तेरे मस्त मस्त दो नैन..मेरे दिल का ले गए चैन….गाना चल रहा
है चाक पर मिट्टी का बर्तन बनाती हुई सोनाक्षी सिन्हा अपनी लटों को संभालने के लिए
कुछ ऐसे हाथ फेरती हैं कि मिट्टी उनके गाल पर लग जाती है…और इसी मिट्टी पर चुलबुल पांडे
मर मिटते हैं…और गगरी खरीदने के बहाने उनसे
मिलने जाते हैं……...ये तो बात हुई फिल्मों की….जिनमें कुम्हारी कला दिखाई गयी है…..
लेकिन सचमुच में हमारे कुम्हारों के कला की क्या स्थिति है
यह बस वही जानता है…..आधुनिकता के जिस चटनी और ब्राण्ड के हम आदी होते जा रहे हैं ये
धीरे धीरे दफन कर रही हैं उन सारी चीजों को..उस मिठास को.... मिट्टी के बनें उस कुल्हड़ को जिसकी सोंधी
खूशबू के बिना हम चाय की चुस्कियां नही भरते थे……जिनके बने दीये के बगैर हमारी दीवाली
में रोशनी नहीं आती थी….मट्टे लस्सी का आनंद बिना पुरवे के गवारा नहीं था….,रंग-बिरंगे
आकर्षक प्लास्टिक के बने पात्र चुरा ले गये मिट्टी और बर्तनों की रंगत…
मिट्टी से कंकड़-पत्थर बीनकर उसे सानने से लेकर चाक पर बर्तन
का सुंदर आकार देने वाले कुम्हारों को अब अपनी ही कला रास नहीं आ रही …और वे इसे
छोड़कर दूसरे व्यवसाय की जुगाड़ में लगे है
इस कला को नष्ट करने का जिम्मेदार कोई और नहीं हम आम आदमी
ही है…जिनको ये अब उबाऊ और पुराने जमाने की दिख रही हैं….
यातायात के दौरान बस ट्रेन इत्यादि जगहों पर यह देखा जा सकता
है कि किस तरह पहले हाथों मे कुल्हड़ सजाये चाय- कॅाफी बेचने वाले अब रंगीन प्लास्टिक के गिलास नचाते फिरते हैं………
कपड़ा लत्ता, घर-द्वार, गाड़ी –मोटर खाने पीने की सामग्री
सबमे मंहगाई की हवा लगी…. लेकिन जो उस हवा से अछूता रह गया वो मिट्टी का बर्तन कहलाया….लोगों
की मेहरबानी से पहले की तुलना में मिट्टी के पात्रों के दाम कुछ रूपए बढ़े है र्लेकिन
अगर किसी ने ओल्ड फैशन के रिवाज को तोड़कर मिट्टी के पात्र खरीदने की जुर्रत भी की
है तो बिना मोल-भाव किए नहीं……
मौजूदा समय मे हर चीज की किल्लत हुई है…..कुम्हारों को अच्छी
मिट्टी नहीं मिल रही…जिसके अभाव मे बर्तन फट जाते हैं……लेकिन पीर पराई कौन सुने…लोग
मिट्टी की चीज तो मिट्टी के भाव ही खरीदना चाहते हैं, ये भा कहीं एक दिन मिट्टी के
कला को मिट्टी मे ना मिला दे…..
1 टिप्पणी:
कुम्हारों के दर्द को बेहतर ढंग से उकेरा है अपने, निश्चित रूप से आपकी लेखन शैली पठनीय है, शुभकामना
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