बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

फिल्म निर्माता प्रकाश झा के जन्मदिन पर ......



 
गंगाजल, अपहरण, राजनीति, चक्रव्यूह और सत्याग्रह जैसी फिल्में बना कर कई नेशनल, फिल्म फेयर एवं स्क्रीन अवार्ड अपने नाम कर चुके  निर्माता निर्देशक प्रकाश झा का आज 61वां जन्मदिन है।

फिल्म निर्माता प्रकाश झा का जन्म  27 फरवरी 1952 को बिहार के चंपारन जिले के बेतिया गांव मे हुआ था।उनके पिता किसान थे और घर में खेती-बाड़ी का काम होता था।

उनकी स्कूलिंग कोडरमा डिस्ट्रिक्ट के सैनिक स्कूल तिलाया और बोकारो स्टील सिटी के केंद्रीय विद्यालय झारखंड में हुई. इसके बाद उन्होंने दिल्ली युनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज से फिजिक्स में बीएससी ऑनर्स किया. इसके बाद उन्होंने पेंटर बनने का निर्णय किया और जेजे कॉलेज ऑफ आर्टस में एडमीशन लेने मुंबई आ गए.

मुंबई में पहली बार उन्होनें चांद साहब की फिल्म धर्मा की शूटिंग देखी और फिल्म मेकिंग का निर्णय किया, और पूणे स्थित फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट में एडिटिंग का कोर्स में दाखिला लिया। उस समय कुंदन शाह, केतन मेहता, ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह उसी इंस्टीट्यूट में पढ़ते थे। कोर्स के बीच में ही स्टूडेंट एजिटेशन की वजह से इंस्टीट्यूट कुछ दिन के लिए बंद हो गया और वो फिर मुबई आ गए और फिर कभी वापस नहीं गए.

 प्रकाश झा ने प्रसिद्ध अभिनेत्री दीप्ति नवल से शादी की और इन दोनों ने मिलकर एक बेटी को गोद लिया। बाद में दोनो अलग हो गए।

प्रकाश झा कहते हैं-मिट्टी की महक, कच्ची सड़के, पगडंडियां, खेत, और धान की महक मेरे दिलो दिमाग में बसी है। मैं एक खेतिहर पिता का बेटा हूं। पहली बार घर से भागा तो मुंबई ही आकर रुका और वहां चांद साहब की फिल्म धर्मा की शूटिंग होते हुए देखा, वहीं से फिल्म मेकिंग का ख्याल दिमाग मे आया। फिल्म मेकिंग का जूनून इस कदर सवार था कि मैं अपना एक मिनट भी बर्बाद नहीं करना चाहता था, और फिल्म एंड टेलिवीजन इंस्टीट्यूट, पूणे में एडिटिंग का कोर्स करने के लिए दाखिला ले लिया। बीच में ही कोर्स अधूरा छोड़कर वापस मुंबई लौट आया और फिल्म मेकिंग के अपने सपने को साकार करने में जुट गया। मेरी जिंदगी की नई शुरुआत यहीं से हुई।

सन् 2005 में उन्हें फिल्म आरक्षण और 2011 में फिल्म राजनीति के लिए बेस्ट स्क्रीन प्ले अवार्ड से नवाजा गया।

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

ऐसी होती है सजा....


शैतान श्रेया

रस्सी से उसके दोनो हाथ बंधे थे..एक पैर खुला था जिसके सहारे वह जमीन पर बैठी थी, दूसरा पैर रस्सी से कूलर स्टैंड में बांधा गया था।

जब उससे पूछा जा रहा था मार दिया जाय कि छोड़ दिया जाय तब वह हर सूलूक सहने को तैयार थी और आंगन में इधर से उधर फुदकती हुई चुहिया को देख रही थी जैसे इस वक्त उसके हाथ पांव आजाद होते तो वह चुहिया को पकड़कर ठीक यही पूछ रही होती जो उसकी मम्मी अभी उससे पूछ रही हैं।

