शनिवार, 29 दिसंबर 2012
शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012
एक रूपए दे दो भईया...
तेज बुखार ने मुझे ऐसे चपेट मे लिया कि एक हफ्ते तक मैं बिस्तर
से उठ ना सकी …जब बुखार उतरा और मैं कुछ अच्छा महसूस होने लगा तो मेरा घर से बाहर कहीं
घूमने और कुछ खाने का मन हुआ…
मैनें बड़े भाई को फोन लगाया..और कहीं घूमने चलनें को
बोला…पहले तो उन्होंने मुझे डांटा और मना कर दिया…लेकिन काफी मनौती और मेरी बुखार वाली दास्तां सुनकर उन्होंने
चलने के लिए हामी भर दी…
इलाहाबाद में रहते हुए मुझे एक साल हो गए थे लेकिन मै अभी तक
नैनी ब्रिज नहीं देखी थी------इसलिए हम नैनी गए…नैनी का कैंटोंमेंट एरिया जवानों की
चौकड़ी है…साफ सुथरी चौड़ी और ऊंची सड़कें.. दोनों तरफ घने पेड़ -पौधे…बगल में बहती
गंगा नदी…उसको सलाम करता नैनी ब्रिज ..हनुमान जी का छोटा सा मंदिर और बड़ी सी भीड़…बंदर
लंगूर..भांति-भांति के पक्षी…अद्भुत नजारा था…ऐसा लग रहा था कि मैं घर मे टंगी कोई
सिनरी देख रही हू…जिसमें ये सारे नजारे मुझे एक साथ दिख रहे हैं….
नौजवान लड़के-लड़कियां
एक दूसरे का हाथ पकड़े टहल रहे थे…..कुछ लोगों की भीड़ मंदिरों मे थी…घुमते-घूमते हमलोगों
ने चिप्स का एक पैकेट खरीदा…और वहीं के एक पार्क में बैठकर खाने लगे…तभी 3-4 लड़के
हमारे बगल से गुजरे..उनमें से एक ने मेरे पर छींटाकसी की…."मैडम मियां जी के साथ मजे
ले रही हैं..और हम तन्हा घूम रहे हैं"….
कसम से इतना सुनते ही दिमाग भन्ना गया….लेकिन
भईया ने मुझे कुछ बोलने नहीं दिया….वे जैसे ही उठे उन लड़कों ने तेज की दौड़ लगाई और
भाग गए….मैने आस-पास देखा कि कई लड़कियां लड़कों के कंधे पर सिर टेके बैठी थी…तब मुझे
लड़कों के छींटाकसी की वजह समझ मे आयी….
शाम हो चली थी और हम हनुमान मंदिर से गुजरते
हुए आगे बढ़ रहे थे…तभी दो छोटी-छोटी लड़कियों ने हमे घेर लिया….हाथ मे कटोरी पकड़े
और सिर खुजलाते हुए रटी जा रही थी…दीदी एक रूपया दे दो…भईया दे दो…बिस्कुट ही दे दो….हमारे
पास उस वक्त बिस्कुट तो था नहीं लेकिन उनको ना जानें कहां दिखा…
.मैनें पर्स खोला लेकिन
मेरे पास फुटकर पैसे नहीं थे…भईया के पास भी खुल्ले नहीं थे….इन लड़कियों ने हमें जकड़
लिया…और मेरे पैर पर मत्था टेककर रिरियाने लगी….."एक रुपया दे दो ….तोहर जोड़ी बनी रही…घर
में सुन्दर ललना आयी…..ललना झुनझुना खेली….खूब पढ़ी और बड़ा होई"…ब्ला ब्ला ब्ला…. उस वक्त भईया के सामने उनकी ऐसी बातें सुनकर मैं
बहुत जोर से हंसी…क्यों कि उन लड़कों की छींटाकसी से हमारा पाला पड़ चुका था…और ये
तो बच्चियां हैं जो सीखाए और रटे-रटाये शब्दों के बाण से हमें छेद रही हैं…एक रुपए
की खातिर…
अपनी बातों पर मुझे हंसते हुए देखकर
उनमें से एक ने कहा…जाने दो दीदी तुम्हारे पास फुटकर पैसे नहीं हैं तो…लेकिन हमारी
एक फोटो ले लो….अम्मा जाती हैं…एक बड्डे से साहब के घर बर्तन माजने…उन्होंने अपनी लड़की
का फ्राक मेरे लिए दिया है..आज वही पहिने हूं….तो हमार फोटो ले लो…..
