बुधवार, 4 सितंबर 2013

वाह रे सुमित्रा....


टमाटर और बैगन तो तुम्हारे घर में भी था सुमित्रा, फिर बड़ी भाभी पर तुमने मुंह क्यों फुलाया कि उन्होने तुम्हे कटोरी में भरकर चोखा नहीं दिया। जब हम लोग उनसे अलग रह रहे हैं तो वो हर वक्त क्यों अपनी बनायी चीजें हमारे घर भेंजती रहें?

तुम हाथ पैर चलाने की जहमत उठाती सुमित्रा तो हमारे भी घर के सारे काम समय पर होते। लेकिन तुम्हे तो टीवी सीरियल्स देखने से फुर्सत ही कहां है। सालों पहले एकता कपूर नें तुमको बिगाड़ा औऱ अब जिसके बनाए सीरियल्स तुम देखती हो मुझे तो उनके नाम भी नहीं मालूम और शायद तुम्हें भी नहीं। 

तुमने एक दिन “एकता डायन” (एक थी डायन) दिखाने का फ़रमान ज़ारी किया, मैनें सोचा चलो तुम्हें एकता की बनायीं फिल्में ही दिखा लाता हूं, लेकिन ये तो जेब पर भारी पड़ेगा न सुमित्रा क्योंकि उसकी फिल्में तो अब आती ही रहेंगी, तुम टीवी पर आने का इंतजार करो। मुझे यह ना पता था उसके बनाए सीरियल्स की तरह तुम उसके फिल्मों की भी दीवानी हो जाओगी।

रात में तुम कलर्स पर ‘बालिका’ वधू देखती हो, जी टीवी पर ‘सपने सुहाने..’ देखती हो स्टार प्लस पर ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ देखती हो, और बाकी के छूटे हुए सीरियल्स दिन भर चैनल बदल-बदल कर देखती हो। तुम्हारे इस देखा देखी के चक्कर में एक दिन जब मैं ऑफिस से दोपहर लंच करने घर आया औऱ काफी देर तक डोर बेल बजाने के बाद भी तुमने दरवाजा न खोला तो मैं किसी तरह बालकनी के सहारे घर में घुसा। चूंकि तुम्हारे साथ कोई हादसा नहीं हुआ था लेकिन उस वक्त मुझे यह जानकर गहरा सदमा लगा कि अब तुम्हें कान फोड़ने वाली आवाज भी मद्धिम सुनायी देने लगी है। अगले दिन मैने अपनी जेब की तरफ ताकते हुए तुम्हारे कानों में सुनने वाली मशीन लगवायी ताकि तुम सास बहू के झगड़े के साथ मेरी भी आवाज सुन सको।

तुम एक ही दिन पसेरी भर आटा गूथ कर प्लास्टिक के डिब्बे में ढ़ूंस कर फ्रिज में रख देती हो और जब मैं लंच करने आता हूं तो तुम टीवी पर औरतों की नौटंकी देखते हुए जल्दी-जल्दी दो रोटी बनाकर मेरी थाली में फेंक देती हो, मैं भी जल्दी जल्दी लीलता हूं और फिर ऑफिस भाग जाता हूं।
तुम्हें घर के काम करने में आसानी हो इसलिए मैं सब्जी काटने की मशीन लाया, फिर गोभी और आलू के पराठे बनाने औऱ सेंकने की मशीन लेकर आया। ताजे गूथे आटे की रोटियां खाने के लिए आटा गूंथने की मशीन लाया, सलाद काटने की मशीन लाया लेकिन सुमित्रा मशीनों को तुम छूओगी तभी तो उसमें जान आएगी। इतने से काम नहीं बना तो तु्म्हारी फ़रमाइश पर मैं इंडक्शन भी ले आया जब कि हर महिने गैस सिलेंडर आसानी से उपलब्ध हो जाता था।

 तुम्हें आराम देने के चक्कर में घर में खाना बनाने के प्रयोग आने वाली इतनी मशीनें इकट्ठा हो गयी हैं कि एक एक को बेचना शुरु करुं तो महिने का खर्चा निकल आए। लेकिन मजबूर हूं सुमित्रा।