उसकी मम्मी बच्चों को पीटने में विश्वास तभी रखती हैं जब गुस्सा चरम सीमा पर हो..इसलिए आज सजा के तौर पर श्रेया के हाथ पैर बांधे गए थे सिर्फ इस जुर्म में कि बिना बताए वह अपने मुहल्ले की सीमा पार कर बस्ती में रह रहे मजदूरों के कुछ बच्चों के साथ खेलने चली गयी थी।

छत पर खोजा गया..कमरे में खोजा गया..ल़़ॉन में खोजा गया..नहीं मिली। उसकी मम्मी तुरंत उसकी तस्वीर लेकर बैठ गयीं और उसे आंसुओं से नहलाने लगीं। पड़ोस में भी नहीं मिली..उसकी मम्मी का दम निकला जा रहा था।

एक लड़के को मजदूरों की बस्ती में भेजा गया कि उसे कोई उठा तो नही ले गया..इतना बोलती है..टमाटर जैसे गाल हैं...हर कोई झट से गोद में उठा लेता है।

लड़का थोड़ी देर बाद उसे गोद में लिए आया, श्रेया खुद को उससे छुड़ाने की कोशिश में उसके स्थिर कान को घुमा रही थी।

लड़के ने श्रेया को गोद से उतारते हुए उसकी मम्मी से कहा कि मजदूरों के बच्चों के साथ दुकान दुकान खेल रही थी।
मिट्टी के लड्डू..घास की सब्जियां और धूल के आंटे बेच रही थी। यह सुनकर श्रेया कि मम्मी को हंसी आ गयी।

फिर भी सजा तो बनती थी इसलिए नहीं कि अपने कीमती गुड्डे गुड़ियों को छोड़ वह मजदूरों की बस्ती में दुकान लगाए बैठी थी...बल्कि इसलिए कि वह इतने वक्त में मम्मी की जान निकालने वाली थी।

श्रेया की उम्र तीन साल और मम्मी को गुस्सा दिलाने के एवज में दो घंटे कूलर स्टैंड से बंधे रहने की सजा।

 उसके इस सजा पर चुहिया आंगन में आकर उसे चिढ़ा कर चली जा रही थी। और इस दौरान श्रेया सोच रही थी कि अगर दो घंटे बाद यह चुहिया ऐसे ही दिख जाय तो वह उसकी पूंछ बड़े से धागे मे बांध कर छत से नीचे लटकाएगी और कहेगी ऐसी होती है सजा...समझे बच्चू...??

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

अगर वह बच्चा होता......

खुली आंखों के सपने



देखो..वैसे कुत्ते को तो कुत्ता ही बोला जाता है..लेकिन तुम उसे कुत्ता नहीं डफी कहना। उसके डफी को कोई कुत्ता कह देता है तो वह तुरंत बुरा मान जाती है। हालांकि पहले उसे कुत्ते पसंद नही थे, बिल्कुल भी नही। लेकिन अचानक ही वह उन पर इतना ज्यादा प्यार उड़ेलने लगी है..उसके दुलार से वह कुत्ता ..ओह सॉरी..वह डफी इतना बदमाश हो गया है कि मैं क्या कहूं।
 दोपहर में डफी जब दादी पर भौंककर उन्हें  अजनबी होने का एहसास दिलाया  तब दादी ने यह जिक्र छेड़ा।

दस दिन पहले जब आंटी  मुझे स्टेशन से लेकर अपने घर आयीं तब डफी के भौंकने पर मैं उसी तरह उछली जैसे वह खुश होने पर उछलता है। मैनें सुना था जानवरोें से बेहद प्रेम करने वाले लोगों का इंसानों से कम लगाव होता है, लेकिन यहां आकर यह बात मिथ्या साबित हुई और पता लगा इंसान पर जान छिड़कने वाले लोग ही जानवर को सच्चा प्यार करने की कूबत रखते हैं।

अब..जब बात डफी की चली है तो उसके बारे में थोड़ा और बता दूं.....अगर वह कुत्ता ना होता (यह कहते हुए मुझे दादी की बात याद आ रही है, उन्होनें उसे कुत्ता कहने को मना किया है) तो मैं कहती कि वह इस घर का सबसे छोटा और मासूम बच्चा है जिसे लोग अपने प्यार से सूखने ही नही देते।

