बुधवार, 7 सितंबर 2016

सामने वाले घर में...



शाम के चार बज गए हैं। दो मंजिला वाले उस घर में सन्नाटा पसरा है। लेकिन छत से कुछ खटर-पटर की आवाजें आ रही हैं।

दूसरी मंजिल पर बालकनी के दो कमरों में बड़ी बहू और मझली बहू रहती है। पहले मंजिल पर छोटी बहू रहती है। तीनों बहुएं दोपहर का खाना खाकर शायद सो गई थीं और अभी तक नहीं उठी हैं। तीनों बहुओं के मिलाकर कुल छः बच्चे उस घर में हैं।

छत पर दो डबल बेडशीट, तीन-चार साड़ियां और बच्चों के कपड़े सुखने के लिए डाले गए हैं। छत के एक कोने में झूला लटक रहा है। झूले में एक साल की बच्ची बैठी है।
छत पर उस बुढिया औऱ बच्ची के अलावा तीसरा कोई नहीं है। झूले में बैठी बच्ची हिल-डुल नहीं रही है। वह निहायत गोरी और कोमल है। सामने से देखने पर ऐसा मालूम पड़ता है जैसे झूले में कोई प्लास्टिक की गुड़िया बैठी हो।

वह बुढिया अचार भरकर रखे तीन अलग-अलग रंग के जारों को हिलाती है औऱ जिधर धूप टिक गई है वहां ले जाकर रख देती है। छत पर प्लास्टिक के दो बड़े टबों में गेहूं भरकर रखा है। बुढिया पतली पाइप को नल से जोड़कर टबों में पानी डालती है औऱ मिट्टी को गलने के लिए छोड़ देती है।
दीवार के किनारे गमलों में करी पत्ता, कनेर समेत अन्य पेड़-पौधे लगाकर रखे गए हैं। चार गमलों में अलग-अलग तरह के फूल खिले हैं। बुढिया सभी गमलों में पानी डाल रही है। पानी के छींटों से भीगकर कनेर के दो फूल जमीन पर लुढ़क जाते हैं।

हट्ठी-कट्ठी पांच फुट की वह बुढिया सिर्फ सफेद पेटीकोट और ब्लाउज पहने है। बालों में उसने लाल फीता लगाकर कस-कस के चोटी करके जूड़ा बनाया है। उसके बालों में लगा फीता लाल बैजन्ती के फूल की तरह लग रहा है। बुढिया चारपाई से अपना चश्मा उठाती है और हाथों से रगड़-रगड़ कर गेहूं साफ करने लगती है। टब में पानी डालती है और चलनी से गेहूं को छानकर वहीं एक चादर पर फैला देती है। 

झूले पर बैठी बच्ची अब रोने लगी है। बुढिया उसे झूले से उतारकर गोद में लेती है और अपने हाथों से रगड़कर उसका नाक पोंछती है। बच्ची और जोर से रोने लगती है। अब वह उसे अपने कंधे पर बिठाकर छत के चारों ओर घुमाती है। बच्ची चुप हो जाती है तो वह उसे फिर से झूले में बिठा देती है।

बुढिया अब सूखे कपड़ों को उतारती है और उन्हें तह करके चारपाई पर रख देती है। सारा काम खत्म कर बुढिया हाथ-पैर धोकर अपनी साड़ी पहन लेती है। फटाफट अपना काम निपटाने वाली सत्तर सात की वह बुढ़िया मुझ जैसे आलसी के लिए एक सबक थी।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

मुझको जिसके गम ने मारा..




मोबाइल में बैलेंस और पास में इंटरनेट होना जीवन के कई सुखों में से एक सुख का आभास कराता है।  यह हमारी जरूरी जरूरतों से भी शायद कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है। यह ज्ञान मुझे आज ही प्राप्त हुआ।

