बुधवार, 25 मार्च 2015

कुकर की सीटी से उसे डर लागो



सब्जी पककर तैयार थी। प्रेशर कुकर खोलते ही दोनों बच्चे उसमें ऐसे झांके मानो कुएं में गिरा मेंढक देख रहे हों। शहर में रहते हुए भी प्रेशर कुकर उन दोनों के लिए नई चीज है। जब भी कुकर की सीटी बजती है वो दोनों उछलने लगते हैं..खुशी से नहीं डर से।

प्रेशर कुकर तो उसके घर में भी है..वही यूनाइटेड..जो उसकी मम्मी को उसकी नानी ने दिया था। दाल गलाने के लिए। लेकिन उसकी मां उसमे दाल नहीं पकाती। हां..छोटा बच्चा कुकर के ढक्कन को लेकर जरूर पूरे दिन घर में घूमता रहता है..मानो सबसे यह कह रहा हो कि देखो कुकर का कैसे दुरूपयोग किया जा रहा है।

अमूमन घर में उपयोग होने वाले चीजों की बच्चों को  ऐसी आदत लग जाती है कि उन्हें उनकी किसी भी तरह की आवाज से डर नहीं लगता। चाहे वो मिक्सर चलाया जाए..चाहे कूलर..या फिर कुकर की सीटी ही क्यों न हो।

एक दिन मैंने उसकी मां से पूछा कि वह प्रेशर कुकर में खाना क्यों नहीं बनाती हैं
उन्होंने अपने चेहरे पर सिर दर्द जैसा भाव लाते हुए कहा..कुकर में खाना बनाने में बड़ा झमेला है। पहले तो बैठ के गिनते रहो कितनी सीटियां आई..खाना पका कि नहीं पका। सबसे बड़ी मुसीबत है कुकर को मांजने में। 

पहले कुकर मांजो..फिर उसका ढक्कन मांजो...फिर उसका रबर मांजो..फिर उसकी सीटी मांजो। उन्होंने ऐसे बोला मानो अपनी बातों से मेरा दिमाग मांज दिया हो कि मुझे ये सवाल नहीं पूछना चाहिए।

बच्चे की नानी के घर से प्रेशर कुकर जरूर आया है...लेकिन वो खाली नहीं..बल्कि भर-भर कर आलस भरकर आया है..जो बच्चे की मां में समा गया है...वह दो घंटे में बटलोई में दाल पकाती है..लेकिन कुकर को सहेज कर रखी है..शायद इस उम्मीद में कि सारनाथ से एक दिन म्यूजियम वाले आएंगे और उसके कुकर को उठा कर ले जाएंगे।

सोमवार, 23 मार्च 2015

लड़ाई ‘लाइव’



रात का समय है। मुझे नींद नहीं आ रही है। इस समय रात के बारह बजकर तीस मिनट हो रहे हैं। मैं अपने कमरे मे बैठकर दो छिपकलियों की लड़ाई लाइव देख रही हूं। टीवी पर नहीं। ठीक मेरे आंखों के सामने दो छिपकलियां लड़े जा रही हैं...जैसे पड़ोस की शर्माइन और मिश्राइन आंटी लड़ती हैं। इन छिपकलियों की लड़ाई उनसे कमतर नहीं है। 

कल मैंने पेप्सी पीकर खाली बॉटल अपने कमरे के एक कोने में लुढका दी। और ठीक अभी-अभी की बात है..दो छिपकलियां बॉटल के ऊपर बैठने के लिए आपस में एक दूसरे से भिंड रही हैं। उस बॉटल की चौड़ाई इतनी ज्यादा है नहीं कि दोनों एक साथ बैठ सकें। शायद पहले मैं पहले मैं वाली बात को लेकर दोनों लड़ रही हैं। दीवार के ऊपर शंकर भगवान का एक कैलेंडर टंगा है। इसको ओजस आर्ट वालों ने बनाया है। देखने में ऐसा मानो भगवान शंकर छिपकली टाइप किसी चीज से ढके हों। लेकिन ये फोटो वैसी नहीं है जैसी बाजारों में मिलती है..ये फोटो ऐसी है जो बाजारों में शायद अब मिलने लगे। 

हां..तो कैलेंडर का जिक्र करने का मतलब ये था कि एक छिपकली जो कुछ अबला टाइप की है..वह थक हारकर शंकर भगवान के फोटो के पास जाकर बैठी है। जैसे यह कह रही हो कि आज तो सोमवार है...मैंने व्रत काहे लिए रखा...आपने मेरी बॉटल पर बैठने तक की मनोकामना पूरी नहीं की।
जिस समय मैं छिपकलियों के बारे में लिख रही हूं..कैलेंडर के पास बैठी छिपकली दूसरे दीवार की तरफ जा रही है। देखना यह है कि वह दीवार का भ्रमण करती है या फिर बॉटल पर बैठने की पुरजोर कोशिश करती है।

अरे ये क्या....