तुम सुबह सुबह ही टीवी खोल के बैठ जाती हूं, ऑफिस जाने के लिए तैयार होते वक्त पूछता हूं मेरी रुमाल कहां गायब कर दी तुमने..तब एक भी हर्फ़ खर्च किए बिना तुम उंगली से इशारा करती हो, रुमाल ना मिलने पर एक बार मैं दोबारा पूछने की गलती कर गया, इतने में टीवी पर अक्षरा की सास उसको कुछ कह गयी, तुम्हारा ध्यान भटक गया और तुम मेरा बुद्धि लब्धि परीक्षण लेने लगी कि बताओ अभी अक्षरा की सास ने क्या कहा? जो हम दोनो ही नहीं सुन पाए थे उस रुमाल के चक्कर में।
तुम जिस भाषा में कहो उस भाषा में बोल कर मैं तुमसे विनती करता हूं कि टीवी देखने औऱ सोने से फुर्सत मिले तो कुछ हाथ पैर भी हिला-डुला लिया करो सुमित्रा…तुम ऐसी मेहरबानी करोगी तो हमारे घर भी चोखा बनेगा सुमित्रा।

रविवार, 1 सितंबर 2013

एक गांव का चिंतित ग्राम प्रधान....


मुझे अच्छी तरह याद है तीन-चार साल पहले वे अख़बार के पन्ने में आंख गड़ाए कहा करते थे, लूट  थे, रिश्ते में हमारे भईया लगते थे और हमारे पडोस में उनका घर था।
 हमारे घर आकर घण्टों कुर्सी तोड़ते औऱ घर के सारे पढ़ने लिखने वाले बच्चों को ऊबाउ ज्ञान देते जिसे सुनना हम सबकी मजबूरी होती थी।
गांव के प्रधानी के चुनाव में में दो बार हाथ-पैर मारे थे औऱ शिकस्त खाकर गिरे भी थे, लेकिन ये हौसला कैसे रुके की तर्ज पर अगला चुनाव लड़ने की तैयारी पर थे। प्रधानी के चुनाव मे जिस आदमी से इनका मुकाबला होता था उसने पच्चीस सालों से प्रधानी की कमान किसी औऱ के हाथों में न आने दी थी। उसके पिताजी दो बार प्रधान रहे, माता जी एक बार, पत्नी जी एक बार औऱ वो खुद एक बार।
लेकिन उस साल किस्मत ने भईया जी का साथ दिया औऱ पच्चीस सालों से जीतते आए उश परिवार  औंधे मुंह गिराते हुए वो प्रधानी का चुनाव जीत गए ( जिनका कि अब प्रधानी का अंतिम साल चल रहा है)। प्रधानी का चुनाव जीतते ही जाति बिरादरी में या हो सकता है पूरे गांव में खुशी की लहर दौड़ गयी। एक ऐसी खुशी कि जिनमें गांव के सातवीं-आठवी के बच्चे भी बैड बाजा पर दारु पीकर बनियान फाड़ू नाच नाचे थे और बच्चों के पिताजी ने इस पर चूं तक न की थी।
जहां मनुष्यों में खुशी की लहर दौड़ गई थी वहीं जानवरों की शामत आ गई थी। खुशी के इस मौके पर बकरों की बलि दी गयी तो कुछ अन्य जानवरों का पूंछ औऱ कान काट कर काली मईया के नाम पर छोडा गया। नए प्रधान जी बैड बाजे के साथ गांव के एक एक घर में जाकर बड़ों का पैर छूकर अपने सिर पर हाथ रखवाया जिसके वीडियो रिकार्डिंग की सीडी कैसेट लोग एक दूसरे से मांग कर महिनों तक देखते रहे।
वोट मांगते वक्त गांव वालों से जो वादे किए गए थे, अब उसे निभाने की बारी थी। शुरुआत कुछ ऐसे हुई कि प्रधान ने प्रधानी के पैसे से सर्वप्रथम रामनगर में अपने लिए ज़मीन खरीदी। प्रधान के एक दो खास आदमी के अलावा इस बात की भनक गांव के किसी व्यक्ति को न लगी।
एक सुबह गली मे भीड़ लगी रही, पता चला प्रधान जी गली के खड़ंजे को उखडवाकर पक्की गलियां औऱ पानी के निकास के लिए भी कुछ आधुनिक ढंग से नालियां बनवाने जा रहे हैं ।गली में बिझे ईटों को उखाड़ दिया गया। गांव के लोग खुश थे कि सही प्रधान चुना है हमलोगों ने, बहुत जल्दी ही गांव के विकास का काम शुरु हो गया। गली बनाने के काम में लगे मजदूर निपिर-निपिर करते रहे, इस वजह से कि उनको समय पर मजदूरी नहीं मिलती। इसी बीच प्रधान ने नयी इनोवा खरीद ली।
गली बनाने का काम ऐसे चला कि बरसात का मौसम आ गया और आए दिन गली बरसात के पानी में डूब जती। अपनी प्रधानी के अब तक के काल में प्रधान ने सिर्फ गलियां बनवायी है वो भी लोगों की गालियां खा- खाकर। अब अपनी प्रधानी के अंतिम साल में प्रधान ने हाईस्कूल में पढ़ने वाली  अपनी लड़की को स्कूटी औऱ एक मोबाइल, सातवीं में पढ़ने वाले लड़के को एक पल्सर और एक मोबाइल तथा चौथी में पढ़ने वाले लड़के को एक रेंजर दिलवायी है।
घर में खेती के लिए ट्रैक्टर, बच्चों के लिए कंप्यूटर, बीबी के लिए वॅाशिंग मशीन, एल सीडी टेलिविजन, ठण्डे पानी के लिए फ्रिज इत्यादि व्यवस्था की है। प्रधान की इन सब सुख-सुविधाओं को देखते हुए कुछ साल पहले चिन्तित स्वर में उन्ही की कही बात याद आती है-देश में लूट मची है, लोगों को अपनी जेब भरने से फुर्सत नहीं है।