कहानी थोड़ी जुल्मी है...दो दिन पहले मेरा इंटरनेट पैक खत्म हो गया। मोबाइल की एक दूकान पर रिचार्ज कराने पहुंची तो नेटवर्क समस्या की वजह से रिचार्ज नहीं हो पाया। अन्य दूकानों पर जाने पर वहीं समस्या आयी। मैं मायूस होकर हॉस्टल लौट आयी। मेरे पास चौराहों या किराने की दूकान के बगल में रिचार्ज की दूकान खोलकर बैठे किसी पप्पू भैया या छोटू भैया टाइप किसी भी भैया का नंबर भी नहीं था कि मैं उन्हें पैसे देकर बोलती कि ट्राई करते रहिएगा शायद रिचार्ज हो जाए।
कमरे की खिड़की के पास खड़ी थी, मन कुछ बोझिल सा लग रहा था। रिचार्ज न होने के दुख में डूबी ही थी कि रात में जाने कैसे मोबाइल का सारा बैलेंस कट गया। सुबह जगी तो पता चला मोबाइल में पैसे के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं है।

जीवन में कई बार ऐसा होता है कि चीजे अच्छी हों या बुरी, आती हैं तो छप्पर फाड़ कर आती हैं। या तो आप खुशी के मारे मर जाए या फिर गम के मारे। मैं पता नहीं मर रही थी कि नहीं..हां उदास उतनी ही थी जैसे कि कोई मर गया हो।

मैं रिचार्ज करवाने के लिए शाम को निकली और हॉस्टल से करीब तीन-चार किलोमीटर की दूरी नाप कर लौट आयी। रिचार्ज नहीं हो पाया। ज्यादातर मोबाइल की दूकानों पर मेरे नेटवर्क का रिचार्ज खत्म हो गया था..कुछ दूकानदार उस नेटवर्क का कार्ड नहीं बेचते थे...कुछ ने कहा रखे तो हैं लेकिन कार्ड मिल नहीं रहा..खोजना पड़ेगा, अभी खाली नहीं हैं। दूकानें सिर्फ चार-पांच ही थीं।
हॉस्टल लौटने के बाद मैं पढ़ाई करने बैठी तो पढ़ने में मन नहीं लग रहा था। मैं बार-बार अपना फोन उठाकर देख रही थी जैसे किसी भगवान जी ने मुझसे प्रॉमिस किया हो कि दो घंटे के भीतर बैलेंस भेज पहुंच जाएगा।

उफ्फ.. इतनी उदासी...क्या पहाड़ टूट पड़ा है..क्या कोई दुर्घटना हो गई है...दुख-वुख जैसा कुछ भी नहीं था...लेकिन उदासी थी कि चेहरे पर चिपक गई थी। अरे..मुझे किसी को जरूरी या गैर जरूरी टाइप की कोई कॉल भी नहीं करनी थी। ना ही फेसबुक चलाना था ना ही व्हाट्सएप की शौकीन हूं...और लिखने के प्रति तो मैं महाआलसी हूं...मुझे कोई पोस्ट भी अपने ब्लॉग पर नहीं डालनी थी...फिर मेरा मुंह क्यों लटका था...जाने क्यों।

मेरी हालत वैसी ही थी जैसे किसी बच्चे को तड़के सुबह परीक्षा देने जाना हो और आधी रात को उसे याद आए कि उसने पेंसिल-पेन खरीदी ही नहीं। वह अपने कमरे के कोने-कोने में ढूंढे और जो पेन मिले उसकी स्याही खत्म और जो पेंसिल मिले वह छीलने पर टूट जाए।

मेरी मौसी कहा करती थीं जब अपने घड़े में पानी भरा हो तो दुनिया भी पानी के लिए पूछती है। फोन में बैलेंस नहीं था तो घर से मां का भी कोई फोन नहीं आया। वैसे तो वह रोजाना दिन में दो-दिन बार फोन टिनटिना दिया करतीं थी। मन उचट रहा था..दिमाग में जाने कैसे-कैसे से खयाल आ रहे थे। उस समय-मुसीबत आने पर कोई साथ नहीं देता टाइप मुहावरे चरितार्थ हो रहे थे।
फोन में पैसा न होना..पास में इंटरनेट न होना भी कोई दुख है.. है न साहब....मेरी दादी कहती तो हैं-जिसके ऊपर बीतती है वही समझता है। आज बीती तो समझ में आया। फोन में बैलेंस होना औऱ इंटरनेट होना अपने आप में एक बड़ा सुख है..खासतौर पर जब आप घर से दूर किसी दूसरे शहर में अकेले रहते हों।

रविवार, 21 अगस्त 2016

आलस वाला भूत!