डफी का ठाठ किसी नवाब से कमतर नही। अगर हम कहें कि वह वफादार है तो यह बेमानी होगी...क्योंकि घरवालों से पहले यह घर उसका खुद का है। यह डफी का निर्णय या यूं कहें कि मर्जी होती है कि घर में कौन आ सकता है..कौन नही।
डफी भौंकने के अलावा औऱ कोई हर्फ जानता तो वह रात में सोते वक्त लोरी और कहानियां जरुर सुनता। मिठाई पर मर मिटने वाला डफी फोन पर पप्पा से जरुर जिद्द करता कि शाम को ऑफिस से आते वक्त हाथ में मिठाई का डिब्बा जरुर होना चाहिए। उसका बस चलता तो वह कभी नही नहाता या अपनी मर्जी की साबुन से नहाता। किचन में उसके लिए स्पेशल डिश(गाजर का हलवा) बना रही माया दीदी से कहता..दीदी हो सके तो शक्कर थोड़ा बढ़ा कर डाला करो..हलवा फीका लगता है।

खैर...वह बोलता नही तो क्या हुआ..उसे प्यार करने वाले उसकी पसंद नापसंद का ख्याल अच्छे से रखते हैं। जादू की ना सही लेकिन प्यार की झप्पी जरुर देते है...उसकी भाषा में ना सही लेकिन लोरी जरुर सुनाते हैं। प्यार के रस में डुबा यह कुत्ता (कहने को मना है) जरूर सोचता होगा, इस घर में बच्चे की तोतली जुबान में जिद्द करना।

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

... ਅਤੇ ਸਭ ਕੁੱਝ ਠੀਕ ਹੋ ਗਿਆ !!


ਮੰਜੀਤ ਮੇਰਾ ਬਚਪਨ ਦਾ ਮਿੱਤਰ ਸੀ । ਉਸਨੇ ਮੈਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਉਸਦੇ  ਘਰ ਵਿੱਚ ਦੋ ਹਾਦਸੇ ਹੋਏ ,  ਇੱਕ ਵਾਰ ਨਹੀਂ ਸਗੋਂ ਦੋ ਵਾਰ ।
ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਉਸਦੀ ਪੰਜ ਸਾਲ ਦੀ ਬੱਚੀ ਮਰ ਗਈ ,  ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਉਹ ਬਹੁਤ ਪਿਆਰ ਕਰਦਾ ਸੀ ।  ਉਸਨੇ ਔਉਸਦੀ ਪਤਨੀ ਨੇ ਸੋਚਿਆ ਕਿ ਉਹ ਇਸ ਦੁੱਖ ਨੂੰ ਸਹੈ ਨਹੀਂ ਕਰ ਪਾਣਗੇ ,  ਪਰ ਵਰਗਾ ਉਸਨੇ ਦੱਸਿਆ ,  ਦਸ ਮਹਿਨੇ ਬਾਅਦ ਰੱਬ ਨੇ ਸਾਨੂੰ ਇੱਕ ਅਤੇ ਬੱਚੀ ਦਿੱਤੀ - ਅਤੇ ਉਹ ਪੰਜ ਦਿਨ ਵਿੱਚ ਚੱਲ ਵੱਸੀ ।