ये तो दीवार पर टंगे शीशे पर जाकर चिपक गई। शीशे में अपना चेहरा देख रही है क्या। वैसे कहा जाता है कि आधी रात को शीशे में अपना चेहरा नहीं देखना चाहिए। लेकिन इसको क्या फर्क पड़ने वाला..ये तो छिपकली है।
वैसे एक और बात कही जाती है.........कि नींद ना आए तो कुछ पढ़ना या लिखना चाहिए...उससे तो नींद आ ही जाती है....
अब क्या कहूं...सच में...अब तो जोर की नींद आ रही है। इन लोगों की लड़ाई भी खत्म हो गई। एक छिपकली बॉटल पर तो दूसरी शीशे पर बैठी है। और मैं...मैं अपने बेड पर बैठी तो हूं...लेकिन अब लुढकने जा रही हूं।
शुभ रात

रविवार, 22 मार्च 2015

अपनी तरह रहा जाए!!

सुनो..मैने एक फीमेल टीचर का जुगाड़ कर दिया है। कल से वो तुम्हें तुम्हारे घर पर इंग्लिश और मैथ्स पढ़ाने जाएंगी।
-यार उन्हें घर पर मत भेजो।
क्यों...क्या दिक्कत है?
-मेरा मकानमालिक उन्हें यहां आने नहीं देगा।
मकान मालिक को बोल देना फीमेल टीचर है..शिक्षक नहीं शिक्षिका है।
-मकानमालिक अपने गेस्टरुम में किराएदारों के जान-पहचान वालों को बैठने नहीं देता..घर में और कोई जगह नहीं है जहां बैठकर पढ़ा जा सके।
ज्यादा बहानेबाजी मत कर..पढ़ने वाले ना सड़क पर भी खड़े होकर पढ़ लेते हैं। तू एक काम कर उन्हें अपने कमरे में ही बिठा कर पढ़ लेना।
-यार एक ही तो छोटा सा कमरा है..जिसमें सोना, खाना बनाना सब करना पड़ता है। सामान भी बिखरा रहता है। इतनी मॉड टीचर ऐसे कमरे में बैठ कर कैसे पढ़ा पाएगी?
हां हां...पता है...तेरे कपड़े, लैपटाप, चार्जर, किताबें सब बेड पर फेंके होते हैं...एक जोड़ी जूते इधर तो दो जोड़ी सैंडिल उधर फेंके होते हैं। चार दिन के जूठे बर्तन पड़े होते हैं। प्याज के छिलके कमरे में उड़ रहे होते हैं?
-तुमने कब देखा..मैं कैसे रहती हूं?
देखा नहीं फिर भी कह सकता हूं...तू ऐसे ही रहती है। सब समेटना सीख। और सुन लड़कों की तरह नहीं लड़कियों की तरह रहा कर।

शनिवार, 21 मार्च 2015

उस भीड़ में सिर्फ वही चिल्लाने वाला निकला



टैक्सी कैंट से मुगलसराय के लिए जा रही थी। ड्राइवर ने यात्रियों को जितना जल्दी चलने का आश्वासन देकर टैक्सी में बिठाया, बाद में उतना ही झेलाया। एक आदमी काला चादर ओढे हुए आया और टैक्सी में बैठ गया। देखने में उस टैक्सी ड्राइवर के भाई माफिक लगता था। लेकिन ड्राइवर होश में था जबकि टैक्सी में बैठा आदमी नशे में। सबसे बड़ी बात यह थी कि वह ड्राइवर का भाई नहीं था..महज एक यात्री था।

यात्रियों के हो-हल्ला के बाद ड्राइवर ने टैक्सी स्टार्ट की। लेकिन कैंट से चलकर चौकाघाट पर ही रोक दिया। सभी यात्री परेशान। किसी को मुगलसराय से ट्रेन पकड़नी थी तो किसी को अपने काम पर जाने की जल्दी थी। सभी लोग ड्राइवर को जल्दी चलने के लिए बोल रहे थे। लेकिन वो किसी की न सुनता। कुछ दूर चलकर पान खाने के लिए टैक्सी रोक देता तो कहीं चाय पीने के लिए।