हम सभी के अंदर आलस नाम का एक भूत बैठा होता है। सभी अपनी-अपनी शक्ति से इसे परास्त करने की कोशिश करते हैं लेकिन मैं तो ज्यादातर खुद ही परास्त हो जाती हूं और इसके बाद निराशा हाथ लगती है और फिर आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है।

कुछ दिनों से सुबह टहलने की आदत छूट गई है। सुबह का  अलार्म लगाकर रात में जल्दी सो जाती हूं। सुबह अलार्म बजने तक नींद भी पूरी हो जाती है। मैं उठकर बैठ जाती हूं फिर जाने कौन सा भूत चांपता है कि दोबारा सो जाती हूं। थोड़ी ही देर में तेज धूप निकल आती है तब उठने के बाद खुद को कोसने के अलावा कुछ नहीं बचता। मैं मुंह बना कर ऐसे बैठ जाती हूं कि इसी मूड में बनी रहूं तो पूरा दिन खराब हो जाए।

दोपहर के तीन बजे मैं कमरे में लेटे हुए यह सोच रही हूं कि मुझे बाजार जाकर अपनी जरूरी किताबें खरीदनी है। तभी आलस वाला भूत चांपता है और मैं सोचती हूं कि पांच मिनट बाद ही उठकर तैयार होऊं। पांच की बजाय मैं पंद्रह मिनट बाद उठकर खिड़की से झांकती हूं तो लगता है अभी तो शाम होने में तीन घंटे बाकी है। क्यों न शाम को ही जाकर किताबें खरीदूं। वह भूत मुझे काम के प्रति एक्टिव नहीं होने देता और मैं शाम खोकर रात में प्रवेश कर जाती हूं।

मुझे जोरों की प्यार लगी है और छत्तीस सीढियों को नापते हुए पहले मंजिले पर उतरकर फ्रिज से पानी लाना है। मैं थोड़ी देर तक प्यास को इग्नोर करती हूं फिर कमरे में रखी दो खाली बोतलों में एक बूंद पानी इस कदर टटोलती हूं जैसे मरते हुए के मुंह में एक बूंद गंगाजल डाल देता हो कोई।
सबसे बड़ी बात तो बताना भूल गई। सुबह रोज इसी ऊहापोह में रहती हूं कि पहले नहाऊं या पहले खाऊं। फिर मेरे अंदर बैठा भूत पहले खाने की जिद करता है और मैं खाना खा लेती हूं। इसके बाद कुर्सी पर बैठे-बैठे मैं नींद में इस कदर झूलने लगती हूं जैसे खाना नहीं अफीम की गोली खा ली हो मैंने।

मरने के बाद जो लोग स्वर्ग में जाते होंगे वे वहां का अपना अनुभव जीवित लोगों को तो नहीं बता सकते। लेकिन मैं जीवित ही नींद में जिस स्वर्ग का अनुभव करती हूं वो जरूर बता सकती हूं। उस वक्त लगता ही नहीं है कि नींद से बढ़कर भी जीवन में और कोई सुख है।
हां..ये बात अलग है कि जब सोकर उठती हूं तो दो-चार लोग पूछ बैठते हैं..अरे चेहरा क्यों इतना सूजा है आपका..तबीयत तो ठीक है ना?

सोमवार, 8 अगस्त 2016

चिंता खा नहीं रही काट रही है...

कल मेरी रूम मेट बातोंबातों में बोली-काश बचपन के दिन जल्दी न बीते होते, अच्छा होता कि हम बड़े ही न हुए होते। लेकिन अगर बड़े न होते तो मां-बाप को उसकी भी एक अलग ही चिंता हो जाती।

मां-बाप को बच्चों की चिंता तो हमेशा लगी रहती है। पड़ोसी के बच्चे को नौकरी मिल जाए तो मां को अपने बच्चे की चिंता होने लगती है। पापा के दोस्त का बेटा विदेश चला जाए तो पापा को अपने बच्चे की चिंता होने लगती है। अपना दोस्त अपनी पहली सैलरी से अपने घरवालों के लिए नए कपड़े खरीद कर लाता है तब अपनी मां के सपने जैसे चकनाचूर होकर उनकी आंखों से बहने लगते हैं। आप सिर्फ मैगी या चाय बनाना जानती हैं जबकि पड़ोसी की बेटी छप्पन भोग तैयार करके रख देती है तब मां के दिल में आपके लिए टीश उठती है। जाड़े के दिनों में आप मां से स्वेटर बुनने की फरमाइश करती हैं और आपके बगल की रीना, श्वेता अपने लिए हॉफ औऱ फुल बाजू के धारीदार स्वेटर के अलावा अपने भाई के बेटे के लिए दो जोड़ी रंग-बिरंगे मोजे बुन देती है तो मां को आप गुड़-गोबर से ज्यादा कुछ नहीं लगतीं। उनके चिंता करने की एक वजह होती है भला।

