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कदम आगे नहीं बढ़े मैं वहीं
खड़ा रहा। उनमें शामिल होकर मैं भी वैसे ही रोता जैसे निशा रो रही थी, जैसे उसके
भाई-बहन रो रहे थे। सफेद कपड़े से ढ़की जमीन पर एक लाश पड़ी थी, निशा के मां की
लाश जो कल शाम ठीक इसी वक्त अपनी थाली से दो कौर मुझे खिलाकर खुद खायी थीं।
निशा अपने भाई-बहनों के साथ
बिलख रही थी जैसे उसकी मम्मी की कहानियों में बिलखने पर जंगल के पेड़ों की पत्तियां टूटकर गिर जाया करती थीं।
जमीन पर बिछी चारपाई पर एक
और लाश पड़ी थी। जिन्दा लाश..निशा के पापा को लोग काफी देर से होश में लाने की
कोशिश में लगे थे। लेकिन वे दुख और पीड़ा की
खाईं में गिरे थे..उनकी हमसफ़र अब इस दुनिया में नहीं थीं।
निशा के पास इकट्ठी औरतें
एक साथ रो रही थीं जैसे वे कभी एक साथ गीत गाया करती थीं।
कुछ बुदबुदाहट के साथ निशा के पापा को होश आय़ा
और वह जमीन पर पड़ी लाश को एक टक देखने लगे। दो आदमी पकड़कर उन्हें लाश के पास
लाए।
उन्हें हाथ में सिंदूर की
डिबिया पकड़ायी गयी। वे सिंदूर को हाथ मे लेकर कुछ सोचते रहे...उस वक्त जो सिर्फ
वही सोच सकते थे... उन्होंने पत्नी की मांग भरी... लाल चुनरी से माथा ढ़का..माथे
पर बिंदिया सजायी औऱ उन्हे सीने से लगाकर फ़फक पड़े। यह उनके दुल्हन की विदाई थी.....
उनके हससफर की विदाई.....इस दुनिया से विदाई।
संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियां ओढ़े निशा की
मम्मी पति, बच्चों औऱ परिवार पर इतना प्यार लुटायीं कि खुद के लिए प्यार नहीं बचा।
घर के जिन सदस्यों को खुश करने में वह लगी रहीं उन्हें इनके जानलेवा दर्द का जरा
सा भी इल्म नहीं था।
एक सुबह वह कमरे से बाहर
नहीं निकली। पेट में दर्द था..भयंकर दर्द। घर में इधर-उधर पड़ी दर्द की दवा खोजकर
खिलायी गयी। आराम हुआ..थोड़ा आराम।
निशा की दादी ने यह कहते
हुए डॉक्टर के पास न जाने दिया कि वह अपनी जिंदगी में बहुओं की बिमारी के बहानों से
भली प्रकार वाक़िफ़ हैं।
नजरअंदाजी यूं ही चलती
रही..और एक रात निशा की मम्मी की रुलाई सुनकर घरवालों के साथ पूरा मुहल्ला जगा।
वही दर्द था..भयंकर दर्द..जो असहनीय था। आधी रात को डॉक्टर के पास ले जाया गया।
सुबह अल्ट्रासाउण्ड हुआ। डॉक्टर ने यह कहते हुए जल्द
से जल्द ऑपरेशन कराने की सलाह दी कि बिमारी को छिपाकर बढ़ाया गया है..यह जान के
लिए ख़तरा बन गया है।
निशा की मम्मी अल्सर से जूझ
रही थीं। कल उन्हें ऑपरेशन के लिए जाना था। और आज... उनकी विदाई थी...दुनिया से विदाई।