जिस बच्चे के नाना आते, उसे अधिक बिस्कुट खाने को मिलता।
बच्चा अपने नाना की गोद में बैठकर हमारी तरफ देखते हुए कहता “मेरे
नाना हैं.. ये मेरे नाना हैं” जैसे हम ये
किसके नाना हैं? इस बात पर कोई सवाल खड़ा करने वाले हों।
वे हमारी चाची के पिताजी होते थे जो रिश्ते में हमारे भी
नाना लगते थे। लेकिन उस बच्चे की तरह उनकी गोद में बैठकर हमें यह कहने का अधिकार
नही था कि ये हमारे नाना हैं।
उसके नाना जब भी आते क्रीम वाली बिस्कुट लेकर आते। कभी
सिर्फ एक पैकेट या कभी दो। वह आपस में चिपके दो बिस्कुटों के बीच से बड़ी आसानी से
क्रीम उखाड़ लेता था। एक पैकेट में दस बिस्कुट होते थे, वह क्रीम निकालकर
बिस्कुटों का सत्यानाश कर डालता, फिर सादे बिस्कुट हमें खाने पड़ते, बिना क्रीम
वाले।
शाम को रसोई से मानो छप्पन भोग बनने जैसी महक आती। सर्दी,
जुकाम, बुखार जैसी नाटकीय बिमारियों पर चादर तान कर सोने वाली चाची रसोई में पूरे
समय लगी रहती, नाना के लिए अच्छा खाना बनाने में।
उन दिनों लोग मेहमानों को आलू-गोभी के साथ
सोयाबीन(न्यूट्रीला) की सब्जी खिलाकर बड़ा गर्व महसूस करते। सोयाबीन को तलने में
पर्याप्त तेल खर्च होता। जो हमारी दादी के सिर का दर्द बन जाता। उनका महिने के
चार-पांच दिन का हिसाब बिगड़ जाता। जो कि महिने भर के खर्च के लिए एक अलग डिब्बे
में तेल निकालकर रखती थीं।
अक्सर होता था कि नाना के साथ खाने पर चाचा नही बैठते थे।
उनके साथ घर का कोई और व्यक्ति खाने बैठता।
शुरुआत में तो नाना के साथ खाने पर चाचा ही बैठते थे, और
बात-बात में उनसे चाची की बुराई कर डालते। तब से मेहमानों के आने पर चाचा की
ड्यूटी खाना परोसने पर रहती।
बच्चे के नाना जाते वक्त उसे खूब प्यार करते औऱ घर से
निकलते वक्त उसे दस या कभी बीस रुपए की नोट पकड़ाते हुए कहते कि इसका चिनिया बादाम
खरीद कर खा लेना। हम उन्हें गौर से देखते रहते लेकिन हमें पैसे नहीं मिलते। वे उस
बच्चे के सगे नाना थे, हमारे नहीं। जाते वक्त हम उनके पैर छूकर दरकिनार हो जाते।
हम संयुक्त परिवार में रहते थे। हमने अपने सगे नाना को कभी
नहीं देखा था। इतना भी नहीं कि किसी के नाना को देखकर अपने नाना को याद किया जा
सके।