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

जब दादी बाइक पर बैठीं....



पिताजी को उनकी शादी में एक साइकिल औऱ रेडियो दहेज में मिला था। दादी बहुत खुश थीं। गंगा मईया को आऱ-पार का माला चढ़ाईं, और पीहर जाकर पापा की नानी को धोती पहनाई।
पिताजी की शादी से पहले घर में साइकिल नहीं थी। कहीं आने जाने के लिए बैलगाड़ी या इक्का का सहारा लिया जाता था। दादा जी लजाधुर थे औऱ दादी को अपने साथ लेकर बाहर निकलने में “जोरू का गुलाम” वाला ठप्पा लगवाने से डरते थे।
कहीं आने जाने के लिए दादी भोर में ही एक गठरीनुमा झोले में सामान रखकर घर से निकल जाती थीं..चलते-चलते जब सूर्योदय होता तो दादी बाकी की दूरी तय करने के लिए बैलगाड़ी या इक्के पर बैठ जाती थी। जब दादा जी लजाधुर प्रवृत्ति के निकले तो दादी को उनके मायके पहुंचाने का सवाल ही नहीं था। तब यह जिम्मा दादी के देवर को सौपा जाता, आधा रास्ता पैदल औऱ आधा बैलगाड़ी से चलकर दादी मायके पहुंचतीं थी।
तो…इतना कष्ट झेलने के बाद जिसके लड़के को दहेज में साइकिल मिली हो उसका खुश होना लाजमी था। दहेज में मिली साइकिल देखकर दादी को हमेशा सपने आते कि वो अपने गठरीनुमा झोले को लेकर साइकिल के पीछे की सीट पर बैठ हरे खेतों के बीच से गुजरे रास्ते और पुरुआ हवाओं को झेलते हुए  कभी अपने मायके तो कभी मेला-ठेला देखने जा रही हैं।
लेकिन दादी की सास ने उनका सपना यह कहकर पूरा नहीं होने दिया कि घर की बहू, जो सब दिन भोर में निकल कर पैदल यात्रा करी हो, वो साइकिल पर जाएगी तो लोग देखेंगे। औऱ दादा जी ने पिताजी की काबिलियत पर यह कहते हुए बट्टा लगा दिया कि कहीं गिरा-परा दिया तो लेनी की देनी पड़ जाएगी।
दादी को अपनी सास के बातों से कष्ट तो हुआ लेकिन उन्होंने ये नही कहा कि सास ने सांस लेना दूभर कर दिया है। दादी ने फिर कभी साइकिल पर बैठने की इच्छा नहीं जताई।
दादी की सास जब सकुशल भगवान के पास पहुंची तब दादी की खुद की एक उम्र हो गयी थी, जिसे दुनिया बुढ़ापे के नाम से जानती है।  उस वक्त हम भाई-बहन भी लुढ़ककर धरती पर आ गए थे, और दादी से “मछली जल की रानी है” सीख रहे थे। उससे ज्यादा खुशी की बात यह थी कि घर में बाइक आ गयी थी।
हम भाई-बहनों के बड़े होने तक घर में एक दो बार पुरानी बाइक बेंच कर नयी भी आयी। इसके साथ ही दादी अपने उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गयीं थी जहां पैदल तो दूर ऑटो औऱ बस के ठेलम -ठेल में  सफर करने में दादी की सांसे फूलने लगती। अब तो कहीं आने जाने के लिए घर की गाड़ी बाइक पर दादी का बैठना जरुरी हो गया था।
पिताजी बाइक लेकर गली में खड़े थे, दादी घर मे चप्पल पहन रहीं थी और और अब तक चलते आ दहेज के रेडियो पर बज रहा था-मेरे दिल ने जो मांगा मिल गया, मैने जो कुछ भी चाहा मिल गया…..। दादी “दो चक्का” से अपने मायके जाने को तैयार थी, पिताजी उन्हे छोड़ने जा रहे थे।
लेकिन ये क्या…जब बैठने की बारी आयी तो दादी बाइक पर दोनो तरफ पैर लटका कर बैठी..ये कहते हुए कि कहीं गिर-पर गए तो समय से पहले ही तुम लोग पूड़ी खा लोगे। सबकोई हंसने लगा और बाइक गली से आगे निकल गई।
अब एक बार बाइक पर बैठने के बाद दादी किसी औऱत को बाइक पर बैठते हुए बड़े ध्यान से देखती औऱ इस तरह देखते हुए उन्हे यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि औऱते बाइक पर दोनो साइड पैर लटका कर नहीं बल्कि एक ही तरफ दोनो पैर करके बैठती है।
अगली बार दादी ठीक वैसे ही बैठीं, बाकी औऱतों की तरह, दोनो पैर एक तरफ लटका कर। इस बार वो भाई के साथ कहीं जा रहीं थी। जैसे ही बाइक चली दादी का चप्पल उनका साथ छोड़कर गिर गया औऱ दादी चिल्लाने लगीं मानों चलती बाईक से चप्पल उठाने के लिए वो कोई भी स्टंट करने को तैयार थी। इस घटना से प्राप्त अनुभव को उन्होंने सहेज कर रखा है।  औऱ अब बाइक पर बैठते वक्त अपने दोनों पैरों का चप्पल निकाल कर बाइक की डिग्गी में रख लेती हैं। औऱ चश्मे वाली आंख से नजारा देखते हुए मायके पहुंचती हैं।