उनकी बातें सुनकर
ना जाने मुझे किस तरह का दुख हो रहा था…उसे कोई शब्द देकर मैं नहीं बयां कर सकती….मैं उन्हें
दस रुपए दी और वहां से चल दी….लेकिन दिमाग मे उन बच्चियों की खनकती हुई आवाज शोर मचा
रही थी….एक रुपया दे दो दीदी…एक रुपया दे दो भैया…
सोमवार, 24 दिसंबर 2012
यूं आयी याद.....
दिन भर घना कुहरा
कल कुछ ना दिखाई दिया
लेकिन
मेरे मन, मस्तिक पटल पर
चमकती रही तुम उजाले की तरह
रजाई में लेटे
अपलक निहारता रहा
तस्वीर तुम्हारी
और महसूस कर रहा था
हवा की चुभन को
कभी जो हमें छू कर गुजरी थी
सीने से चिपकी है मेरे
आज भी वो गर्माहट
जो तुम्हारे आगोश में आकर मिलती थी
लेकिन
ना जाने कहां से
आंखों से गिरने लगे
पानी के कुछ टुकड़े
जो सारी यादें बहा ले गए
और दीवार पर लगी
तुम्हारी तस्वीर भी
धुंधली पड़ गई
दिन के घने कुहरे की तरह
कल कुछ ना दिखाई दिया
लेकिन
मेरे मन, मस्तिक पटल पर
चमकती रही तुम उजाले की तरह
रजाई में लेटे
अपलक निहारता रहा
तस्वीर तुम्हारी
और महसूस कर रहा था
हवा की चुभन को
कभी जो हमें छू कर गुजरी थी
सीने से चिपकी है मेरे
आज भी वो गर्माहट
जो तुम्हारे आगोश में आकर मिलती थी
लेकिन
ना जाने कहां से
आंखों से गिरने लगे
पानी के कुछ टुकड़े
जो सारी यादें बहा ले गए
और दीवार पर लगी
तुम्हारी तस्वीर भी
धुंधली पड़ गई
दिन के घने कुहरे की तरह
मैं वही मादा हूं......
लड़की नहीं
एक यात्री बनकर
कहीं जाने की खातिर
धक्का मुक्की सहते हुए
बन्द हो जाती हूं मै भी
बस के उस डिब्बे में
सीट पर बैठे पुरूष
हंसते हैं मुझपर
जब मैं हाथ ऊपर कर
कोई सहारा पकड़ खड़ी होती हूं
आता- जाता हर यात्री
मुझे धकियाते हुए
निकल जाता है..
पीछे खड़े कुछ पुरूष
मेरे पास आ जाते हैं
और भीड़ के बहाने
मेरे जिस्म को छूते हैं
कुछ निगाहों से ही
मेरा चीर हरण कर लेते हैं
कुछ चेहरे से अपनें
मुझे प्रलोभन देते हैं
मेरा विवेक ठगा जाता है
लेकिन मैं विवश हूं
कि ना चिल्ला सकती
न लांछन लगा सकती हूं
ऐसे में
कंडक्टर की सीटियां
मेरे कानों को छेद जाती है
जैसे कोई मनचला
सीटी मार रहा हो मुझे
उस वक्त मेरे ह्रदय में
एक पीड़ा सी होती है
और
मैं ये सोचती हूं
सच
मैं कोई यात्री नहीं
इन पुरूषों की भांति
मैं एक लड़की हूं..
मैं वही मादा हूं
जिसके पुरूष भूखे है...
एक यात्री बनकर
कहीं जाने की खातिर
धक्का मुक्की सहते हुए
बन्द हो जाती हूं मै भी
बस के उस डिब्बे में
सीट पर बैठे पुरूष
हंसते हैं मुझपर
जब मैं हाथ ऊपर कर
कोई सहारा पकड़ खड़ी होती हूं
आता- जाता हर यात्री
मुझे धकियाते हुए
निकल जाता है..