ਇਹ ਦੋਹਰਾ ਹਾਦਸਿਆ ਲੱਗਭੱਗ ਅਸਹਨੀਏ ਸੀ ।  ਮੰਜੀਤ ਨੇ ਕਿਹਾ -  ਮੈਂ ਇਸਨੂੰ ਨਹੀਂ ਝੇਲ ਪਾਇਆ ।  ਮੈਂ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਸੋ ਪਾਉਂਦਾ ਸੀ ,  ਨਹੀਂ ਖਾ ਪਾਉਂਦਾ ਸੀ ।  ਨਹੀਂ ਹੀ ਚੈਨ ਵਲੋਂ ਬੈਠ ਪਾਉਂਦਾ ਸੀ ਅਤੇ ਨਹੀਂ ਹੀ ਆਰਾਮ ਕਰ ਪਾਉਂਦਾ ਸੀ ।  ਮੇਰੀ ਹਿੰਮਤ ਟੁੱਟ ਚੁੱਕੀ ਸੀ ਅਤੇ ਮੇਰਾ ‍ਆਤਮਵਿਸ਼ਵਾਸ ਖਤਮ ਹੋ ਗਿਆ ਸੀ ।  ਆਖ਼ਿਰਕਾਰ ਉਹ ਡਾਕਟਰਾਂ  ਦੇ ਕੋਲ ਗਿਆ ।  ਇੱਕ ਨੇ ਉਸਨੂੰ ਨੀਂਦ ਦੀਆਂ ਗੋਲੀਆਂ ਦਿੱਤੀ ,  ਦੂੱਜੇ ਨੇ ਸੁਝਾਅ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਉਹ ਕਿਤੇ ਬਾਹਰ ਘੁੱਮਣ ਚਲਾ ਜਾਵੇ ।  ਉਸਨੇ ਦੋਨਾਂ ਹੀ ਤਰੀਕੇ ਪਰਖਿਆ ,  ਪਰ ਕਿਸੇ ਵਲੋਂ ਵੀ ਮੁਨਾਫ਼ਾ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ।  ਉਸਨੇ ਦੱਸਿਆ ,  ਅਜਿਹਾ ਲੱਗ ਰਿਹਾ ਸੀ ਜਿਵੇਂ ਮੇਰਾ ਸਰੀਰ ਕਿਸੇ ਸ਼ਕੰਜੇ ਵਿੱਚ ਜਕੜ ਹੋ ਅਤੇ ਉਹ ਲਗਾਤਾਰ ਕਸਦਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੋ ।  ਦੁੱਖ ਦਾ ਤਨਾਵ -  ਜੇਕਰ ਤੁਸੀ ਕਦੇ ਦੁੱਖ  ਦੇ ਮਾਰੇ ਟੁੱਟੇ ਹੋਣ ,  ਤਾਂ ਤੁਸੀ ਸੱਮਝ ਸੱਕਦੇ ਹੋ ਕਿ ਉਸਦਾ ਕੀ ਮਤਲੱਬ ਸੀ ।

ਪਰ ਰੱਬ ਦੀ ਕ੍ਰਿਪਾ ਵਲੋਂ ਮੇਰਾ ਇੱਕ ਬੱਚਾ ਜਿੰਦਾ ਸੀ - ਮੇਰਾ ਚਾਰ ਸਾਲ ਦਾ ਪੁੱਤ ।  ਉਸਨੇ ਮੇਰੀ ਸਮੱਸਿਆ ਸੁਲਝਾ ਦਿੱਤੀ ।  ਇੱਕ ਦੁਪਹਿਰ ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਦੁੱਖ ਵਿੱਚ ਡੂਬਾ ਸੀ ,  ਤਾਂ ਉਸਨੇ ਕਿਹਾ ,  ਪਾਪਾ ਮੇਰੇ ਲਈ ਇੱਕ ਕਿਸ਼ਤੀ ਬਣਾ ਦੋ ।  ਕਿਸ਼ਤੀ ਬਣਾਉਣ ਦਾ ਮੇਰਾ ਕਦੇਵੀ ਮਨ ਨਹੀਂ ਸੀ ।  ਸੱਚ ਤਾਂ ਇਹ ਸੀ  ਕਿ ਮੇਰਾ ਮਨ ਕੁੱਝ ਵੀ ਕਰਣ ਦਾ ਨਹੀਂ ਸੀ ।  ਲੇਕਿਨ ਮੇਰਾ ਪੁੱਤਰ ਕੰਵਲਾ ਕਿੱਸਮ ਦਾ ਹੈ ।  ਅਤੇ ਮੈਨੂੰ ਆਖ਼ਿਰਕਾਰ ਹਾਰ ਮੰਨਣੀ ਪਈ । 

