला उठीं जैसे वह उन्हीं का घाव हो। उन्होंने भैंस के घाव पर मरहम लगाकर चौड़ी पट्टी बांध दी और भाभी की दो साल की बेटी को यह देखने के लिए लगा दीं कि जब भैंस के ऊपर कौवा बैठे तो वह तुरंत डंडा दिखाकर उसे उड़ाए या उन्हें फौरन बुलाए। मेरे पड़ोस के लोग जब भैंस दूध देना बंद कर देती है तो उसे बेचकर नई भैंस ले आते हैं लेकिन मेरी दादी मेरे घर की भैंस जब दूध देना बंद कर देती है तो उसे बेचने नहीं देतीं और नए बच्चे के इंतजार में उसकी सेवा करती हैं। ऐसी हैं मेरी दादी..पशुओं से बहुत लगाव है उन्हें।

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

25 साल की लड़की भला ऐसे रहती है!



सुबह छह बजे उठती है। एक गिलास पानी गर्म करती है फिर उसमें नींबू निचोड़कर गटक जाती है। जूते का लेस बांधने नहीं आता फिर भी जूता चढ़ा लेती है पैरों में और चार किमी का रास्ता नापने निकल जाती है। जब वापस आती है तो टी-शर्ट पसीने से भीगा होता है और वो खुद भी। कान में इयरफोन लगाकर आधे घंटे तक राग भैरवी और राग जौनपुरी सुनती है। इसके बाद चिंतन में लीन हो जाती है। वहां से उठती है तो फिर नहाती-धोती है लेकिन पूजा-पाठ बिल्कुल नहीं करती। चना गुड़ खाती है या फिर सत्तू घोलकर पीती है। चाय के नाम पर बुखार आ जाता है उसे। इसके बाद अपने काम में लग जाती है। किसी से ज्यादा मतलब नहीं रखती ना ही ज्यादा बोलती है।

दोपहर में दो रोटी, एक कटोरी बिना तड़के वाली दाल, एक कटोरी मिक्स्ड सलाद खाती है। दो रोटी मतलब दो रोटी...ना कम ना बेसी। सब्जी कम तेल और मसाले वाली। दाल में घी से भी कोई दुश्मनी है। सादा मतलब एकदम सादा खाना जो अस्पलात में भर्ती मरीज खाता है..वही वाला।
खाने के बाद एक घंटे तक चादर तानके सोएगी। जब उठती है तो एक एक लीटर पानी सोख जाती है। फिर अपने काम में लग जाती है। शाम को छत पर टहलेगी और अपने पसंद के कुछ गाने भी सुन लेती है। बाजार के सारे कामों की लिस्ट बनाकर रखती है और रोज की बजाय सिर्फ रविवार को इन कामों को निपटाने के लिए बाजार जाती है। हफ्ते भर के गंदे कपड़े किसी एक दिन रात में धोती है।

रात को अपना सारा काम खत्म करने के बाद मिक्स्ड सब्जी वाली दलिया खाती है। कम्प्यूटर, लैपटॉप से रात में दूर ही रहती है। इसके बाद कान में फिर से इयरफोन ठूंसती है और राग मल्हार सुनते-सुनते सो जाती है।
अगले सुबह की फिर वही राम कहानी। बताओ भला पच्चीस साल की कोई लड़की भला ऐसा करती है..ऐसे रहती है..ऐसे जीती है..ऐसे खुश रहती है? ऐसे जीने खाने में तो पचास साल वाले भी बोर हो जाएं। भगवान भला करें इस लड़की का!

जब अंडे खायी और खूब रोयी..

