शाम के चार बज गए हैं। दो
मंजिला वाले उस घर में सन्नाटा पसरा है। लेकिन छत से कुछ खटर-पटर की आवाजें आ रही
हैं।
दूसरी मंजिल पर बालकनी के
दो कमरों में बड़ी बहू और मझली बहू रहती है। पहले मंजिल पर छोटी बहू रहती है।
तीनों बहुएं दोपहर का खाना खाकर शायद सो गई थीं और अभी तक नहीं उठी हैं। तीनों
बहुओं के मिलाकर कुल छः बच्चे उस घर में हैं।
छत पर दो डबल बेडशीट,
तीन-चार साड़ियां और बच्चों के कपड़े सुखने के लिए डाले गए हैं। छत के एक कोने में
झूला लटक रहा है। झूले में एक साल की बच्ची बैठी है।
छत पर उस बुढिया औऱ बच्ची
के अलावा तीसरा कोई नहीं है। झूले में बैठी बच्ची हिल-डुल नहीं रही है। वह निहायत
गोरी और कोमल है। सामने से देखने पर ऐसा मालूम पड़ता है जैसे झूले में कोई
प्लास्टिक की गुड़िया बैठी हो।
वह बुढिया अचार भरकर रखे
तीन अलग-अलग रंग के जारों को हिलाती है औऱ जिधर धूप टिक गई है वहां ले जाकर रख
देती है। छत पर प्लास्टिक के दो बड़े टबों में गेहूं भरकर रखा है। बुढिया पतली
पाइप को नल से जोड़कर टबों में पानी डालती है औऱ मिट्टी को गलने के लिए छोड़ देती
है।
दीवार के किनारे गमलों में
करी पत्ता, कनेर समेत अन्य पेड़-पौधे लगाकर रखे गए हैं। चार गमलों में अलग-अलग तरह
के फूल खिले हैं। बुढिया सभी गमलों में पानी डाल रही है। पानी के छींटों से भीगकर
कनेर के दो फूल जमीन पर लुढ़क जाते हैं।
हट्ठी-कट्ठी पांच फुट की वह
बुढिया सिर्फ सफेद पेटीकोट और ब्लाउज पहने है। बालों में उसने लाल फीता लगाकर
कस-कस के चोटी करके जूड़ा बनाया है। उसके बालों में लगा फीता लाल बैजन्ती के फूल
की तरह लग रहा है। बुढिया चारपाई से अपना चश्मा उठाती है और हाथों से रगड़-रगड़ कर
गेहूं साफ करने लगती है। टब में पानी डालती है और चलनी से गेहूं को छानकर वहीं एक
चादर पर फैला देती है।
झूले पर बैठी बच्ची अब रोने
लगी है। बुढिया उसे झूले से उतारकर गोद में लेती है और अपने हाथों से रगड़कर उसका
नाक पोंछती है। बच्ची और जोर से रोने लगती है। अब वह उसे अपने कंधे पर बिठाकर छत
के चारों ओर घुमाती है। बच्ची चुप हो जाती है तो वह उसे फिर से झूले में बिठा देती
है।
बुढिया अब सूखे कपड़ों को
उतारती है और उन्हें तह करके चारपाई पर रख देती है। सारा काम खत्म कर बुढिया
हाथ-पैर धोकर अपनी साड़ी पहन लेती है। फटाफट अपना काम निपटाने वाली सत्तर सात की
वह बुढ़िया मुझ जैसे आलसी के लिए एक सबक थी।