मैने कहा..जाना तो पड़ेगा ही….
ट्रेन में चढ़ी.. खचाखच ट्रेन भरी थी…लात रखने की भी जगह
नजर नहीं आ रही थी……उम्र में लगभग आंटी के समकक्ष एक औरत ने मुझ पीठ पर गट्ठर लादे
लड़की पर रहम किया …और थोड़ा सा जगह बना कर उसी में मुझे भी चिपका लिया…..
जिस सीट पर मैं बैठी थी उस पर चार औरतें और एक लड़का बैठा
था….सामने वाली सीट पर भी लगभग इत्ते ही लोग अड़से थे।
कुछ इलहाबाद जाने वाले लड़कों की टोली जगह ना होने के कारण
गैट पर ही जमा थी…..
लड़के शायद सिविल सेवा की तैयारी वाले थे…..सब अपने में ही
हंसी ठिठोली कर दांत निपोर रहै थे…
दूसरा कह रहा है….एक गो गुरु जी हमरा कोचिंग में भी हैं…गुरु
ऑक्सफोर्ड से पढ़ के आयल हौवें…….
हिन्दी से त एतना नफरत बा जइसे ठाकुर चमार से करता है…..कहते
हैं साले इलाहाबाद वाले हमरी अंगरेजी खराव कर दिये….हियां आके हमहुं ई जंगली भाषा बोले
लगे……
तभी बीच में कोई बोला….हमरे गुरु जी को तो अंगरेजी आता ही
नहीं है…..ऊ हमके भुगोल पढाते हैं और हम उनको अंगरेजी…..
एक बार फिर से डिब्बे मे अट्ठाहास गूजां…….. तब तक ट्रेन
इलहाबाद पहुंच चुकी थी……