पीछे खड़े कुछ पुरूष
मेरे पास आ जाते हैं
और भीड़ के बहाने
मेरे जिस्म को छूते हैं
कुछ निगाहों से ही
मेरा चीर हरण कर लेते हैं
कुछ चेहरे से अपनें
मुझे प्रलोभन देते हैं
मेरा विवेक ठगा जाता है
लेकिन मैं विवश हूं
कि ना चिल्ला सकती
न लांछन लगा सकती हूं
ऐसे में
कंडक्टर की सीटियां
मेरे कानों को छेद जाती है
जैसे कोई मनचला
सीटी मार रहा हो मुझे
उस वक्त मेरे ह्रदय में
एक पीड़ा सी होती है
और
मैं ये सोचती हूं
सच
मैं कोई यात्री नहीं
इन पुरूषों की भांति
मैं एक लड़की हूं..
मैं वही मादा हूं
जिसके पुरूष भूखे है...
रविवार, 23 दिसंबर 2012
बस्ती
रात के अंधेरे में भटकते हुए
कि ये बस्ती तेरे काबिल नहीं
यहां आबरू नीलाम होती है
रात के सन्नाटे में
चीख सुनायी देती हैएक मासूम लड़की की
औरत बन जाती है जो
रात के अन्धेरे में
कुत्ते नोचते हैं यहां
उस नन्हे मासूम को
छोड़ जाती है एक मां
लोक लाज के मारे जिसे
दिल के किवाड़ यहां नहीं खुलते
कि
सूली पर चढ़ा
दी जाती हैपिता की वो फूल सी गुड़िया
जो भर नही पायी
किसी का घर पैसों से
नम हो जाते हैं
जानवरों के आंख भी यहां
जानते हैं जो, अफसाने इस बस्ती के
यहां औरत के सपने
उसकी आंखों मे मरते है
और सांसो का कोई ठिकाना नहीं रहता
रात के अंधेरे में भटकते हुए
मेरी बस्ती ना आना ऐ चांद
कि ये बस्ती तेरे काबिल नहीं
शनिवार, 22 दिसंबर 2012
परिचय
आटे की तरह
रिश्तों में सनी औरत
मर्द जिसका लोई बनाकर
समाज के तवे पर सेंकता है
पूड़ी कचौड़ी की भांति
जरुरत और सुविधा के मुताबिक
औरत इंसान नहीं है
उसका तो परिचय ही
मां-बहन और बीबी है
साड़ी गहने और परिवार
में उलझी औरत
सारा जीवन देखती है
बस एक ही मंजर
और इन्हीं के नाम का रंग चढ़ाकर
गुजार देती है जीवन अपना
सिर्फ एक ही परिचय से
अन्ततः मां-बहन और बीबी बनकर...
रिश्तों में सनी औरत
मर्द जिसका लोई बनाकर
समाज के तवे पर सेंकता है
पूड़ी कचौड़ी की भांति
जरुरत और सुविधा के मुताबिक
औरत इंसान नहीं है
उसका तो परिचय ही
मां-बहन और बीबी है
साड़ी गहने और परिवार
में उलझी औरत
सारा जीवन देखती है
बस एक ही मंजर
और इन्हीं के नाम का रंग चढ़ाकर
गुजार देती है जीवन अपना
सिर्फ एक ही परिचय से
अन्ततः मां-बहन और बीबी बनकर...