थर्ड फ्लोर की उस लड़की के साथ रोज शाम सब्जी खरीदने जाती थी मैं। हॉस्टल वापस लौटते समय वह रोजाना दो कच्चे अंडे खरीदती थी। फिर मैं अपनी सब्जी का थैला उसे छूने नहीं देती थी। मैं रास्ते में उससे पूछा करती कि अंडे को हथेली पर रखने पर कैसा महसूस होता है? क्या गिरने पर तुरंत टूट जाता है? खाने में कैसा लगता है? खाने के बाद क्या मुंह भी महकता होगा? वह मेरी इन बचकानी बातों से झुंझला जाती और बोलती कच्चा अंडा अगर गिरेगा तो टूटेगा ही। खाने में आलू जैसा लगता है या उससे भी कहीं ज्यादा टेस्टी। और मुंह क्यों महकेगा भला। मैं कहती मुझे क्या मालूम! जब अंडे का ऑमलेट बनता है तो तेज गंध आती है तो मुझे लगा कि खाने के बाद मुंह भी महकता होगा। फिर वह नाराज होते हुए कहती- मुझसे कुछ मत पूछा करो, किसी दिन खुद खाकर देख लो कैसा लगता है।

मेरे परिवार का कोई भी सदस्य अंडा नहीं खाता। पूरा परिवार शुद्ध शाकाहारी है। जाहिर है मैं भी कुछ दिन पहले तक शुद्ध शाकाहारी थी। मेरे पड़ोस में एक छोटा बच्चा रोज शाम को उबला हुआ अंडा नमक लगाकर खाता था। मैं उसे यूं देखती थी जैसे वह कोई कठिन काम कर रहा हो जो मेरे बस का न हो। जब वह अंडे में नमक लगाता तो मैं उससे पूछती अंडा खाने में कैसा लगता है? वह मुझे अजीब सा मुंह बनाकर देखता और मुझसे पूछता तुम गरीब हो? जब मैं कहती नहीं तो..वह कहता रोज शाम को बंशी ठेले वाला बेचता तो है अंडा..खुद खाकर देख लो कैसा लगता है। 

थर्ड फ्लोर की वह लड़की उस दिन दस कच्चे अंडे पैक करायी। यह देखना बहुत अच्छा लगा। वापस आते वक्त उसके एक हाथ में सब्जी का थैला और दूसरे हाथ में दस अंडे का लटका पैकेट देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी ऑफिस में काम करती हो, बैचलर हो (वो तो है ही वह) और रोज ऑफिस से लौटते हुए अंडे पैक कराती हो और घर जाकर फ्रिज में सारे अंडे भर देती हो। उसके हाथ में अंडे देखकर यह सब सोचना सुखद लगता था।

एक रात मुझे सपना आया कि मेरा अंडा खाने का मन कर रहा है लेकिन कोई खाने नहीं दे रहा है। अगले दिन मैंने थर्ड फ्लोर की उस लड़की को सपने के बारे में बताया। वह बोली-जब खाने का मन कर रहा है तो खा लो। इच्छा को मत दबाओ। शाम को वह मुझे अंडे की एक दुकान पर लेकर गई। वहां पहुंचते ही मेरा मन इतना घबराने लगा कि मैंने उससे कहा-नहीं खाना मुझे अंडा-वंडा..चलो यहां से।

मैं वापस तो आ गई लेकिन फिर भी इच्छा बनी रही। अगले दिन सारा काम छोड़कर मैं खुद को मनाने में लगी रही कि मैं आज जरूर अंडा खाऊंगी और घर पर किसी को नहीं बताऊंगी। अगर अंडा खाना बुरी बात है तो मैं यह बुरा काम करूंगी। 

शाम को उस लड़की के साथ मैं अंडे की दूकान पर गई। एक उबले अंडे पर नमक प्याज छिड़क कर दिया ठेले वाले ने। सिर्फ एक छोटा टुकड़ा काटकर खायी ही थी कि उबकाई आने लगी। मेरे हाथ ठंडे पड़ने लगे। बाकी जो बचा था वह लड़की खा गई।