ਉਸਦੀ ਖਿਡੌਣੇ ਵਰਗੀ ਕਿਸ਼ਤੀ ਬਣਾਉਣ ਵਿੱਚ ਮੈਨੂੰ ਤਿੰਨ ਘੰਟੇ ਲੱਗੇ ।  ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਕਿਸ਼ਤੀ ਪੂਰੀ ਬਣਾ ਲਈ ,  ਤੱਦ ਜਾਕੇ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋਇਆ ਕਿ ਦਰਅਸਲ ਮਹਿਨੋਂ ਦੀ ਚਿੰਤਾ  ਦੇ ਬਾਅਦ ਮੈਨੂੰ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਇਸ ਤਿੰਨ ਘੰਟੀਆਂ ਵਿੱਚ ਇੰਨੀ ਸ਼ਾਂਤੀ ਅਤੇ ਮਾਨਸਿਕ ਰਾਹਤ ਮਿਲੀ ਸੀ ।

ਇਸ ਖੋਜ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਨੀਂਦ ਵਲੋਂ ਜਗਾਇਆ ਅਤੇ ਸੋਚਣ ਉੱਤੇ ਮਜਬੂਰ ਕਰ ਦਿੱਤਾ - ਕਈ ਮਹੀਨੀਆਂ ਵਿੱਚ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਮੈਂ ਕੁੱਝ ਸੋਚ ਰਿਹਾ ਸੀ ।  ਮੈਂ ਮਹਿਸੂਸ ਕੀਤਾ ਕਿ ਜਦੋਂ ਅਸੀ ਕਿਸੇ ਕੰਮ ਦੀ ਯੋਜਨਾ ਬਣਾਉਣ ਅਤੇ ਉਸਦੇ ਬਾਰੇ ਵਿੱਚ ਸੋਚਣ ਵਿੱਚ ਵਿਅਸਤ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਤਾਂ ਚਿੰਤਾ ਕਰਣਾ ਮੁਸ਼ਕਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ।  ਮੇਰੇ ਮਾਮਲੇ ਵਿੱਚ ਕਿਸ਼ਤੀ ਬਣਾਉਣ  ਦੇ ਕੰਮ ਨੇ ਮੇਰੀ ਚਿੰਤਾ ਨੂੰ ਚਾਰਾਂ ਖਾਣ  ਚਿੱਤ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ।  ਇਸਲਈ ਮੈਂ ਫੈਸਲਾ ਕੀਤਾ ਕਿ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਵਿਅਸਤ ਰੱਖਾਂਗਾ ।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

उदासी भरी बेला !!




जब सूरज अपना शिफ़्ट खत्म कर अस्त होता है उसी वक्त घर के पीछे से एक रेलगाड़ी हल्ला मचाते हुए सरक जाती है। चहचहाते हए परिंदों का झुंड तेजी से अपने घर भागता है। आसमान में सन्नाटा पसर जाता है। बादल जैसे मर जाता है। शाम की यह बेला बेहद बोझिल लगती है मुझे।

वही कमरा, वही चादर, वही तकिया...हर एक का रंग अपनी उम्र से भी ज्यादा पुराना मालूम पड़ता है। पसंदीदा गाने, जिन्हें एक बार सुनने से मन नहीं भरता था..बजकर कब बंद हो जाते हैं... कुछ पता नहीं चलता।

मोबाइल में पड़े 100-200 नंबर रद्दी मालूम होते हैं। चाय की एक घूंट से जान पर बन आती है।
किताब में लिखी बातें सिर के उपर से गुजर जाती हैं। बच्चों की आवाज मानों इसी वक्त कर्कस लगती है।

टीवी ढकोसले की दुनिया औऱ फेसबुक ट्विटर जैसे रैम्प ऊबाउ लगते हैं। नकारात्मक बातें क्या होती हैं शायद इस वक्त से पहले कभी पता ही नहीं होता।

जब कुछ ऐसा होता है...जब कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जब कुछ ऐसा लगता है..जैसे वक्त थम गया।