आपको अट्ठाइस की उम्र तक पढ़ा रहे हैं वो इसके बाद भी आप अपने बाल सफेद कर बिना नौकरी के उनके सामने हाजिर हों तो उसकी एक अलग चिंता होती है...शायद चिंता नहीं आक्रोश जैसा कुछ होता है। इसके बाद वे आपके पढ़ाई का खर्च उठाने की हालत में नहीं होते हैं। अगर आप लड़का हैं तो खुद कैसे भी कमाइए या शादी कर लीजिए..बहू को मां-बाप के पास छोड़कर दहेज के पैसे लेकर शहर जाइए और पढ़ाई कीजिए। अगर आप लड़की हैं तो..उनके कहने से पहले ही शादी के लिए हां बोल दीजिए..भलाई इसी में है। आपको आगे पढ़ाने की उनकी कूबत नहीं है उनमें...आगे पढ़ाएंगे तो जमा पैसे खिसकते ही जाएंगे...फिर आपकी शादी के लिए दहेज के पैसे क्या वे भीख मांगकर जुटाएंगे।

आपने शादी के लिए हां बोल दिया तो इसकी अलग ही चिंता। पिता के पैर में छाले पड़ जाते हैं आपके लिए योग्य वर ढूंढने में। आजकल वधू ढूंढने में भी पिता को मशक्कत करनी पड़ती है। फिर उनकी पसंद पर आपने छूरियां चला दी तो उसकी एक अलग चिंता। यदि आप लड़का हैं तो आप पर दबाव बनाया जाएगा कि कुछ करते-धरते तो हो नहीं लड़की ऐश्वर्या राय कहां से मिलेगी। अगर आप लड़की हैं तो आपको काली,  सांवली, छोटी आदि बताकर कहा जाएगा कि सपनों वाला राजकुमार ऐसी लड़कियों को नहीं मिलता..जो दूल्हा ढूंढा है चुपचाप उसी से कर लो शादी। एक मिनट के लिए आप सदमे में आ जाएंगे कि ये आपही के मां-बाप है न। 

आप सदमे से उबरे भी नहीं रहेंगे कि मां विलाप करते हुए कहेंगी..कर लो बेटी शादी...पापा कहां से ढूंढेंगे तुम्हारे मन-मुताबिक लड़का। अपनी हैसियत भी तो नहीं है। कहां से दे पाएंगे इतना दहेज। फिर सरकारी नौकरी के नाम पर आपको एक सरकारी सफाईकर्मी या चपरासी लड़के के साथ जीवन भर के लिए बांधने का फैसला कर लिया जाता है।

अंततः सीन थोड़ा जुल्मी हो जाता है। आपके सामने आपकी अपनी पिछली जिंदगी का फ्लैशबैक चलने लगता है। जब आप किसी शहर के मैक-डी में बैठकर बर्गर खा रहे थे साथ में फ्री वाई-फाई पाकर नेट सर्फिंग कर रहे थे। लड़की किसी बुद्धजीवी लड़के का सपना देख रही थी तो लड़का मिल्की व्हाइट और नौकरी करने वाली लड़की का।

वैसे चार्ली चैपलिन कब के कह गए हैं कि जिंदगी क्लोज-अप में ट्रेजडी है..इसलिए आप इसे लांग शॉट में देखिए। कल को आप कमाने लगेंगे तब भी मां-बाप की चिंता उतनी ही रहेगी कि आपकी तनख्वाह फलाने के लड़के से कम है...फलाने का लड़का अपनी मां के लिए हर हफ्ते साड़ी खरीदकर देता है जबकि आप सिर्फ होली-दीवाली। आप अभी से गंजे हो रहे हैं..फलाने का लड़का तो तीस की उम्र में भी बीस जैसा दिख रहा है। नहीं खत्म होने वाली हैं ये परेशानियां।