हॉस्टल वापस आने के बाद जाने कैसा मन होने लगा। खूब जोर-जोर से रोने का मन कर रहा था। ऐसा लग रहा था मैंने किसी का सामान चुरा लिया हो, किसी को पत्थर मार के सिर फोड़ दिया हो औऱ भी जाने कैसा-कैसा सा। किसी अपराध बोध सा मन भरा था। मैं बिल्कुल शांत पड़ गई थी। किसी से कुछ बात नहीं कर पा रही थी। गम कुछ इस कदर था कि रात का खाना भी नहीं खायी और ना ही पूरी रात सो पायी। रात को लेटे-लेटे जब नींद नहीं आय़ी तो छत पर जाकर एक कोने में बैठकर रोने लगी। हाय रे मैंने क्या कर दिया...मैं अंडा खा ली—मेरी मम्मी को पता चलेगा तो गला दबा देंगी मेरा..अब मैं शाकाहारी नहीं थी.. अफसोस में सारी रात निकल गई।

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

जब नए कपड़े पहनती हूं तो लाज लगती है...



सच में, उस दिन बहुत शर्म आती है जब नए कपड़े पहनकर घर से बाहर निकलती हूं। खासतौर पर जब ऑफिस या क्लास जाना हो तो नए कपड़ों में वैसे ही शर्म आती है जैसे नई-नई शादी के बाद लड़की को अपने मायके में सिंदूर और बिंदी लगाने और होठ रंगने में।

अपनी यह खूबी जानकर मैं साइज से थोड़े बड़े कपड़े खरीदती हूं ताकि तीन-चार महीने बाद जब मैं शर्माते-शर्माते पहनना शुरू करूंगी तब तक छोटा औऱ थोड़ा पुराना दिखने लगेगा। लेकिन चार महीने बाद जब उसे पहनने का मन बनाती हूं तो वह कपड़ा फिर अच्छा नहीं लगता। और अगर अच्छा लगे तो भी पहन कर उतार देती हूं और उसे ऐसे सिकोड़ कर रखती हूं ताकि पहनने के बाद पुराना सा दिखे। बाहर निकलने पर अगर कोई पूछे-अरे क्या बात है..आज नए कपड़े- तो इस बात की सफाई देते बने कि नए कहां हैं पुराना ही तो है..आप शायद इसे पहली बार देख रहे हैं।

कुछ जगहों पर तो जान-पहचान के लोग नए कपड़े पहने देख न्यू पिंच बोलकर जोर की चिकोटी काट लेते हैं। उनकी चिकोटी तो कभी-कभी ऐसा दर्द दे जाती है जैसा चींटी काटने पर भी नहीं होता है। और अपन को दांत चियार कर कहना पड़ता है..हां यार कपड़े नए ही हैं लेकिन चाची ने दिए हैं।

अगर हफ्ते में तीन दिन तीन अलग-अलग नए कपड़े पहन कर चले जाओ तो ऑफिस के वैसे लोग जो आपसे कम मतलब रखते हैं पहले तो  सबकी नजरों से बचके आपको स्कैन करेंगे फिर अपने बगल वाले को इशारे से आपको निहारने को कहेंगे फिर वे आपकी सैलरी-पत्री निकालते हैं- कितना कमाती होगी..अच्छा घर में भी तो नहीं देना पड़ता होगा..सिंगल है..खर्चे ही कितने हैं। एक नया कपड़ा क्या पहन लिया कि पांच मिनट के लिए दूसरों के लिए मुद्दा ही बनना पड़ता है।  क्लास में नए कपड़े देखकर सब फुसफसाएंगे-पापा क्या करते हैं इसके? मानों जिसके पापा कुछ नहीं करते वो नंगा ही घूमता है।

ऑफिस के दूसरे कोने में तीन लोगों का जो एक गुट बैठता है वो कैसे पीछे रह सकता है हिसाब लगाने में। पक्का बुध बाजार से खरीदती होगी। कपड़े देखो, देखकर नहीं लगता..अरे हर हफ्ते तो लगता है मार्केट...चार सौ रूपए में पांच टीशर्ट्स खरीदकर लाती है और ऑफिस में आकर भौकाल बनाती है।