वह आदमी जो काला चादर लपेटे नशे में बैठा था..वह भी काफी उकता गया और टैक्सी में ही आंदोलन छेड़ दिया। उसने सभी यात्रियों से बारी-बारी से पूछा कि किसको कहां तक जाना है...इसके बाद ड्राइवर को सुनाते हुए जोर से बोला..फलाने भाई आप जहां उतरना दस रुपये कम किराया देना..बहन जी आप जहां उतरना आप भी पूरा किराया मत देना।

उसकी यह बातें सुनकर ड्राइवर के सीने में आग धधकने लगी और वह गाड़ी की रफ्तार को तेज कर दिया मानो अब सीधे जाकर मुगलसराय के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर ही रोकेगा। 

नशे में धुत वह आदमी मन ही मन मुस्कुरा रहा था जैसे उसने नशे में होने के बाद भी कोई नेकी वाला काम कर दिया हो।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

चलती ट्रेन और गोभी का अचार...

मेरी ट्रेन तुम्हारे शहर से होकर गुजरेगी। कुछ चहिए तो बता देना घर से लेते आऊंगा...हां.. तुम्हें जहमत इतना भर उठाना पड़ेगा कि स्टेशन पर आना होगा...वो भी बिल्कुल समय पर या समय से पहले...ट्रेन उस स्टेशन पर सिर्फ दो मिनट ही रूकती है।

रात को उससे बात करते हुए यह तय हुआ कि वो घर से गोभी का अचार लाएगा...और मैं समय से पहले स्टेशन पर पहुंच जाऊंगी।

लेकिन अगली सुबह ठंड ने ऐसे दबोचे रखा कि मेरी नींद ही नहीं खुली....कई बार उसका फोन आया...और मैं यह सोचकर फोन नहीं उठा सकी कि चलो..अचार ही तो है..अगर समय पर स्टेशन नहीं पहुंच पाई तो वह अचार लेकर चला जाएगा..थोड़ा नाराज भी होगा...लेकिन इतनी भारी चीज तो है नहीं...अगर मैं नहीं ले सकी तो उसके काम आ जाएगा

खैर...उसकी ट्रेन लेट थी...और मेरे उठने का समय भी हो चुका था.... लेकिन जब मैंने उसे फोन किया तो वह काशी (सिटी स्टेशन) तक पहुंच चुका था। अगला स्टेशन कैंट था...ट्रेन वहां दस मिनट रुकने वाली थी...इसके बाद मडुआडीह स्टेशन..जहां मुझे जाकर अचार लेना था...

मेरे घर से निकलने तक वह कैंट स्टेशन पहुंच चुका था.... और मैं मडुआडीह क्रासिंग पर भयंकर जाम में फंस गई। मैं उसे फोन पर सिर्फ एक ही बात कहती रही..अगर मैं समय पर नहीं पहुंच पायी..तो तुम ट्रेन से उतर जाना...अगली ट्रेन पकड़ कर चले जाना... लेकिन अचार देकर जाना....

मैं पैंतालिस मिनट तक जाम में फंसी रही...और उसकी ट्रेन कहीं आउटर पर खड़ी रही। फिर भी मन में यह आशंका जरूर थी कि मैं समय पर स्टेशन नहीं पहुंच पाउंगी....अब तक मैं अचार के भयंकर मोह में जकड़ चुकी थी।
जाम में अन्य गाड़ियों से टकराते हुए रिक्शे वाले ने जाने कैसे-कैसे रिक्शा निकाला...औऱ उसैन वोल्ट वाली रफ्तार से रिक्शा दौड़ाकर मुझे तीन मिनट के अंदर स्टेशन पर पहुंचा दिया।

लेकिन हाय राम...ट्रेन का वहां कुछ अता-पता नहीं था...कोई अनाउंसमेंट नहीं...ना जाने निकल गई या आने वाली है....कुछ पता नहीं चल रहा था।
मैंने फोन किया तो उसने बताया कि उसकी ट्रेन निकल चुकी है...थोड़ी ही देर में पहुंच जाएगी। मैं प्लेटफार्म नंबर दो पर पहुंच गई...कुछ देर बाद उसकी ट्रेन रुकी...और वह हीरो की तरह एक थैला हाथ में लिए उतरा....उसने मुझे थैला पकड़ाया ही था कि ट्रेन के जाने का सिग्नल हो गया और वह चला गया।

गोभी का अचार खाने के लिए दिन में दो बार खाना खाने लगी...और चार दिन के भीतर सिर्फ खाली डिब्बा बचा..अचार खतम हो चुका था।


कभी-कभी दोस्त शहर से गुजरते हुए अचार का थैला पकड़ा जाते हैं.... चार दिन तक चाटने के बाद अचार भले ही खत्म हो जाए...लेकिन सुगंध दिमाग में रोज बनी रहती है....खाली डिब्बा जो पड़ा है घर में..