रविवार, 18 अगस्त 2013

शौक धरा का धरा रह गया....



बचपन मे जब कभी दादी या मम्मी के साथ किसी के घर शादी ब्याह में जाती तो देखती औरतें ढ़ोलक बजाते हुए ब्याह के मंगल गीत गाती थीं। ढोलक की थाप कहीं औऱ तो गाना कहीं औऱ भागता, अच्छे खासे गीत का सत्यानाश हो जाता। अन्त में औरतें ढोलक बजाना बन्द करवा देतीं औऱ तेज आवाज में कोरस गातीं। हालांकि ढोलक बजाने वाली औऱत ढोलक वाली चाची के नाम से जानी जाती थी, इससे यह पता चलता था कि ये ढोलक बजाती हैं लेकिन कैसा बजाती हैं ये उनकी कला का प्रदर्शन देखने के बाद पता चलता था। उस वक्त मैं सोचती कि काश मुझे ढोलक बजाने आता तो मंगल गीत आज रात परवान चढ़ जाता। 
    
यह खयाल हमेशा मेरे दिमाग में रहता कि शादी ब्याह में अच्छा ढोलक बजाने वाली औरतें काफी मुश्किल से मिलती हैं। औऱ इसी ख्याल से जूझते हुए मैने कभी मौका मिलने पर ढोलक सीखने की सोची।

 अबकी गर्मी की छुट्टियों में मैनें ढोलक सीखनें का मन बनाया । सोच सोच के मन प्रफुल्लित हो रहा था कि जब मुझे ढोलक बजाने आ जाएगा तब गांव जाने पर मुहल्ले की औरतें शादियों में मुझसे ढोलक बजवायेंगी और मेरा भाव बढ़ जाएगा। ढोलक सीखने की सोचकर मैं खुशी के मारे फूले नहीं समा रही थी । 

सोचा फोन करके एक बार मम्मी से पूछ लूं। मैने मां को फोन करके बताया कि मैं ढोलक सीखने जा रही हूं। इतना सुनते ही मां तपाक से बोलीं- अच्छा!! तो शादी करने का मूड बन गया? मैं गुस्सा हो गयी और बोली, आप तो कुछ भी बोलती रहती हैं। अरे, शौक है मेरा कि मुझे ढोलक बजाना आए। हर जगह जरुरत पड़ती है, खासकर शादी ब्याह वाले घरों में।