 तब मन करता है, हाथ बांध कर समंदर के किनारे खड़े रहने का..बालों को हवा में आजाद छोड़ देने का...ठंडी हवा के तेज झोके को अपने में समा लेने का...समंदर की लहरों से अठखेलियां करने का..जो सूकुन दे..एक एहसास दे। लेकिन अफ़सोस...हर शहर में समंदर नहीं होता।

रविवार, 26 जनवरी 2014

कल आने से पहले...



google foto
कदम आगे नहीं बढ़े मैं वहीं खड़ा रहा। उनमें शामिल होकर मैं भी वैसे ही रोता जैसे निशा रो रही थी, जैसे उसके भाई-बहन रो रहे थे। सफेद कपड़े से ढ़की जमीन पर एक लाश पड़ी थी, निशा के मां की लाश जो कल शाम ठीक इसी वक्त अपनी थाली से दो कौर मुझे खिलाकर खुद खायी थीं।
निशा अपने भाई-बहनों के साथ बिलख रही थी जैसे उसकी मम्मी की कहानियों में   बिलखने पर जंगल के पेड़ों की पत्तियां टूटकर गिर जाया करती थीं।

जमीन पर बिछी चारपाई पर एक और लाश पड़ी थी। जिन्दा लाश..निशा के पापा को लोग काफी देर से होश में लाने की कोशिश में लगे थे।  लेकिन वे दुख और पीड़ा की खाईं में गिरे थे..उनकी हमसफ़र अब इस दुनिया में नहीं थीं।

निशा के पास इकट्ठी औरतें एक साथ रो रही थीं जैसे वे कभी एक साथ गीत गाया करती थीं।
 कुछ बुदबुदाहट के साथ निशा के पापा को होश आय़ा और वह जमीन पर पड़ी लाश को एक टक देखने लगे। दो आदमी पकड़कर उन्हें लाश के पास लाए।

उन्हें हाथ में सिंदूर की डिबिया पकड़ायी गयी। वे सिंदूर को हाथ मे लेकर कुछ सोचते रहे...उस वक्त जो सिर्फ वही सोच सकते थे... उन्होंने पत्नी की मांग भरी... लाल चुनरी से माथा ढ़का..माथे पर बिंदिया सजायी औऱ उन्हे सीने से लगाकर फ़फक पड़े। यह उनके दुल्हन की विदाई थी..... उनके हससफर की विदाई.....इस दुनिया से विदाई।

 संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियां ओढ़े निशा की मम्मी पति, बच्चों औऱ परिवार पर इतना प्यार लुटायीं कि खुद के लिए प्यार नहीं बचा। घर के जिन सदस्यों को खुश करने में वह लगी रहीं उन्हें इनके जानलेवा दर्द का जरा सा भी इल्म नहीं था।

एक सुबह वह कमरे से बाहर नहीं निकली। पेट में दर्द था..भयंकर दर्द। घर में इधर-उधर पड़ी दर्द की दवा खोजकर खिलायी गयी। आराम हुआ..थोड़ा आराम।
निशा की दादी ने यह कहते हुए डॉक्टर के पास न जाने दिया कि वह अपनी जिंदगी में बहुओं की बिमारी के बहानों से भली प्रकार वाक़िफ़ हैं।

नजरअंदाजी यूं ही चलती रही..और एक रात निशा की मम्मी की रुलाई सुनकर घरवालों के साथ पूरा मुहल्ला जगा। वही दर्द था..भयंकर दर्द..जो असहनीय था। आधी रात को डॉक्टर के पास ले जाया गया।
 सुबह अल्ट्रासाउण्ड हुआ। डॉक्टर ने यह कहते हुए जल्द से जल्द ऑपरेशन कराने की सलाह दी कि बिमारी को छिपाकर बढ़ाया गया है..यह जान के लिए ख़तरा बन गया है।

निशा की मम्मी अल्सर से जूझ रही थीं। कल उन्हें ऑपरेशन के लिए जाना था। और आज... उनकी विदाई थी...दुनिया से विदाई।