सोमवार, 24 मार्च 2014

जब तक है सांस..


आस्था..

गिनिए तो कितने नारियल हैं!!!

इससेे क्या होता है भाई!!

इतने आशीर्वाद कहां से लाऊं!!

ये भी आस्था है..

यूं ही..

दो दीवाने सारनाथ में..

पेड़ सेेेे गिरकर झाड़ी पर अटके..

मन के सच्चे..

लड़ो नहीं भाई..सीट खाली है..
हर-हर मोदी नहीं..बजरंगबली.. 

प्लास्टिक से ना आंकिए..हमारी भी कला का ध्यान रखिए..





सहतूत के दिन..




शनिवार, 22 मार्च 2014

बात समझ में नहीं आयी..



समझाने वाले ने दोनो बातें एक साथ समझायी थी।चेहरे पर कितना पावडर लगा है, यह लगाने वाले को ट्यूबलाईट की रोशनी में नहीं समझ में आती। मैथ्स प्रैक्टिस की चीज है उसे इतिहास में हुए युद्ध के सन् की तरह रटने से कोई कभी पास नही होता। 

लेकिन समझाने वाले को यह नही पता था कि जब दो बातें एक साथ बतायी जाती हैं तो कोई एक ही ज्यादा समझ  में आती है। उस दिन से जब कभी वह चेहरे पर पावडर लगाती, हाथ में शीशा लिए बालकनी मे आकर खड़ी हो जाती और चेहरे के पावडर को ठीक करती जैसे वह कोई मिसेज शर्मा हो गयी हो।

मैथ की किताब खुली थी, और वह दोनो घुटनो को सिकोड़कर हाथ बांधे किताब को घूर रही थी जैसे ऐसे घूरने से गणित के नए फार्मूले ईजाद होकर किताब पर उछलने लगेंगे। उसका मन पढ़ने मे बिल्कुल नही लग रहा था या वह गणित को इतिहास बना देना चाह रही थी।
छः साल छोटी उसकी बहन छत पर चटाई बिछाकर सूर्य प्राणायाम कर रही थी और वह अपने हाथों की सूर्य रेखा देख रही थी जैसे अभी-अभी सो कर उठी हो और उसके हाथों में दुनिया का नक्शा समाहित हो।

बीस बच्चों के साथ शाम में मैथ की कोचिंग होती थी, जिनके बीच उठकर सवाल पूछने से अच्छा वो मर जाना पसंद करती थी।
उसकी छोटी बहन नहाकर एक तौलिया लपेटे बाथरुम से बाहर आती। बालकनी मे सफेद जैसे दिखने वाले फूलों को तोड़कर भगवान को चढ़ाते हुए यह कहती कि आखिर मेरे पास तो उसी के जितना दिमाग है तो मुझे ही उसकी जगह नौवीं में पढ़ने को क्यों नही भेज देते। मैं गणित को गणित ही समझूंगी और मेरा भला हो जाएगा।