खैर, शर्म आने की बचपन से ही कोई वजह रही है जो अब तक नहीं समझ में आयी। किसी को गाली देने में उसकी इज्जत उतारने में उतनी शर्म नहीं आती। नए कपड़ों से शर्म का कनेक्शन मेरे समझ के बाहर है लेकिन आती है तो झेलती भी हूं।

हफ्तों पहले से ही यह डिसाइड करने लगती हूं कि इस नए टीशर्ट को बुधवार को पहनूंगी, इस नई कुर्ती को शुक्रवार को पहनूंगी। शुक्रवार और बुधवार जब आता है तो मैं शर्म से इतनी गड़ जाती हूं कि नए कपड़े को रिन डिटर्जेंट से दो बार रगड़ कर धो देती हैं। कपड़ों का रंग पानी में बहता देख आंखों को बहुत सुकून मिलता है। बिना किसी बड़ी मशक्कत के नए कपड़े पुराने करने का यही आसान तरीका सूझता है। 
 
जब मैं काफी दिमाग लगाकर खुद से यह उत्तर पाने की कोशिश करती हूं कि आखिर नए कपड़ों को पुराने करने की जुर्रत मैं क्यों करती हूं तो एक ही जवाब मिलता है –ताकि मैं चिकोटी काटने वालों या-अच्छा जी आज नए कपड़े क्या बात है-कहकर बगल से गुजर जाने वालों को पेट दर्द जैसा अपना चेहरा बनाकर कह सकूं-नए कहां हैं, पुराने ही तो हैं। जाने क्यों बड़ी लाज आती है जी नए कपड़ो में।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

आखिर कब लिखेगी राजनीति पर वह?



पांचवी क्लास के किसी ऐसे बच्चे के बारे में सुना है आपने जिसे ए, बी, सी, डी लिखना आता हो लेकिन क, ख, ग, घ लिखने नहीं आता हे। एक से सौ तक गिनती लिख लेता हो लेकिन पढ़ नहीं पाता हो। दरअसल हम पांचवीं क्लास के बच्चे के बारे में इतनी छोटी बात नहीं सोच सकते यह समस्या तो यूकेजी या कक्षा एक के बच्चे को हो सकती है। पांचवीं क्लास के बच्चे की तो कोई और समस्या होगी। या तो वह पढ़ने में अच्छा होगा या पढ़ने में बुरा। किसी विषय में फेल हो जाता होगा तो किसी में पास। 

लेकिन इस लड़की की समस्या ऐसी है जो कक्षा पांच के भी बच्चे को होती है और यूकेजी के बच्चे को भी। पत्रकारिता में एमए करने के बाद भी उसे हर मुद्दे पर लिखना नहीं आता। कहानी लिख लेती है तो कविता उससे एकदम नहीं बन पाती। कविता उसकी कलम से जितनी ही दूर है वह कविता पढ़ने की उतनी है शौकीन है। फीचर लिख लेती है, लेकिन राजनीति पर नहीं लिख पाती। राजनीति पर न लिख पाना उसे किसी अभिशाप सा लगता है। हत्या, डकैती, छिनैती, दुर्घटना, मौत सब पर लिख लेती है, खबर बना लेती है लेकिन राजनीति पर नहीं लिख पाती। मुद्दे पता होते हैं लेकिन शुरूआत नहीं पता होती। दूसरों का लिखा जब संपादकीय पृष्ठ पर पढ़ती है तो उसे यह बेहद आसान लगता है। जैसे अभी शुरू करेगी तो इनसे बेहतर लिख लेगी। लेकिन शुरू नहीं कर पाती। कलम रूक जाती है। कुछ है जो दिमाग में रूक जाता है। कुछ है जो कलम चलने नहीं देता। राजनीति पर न लिख पाना उसे सोने नहीं देता, वह नींद में भी अपनी इस कमजोरी पर डर जाती है और किसी बुरे स्वप्न सा उसकी नींद खुल जाती है। आखिर कब लिखेगी राजनीति पर वह?