 मां एकदम से बिगड़ गयीं औऱ बोली – लप्पड़ लगेगा बेटा, चुपचाप पढ़ाई करो, ज्यादा इधर उधर की चीजों पर ध्यान ना दो। बड़ा शौक चर्राया है ढोलक सीखने का। होली दिवाली में गली-गली ढोलक बजाकर मनोज तिवारी के गाने गाते हुए त्योहारी मांगोगी क्या। सिलाई कढाई सीखने को कह दो तो मुंह से इनके आवाज ही नहीं निकलती। चलीं हैं ढोलक सीखने। ऐसी चीजे सीखो जो भविष्य में काम आए।
अब मैने जिद्द में पीएचडी तो कि नहीं थी कि मैं मां को मना लूं। लेकिन अपनी तरफ से हर संभव कोशिश करने के बाद भी मां नहीं मानी। इस तरह ढोलक सीखने का मेरा यह शौक धरा का धरा रह गया। अब सोचती हूं, ढोलक सीखकर क्या होगा, मुझे गली-गली घूम कर त्योहारी थोड़े ही मांगनी है।

शनिवार, 17 अगस्त 2013

हमें तो कलियां पसंद हैं.....



स्त्री जितना जल्दी अपना घर बसा ले उतना अच्छा होता है, औऱ पुरुष जितनी देर से शादी करे उसका कॅरियर उतना ही चमकदार होता है। ऐसा समाज कहता है, लोग कहते हैं।

हमारे समाज में लोग जिस प्रकार प्रेम विवाह या अंर्तजातीय विवाह को आसानी से स्वीकार नहीं करते, ठीक उसी प्रकार लड़के की शादी उससे उम्र में बड़ी लड़की से करना उनको नागवार गुजरता है। लड़की, लड़के से  कभी पांच साल छोटी होती है तो कभी दो या तीन साल। लेकिन ठीक इतना ही मतलब दो-तीन साल बड़ी नहीं हो सकती। यह ना तो लड़की के मां-बाप को पसंद होता है कि वह अपनी लड़की से उम्र में छोटा वर ढ़ूढे औऱ ना ही लड़के के मां बाप को कि उनकी बहू लड़के से उम्र में बड़ी हो।

एक मित्र एक दिन लड़कियों को लेकर चिंतित दिखे। पूछने पर बोले आज कल देख रहा हूं कि तीस-बत्तीस साल के नौकरीपेशा अविवाहित लड़के, विश्वविद्यालयों के रिसर्च स्कॅालर छोटी उम्र के लड़कियों को अपनी गर्लफ्रेंड बनाते हैं औऱ उनके साथ घूमते हुए नजर आते हैं, इन लड़कियों की उम्र महज अट्ठारह से बीस साल तक होती है जो इंटरमीडिएट एवं स्नातक प्रथम वर्ष की विद्यार्थी होती हैं। जबकि उनको अपने साथ घूमाने वाले लड़के उम्र एवं तजुर्बे से कहीं ज्यादा बड़े होते है। इन्हे विभिन्न प्रकार की लड़कियों का अच्छा खासा तजुर्बा होता है।

ऐसे ही कुछ अविवाहित लड़कों से जब उनकी पसंद यानि कम उम्र की लड़कियों के प्रति ज्यादा आकर्षण एवं झुकाव के बारे में पूछा गया तो उन्होनें बताया कि हम अपने जीवनसाथी के रुप में भी ऐसी ही लड़कियों को पसंद करते है। जमाना बदल गया है, गया वह दिन जब शादी के लिए लड़के लड़कियों के उम्र में पांच साल का अंतर होता था। आज लड़कियां घर से बाहर निकल कर पढ़ रही हैं, दुनिया देख रही हैं, अपनी मर्जी से जिंदगी जी रही हैं औऱ जल्दी ही मेच्योर हो जा रही हैं। स्नातक प्रथम  की लड़कियां पहली बार कॅालेज में आती हैं, उन्हे हर प्रकार का अनुभव हासिल करने में समय लगता है।और इनके साथ समय व्यतीत करने में मजा आता है। जबकि परास्नातक की लड़कियां काफी अनुभवपरक एवं चालाक होती हैं। किसी बात को लेकर जल्दी बहस कर लेती हैं। इसलिए हमें तो कलियां ही पसंद आती हैं।

वजह साफ है, लड़के पढ़ी लिखी सुंदर लड़की चाहते हैं लेकिन अपने से ज्यादा अव्वल नहीं चाहते। यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी जमाने में पति अपने से अच्छे पद पर विराजमान पत्नी से हमेशा क्लेश रखता था। पिता चाहता है बेटी पढ़े लिखे, खूब आगे बढ़। पति भी यही चाहता है लेकिन, लेकिन अपने से आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहता। यह लड़कियों का हश्र है बल्कि इससे भी कहीं ज्यादा है।