सोमवार, 17 दिसंबर 2012
भाईयों के राज में बहनों की इज्जत
दिल्ली में चलती बस में एक लड़की के साथ गैंग रेप किया गया…इतने
से जी नहीं भरा तो उसे बेरहमी से पीटा गया और बस से नीचे फेंक दिया गया…. इस कुकृत्य में शामिल दरिंदे कोई
और नहीं बल्कि स्कूल के कुछ कर्मचारी थे …मन में आ रहा हैं चिल्लाऊं…..इस बात को हजार
ढ़ंग से कहूं… सवाल करूं…..लेकिन एक ढंग से भी दिल का दर्द बयां नहीं हो पा रहा है…जिगर
में आग लगी है,.. त्राहि-त्राहि मची है
गुवाहाटी में बीच सड़क पर सरेआम लड़की के कपड़े उतारे गए…बलात्कार
किया गया और उसे पीटा भी गया…. … छोटी बच्चियों को भी नही बख्सा जा रहा है…उनको स्कूल
छोड़ने वाला ड्राइवर इनके साथ दुष्कर्म कर रहा है ..कालेज जाने वाली लड़कियों के साथ
उन्हीं के दोस्त साथी रेप करके उनका एमएमएस
बना कर दोस्तों में बांट रहे हैं….क्या महसूस करता है वह पुरुष जो बलात्कार की शिकार
हुई लड़की का बाप है…भाई है…और क्या सोचता है उस दरिंदे पुरुष के बारे में जो लड़की
को कहीं का नहीं छोड़ता …..क्या सोचता है एक पुरुष पत्रकार जो इस घटना को कलम करता
है और क्या खलबली मचती है उस पुरूष पाठक में जो इस घटना को पढ़ता है…. कोई बताए….
औरत को मर्द की मां बहन बेटी के रूप मे विराजकर अपने लिए
सुविधा क्यों वसूल करनी पड़ रही है। मां की कोख से पैदा होकर भाभी दीदी बुआ के बीच
पलकर भी औरत का मान इमान मर्द की समझ से कोसों दूर रह गया है…सुना है मर्द औरत को जानने
समझने के लिए किताबे पढ़ते हैं
कहीं किताबें तो बलात्कार करने के लिए उत्तेजित नहीं कर रही
???…….
.क्या हम वही हैं जो कहते हैं “बेटी बचाओ” और बुलंद आवाज
में नारा लगाते हुए लोगों मे जागरुकता फैलाते हैं…..या फिर हम वो हैं जो कन्या भ्रूण
हत्या में अपनी भागीदारी देते हैं केवल इस डर से कि अगर लड़की पैदा हुई तो कल को जवान
होगी, बाहर निकलेगी दुनिया देखेगी..और इसी दुनिया के मर्द उसे अपने हवस का शिकार बनायेंगे…..
घर
में अपने मां बहन जैसी औरत के दर्द से बेखबर मर्द जब घर से बाहर सड़क पर चलता है तो
क्या हर लड़की उसे अपनी बीबी या रखैल नजर आती है….हम बस, गाड़ी मे यात्रा करते हुए
भी परूषों के छुअन से बच नहीं पाते हैं…
पिछले महिने हरियाणा मे बलात्कार पर बलात्कार हो रहा था…अखबारों
में घटनायें छप रहीं थी …बेटी का बाप शर्म के मारे आत्महत्या कर ले रहा था…..हरियाणा
के मुख्यमंत्री लोगों को सुझाव बांट रहे थे कि बलात्कार से बचाने के लिए कम उम्र मे
ही वहां के लड़कियों की शादी कर दी जाय….
हरियाणा राज्य को चलाने वाले मुख्यमंत्री के
पास एक पुरुष होने के नाते क्या बस यही एक
सुझाव बचा था जनता में मुफ्त में बांटने के लिए…लड़की के ब्याह कर किसी एक पुरुष की
निजी संपत्ति घोषित कर देने से क्या समाज मे मुंह बाये घूमने वाले दरिंदे औरत को बाहर निकलने पर मां-बहन के निगाह
से देखने का लाइसेंस प्रदान कर देगें…..
औरत के जीवन के सारे फैसले सुनाने वाला पुरुष
प्रधान देश ही बताए क्या छोटी उमर में शादी करनें से यह कुकृत्य रुक जाएगा…तो लाखों
वेदनाओं को अपने सीने में दबा लेने वाली औरत यह कुर्बानी देने को भी तैयार है... औरत
के दिल में मर्दों की प्रताड़ना के सारे कंकड़
पत्थर जमा हैं जो दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं…औरत
के सीने में ये हिल-डुल रहे हैं जो एक दिन हाहाकार के सुर जरुर छेडेंगे…..
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