सब्जी पककर तैयार थी। प्रेशर कुकर खोलते ही दोनों बच्चे उसमें
ऐसे झांके मानो कुएं में गिरा मेंढक देख रहे हों। शहर में रहते हुए भी प्रेशर कुकर
उन दोनों के लिए नई चीज है। जब भी कुकर की सीटी बजती है वो दोनों उछलने लगते
हैं..खुशी से नहीं डर से।
प्रेशर कुकर तो उसके घर में भी है..वही यूनाइटेड..जो उसकी
मम्मी को उसकी नानी ने दिया था। दाल गलाने के लिए। लेकिन उसकी मां उसमे दाल नहीं
पकाती। हां..छोटा बच्चा कुकर के ढक्कन को लेकर जरूर पूरे दिन घर में घूमता रहता
है..मानो सबसे यह कह रहा हो कि देखो कुकर का कैसे दुरूपयोग किया जा रहा है।
अमूमन घर में उपयोग होने वाले चीजों की बच्चों को ऐसी आदत लग जाती है कि उन्हें उनकी किसी भी तरह
की आवाज से डर नहीं लगता। चाहे वो मिक्सर चलाया जाए..चाहे कूलर..या फिर कुकर की
सीटी ही क्यों न हो।
एक दिन मैंने उसकी मां से पूछा कि वह प्रेशर कुकर में खाना
क्यों नहीं बनाती हैं
उन्होंने अपने चेहरे पर सिर दर्द जैसा भाव लाते हुए
कहा..कुकर में खाना बनाने में बड़ा झमेला है। पहले तो बैठ के गिनते रहो कितनी
सीटियां आई..खाना पका कि नहीं पका। सबसे बड़ी मुसीबत है कुकर को मांजने में।
पहले कुकर मांजो..फिर उसका ढक्कन मांजो...फिर उसका रबर मांजो..फिर
उसकी सीटी मांजो। उन्होंने ऐसे बोला मानो अपनी बातों से मेरा दिमाग मांज दिया हो
कि मुझे ये सवाल नहीं पूछना चाहिए।
बच्चे की नानी के घर से प्रेशर कुकर जरूर आया है...लेकिन वो
खाली नहीं..बल्कि भर-भर कर आलस भरकर आया है..जो बच्चे की मां में समा गया है...वह
दो घंटे में बटलोई में दाल पकाती है..लेकिन कुकर को सहेज कर रखी है..शायद इस उम्मीद
में कि सारनाथ से एक दिन म्यूजियम वाले आएंगे और उसके कुकर को उठा कर ले जाएंगे।