बुधवार, 14 अगस्त 2013

हंसती हूं..बस हंसती हूं मैं...




मुझे लिखना-पढ़ना देखना-सुनना कुछ भी नहीं आता, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि कुछ भी नहीं आता। आता है न मुझे दूसरों से कहीं ज्यादा-हंसना। मेरी मां औऱ सहेलियां कहती हैं तुम्हारी ये हंसी ये मुस्कुराहट बहुत प्यारी है। लेकिन ये तो मां औऱ सहेलियों की बाते हैं। जमाना मेरी हंसी पर तो सवाल करता है-तुम इतना जो मुस्कुरा रही हो, क्या गम है जिसको छुपा रही हो?...मैं किसी के भी सवालों का जवाब नहीं देती, मुझे तो हंसना आता है बस हंसना। मैं हंसमुख तो बिल्कुल भी नहीं हूं लेकिन मैं हंसती हूं बहुत हंसती हूं। जमाना भी क्या मौजूं चीज है हर वक्त जानता है आपको आपसे ज्यादा। जब जमाने ने सवाल किया तो मैने उसे नहीं बताया। लेकिन आज बताना पड़ रहा है, जमाने को नहीं बल्कि उसे जो उसकी जगह आया है या यूं कहें उसके बाद आया है मुद्दतों बाद। उसे तो मैंने किसी दूसरे शब्दों में बताया लेकिन ख़ैर जब बता ही दिया है तो जमाने को भी बता ही देती हूं कैफ़ी आज़मी जी से उनकी एक  रचना उधार लेकरः-

इतना  तो ज़िन्दगी में किसी  की ख़लल पड़े
हंसने से हो ना सुकून ना रोने से कल पड़े
जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के अश्क-ए-गम
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े
मुद्दत के बाद उसने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी खुश तो हो गया मगर आंसू निकल पड़े
साकी सभी को है ग़म-ए-तश्नालवी मगर
मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े

(एक लड़की से फोन पर की गयी बातचीत का अंश)

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