देखो ना...काला बादल घिरा है, आसमान से मानो गुस्से में ताक रहा है। अभी थोड़ी देर पहले ही बारिश बन्द हुई है। सब चीजें फीकी दिखाई दे रही हैं....सावन की हरी घास भी...और सामने की वह नई बिल्डिंग..जो बेहद खूबसूरत है..बिल्कुल अच्छी नहीं लग रही। यह बादल घिरा है ना...ऐसा लग रहा सब चीजें थम गई हैं....सन्नाटा पसर गया है। यह बादल ऐसे क्यों घिर कर डराता है...बरसता क्यों नहीं। बारिश अच्छी लगती है..कम से कम उसमें सन्नाटा नहीं होता।
रविवार, 3 अगस्त 2014
गुरुवार, 17 जुलाई 2014
जब भैंस को लेकर हुआ विवाद...
रिपोर्टर ने फोन किया तभी उनका माथा घूमने लगा। उस क्षेत्र का पेज बनकर तैयार हो चुका था फिर भी जैसे हजारों काम शेष था। चूंकि खबर उसी क्षेत्र की थी...इसलिए आदेश हुआ कि किसी और खबर को हटाकर उसकी जगह यह खबर लगा दी जाए।
रिपोर्टर फोन पर था, बोला- पूरी खबर लिखवाएं कि प्वाइंट्स नोट करवाएं।
उन्होंने कहा- पूरी खबर लिखवाओ...जल्दी करो। और भी काम पड़े हैं।
रिपोर्टर बोला- लिखिए
भैंस को लेकर दो भाइयों में हुआ विवाद
वह माथा पकड़ कर बैठ गए, बोले- आधी रात को ऐसी खबर के लिए पूरा पेज खराब करवाना चाह रहे हो।
रिपोर्टर बोला- कोई एक बार कह दे कि आप कल से अपने लिए दूसरे काम का जुगाड़ कर लीजिए तब कीड़े- मकोड़े के मरने की खबरें भी समय से पहुंचानी होती हैं।
फिर उन्होंने कुछ सोचा...फिर सोचा...और भैंस वाली खबर को बने-बनाए पेज के किसी कोने में चिपका दिया।
रिपोर्टर फोन पर था, बोला- पूरी खबर लिखवाएं कि प्वाइंट्स नोट करवाएं।
उन्होंने कहा- पूरी खबर लिखवाओ...जल्दी करो। और भी काम पड़े हैं।
रिपोर्टर बोला- लिखिए
भैंस को लेकर दो भाइयों में हुआ विवाद
वह माथा पकड़ कर बैठ गए, बोले- आधी रात को ऐसी खबर के लिए पूरा पेज खराब करवाना चाह रहे हो।
रिपोर्टर बोला- कोई एक बार कह दे कि आप कल से अपने लिए दूसरे काम का जुगाड़ कर लीजिए तब कीड़े- मकोड़े के मरने की खबरें भी समय से पहुंचानी होती हैं।
फिर उन्होंने कुछ सोचा...फिर सोचा...और भैंस वाली खबर को बने-बनाए पेज के किसी कोने में चिपका दिया।
गुरुवार, 3 जुलाई 2014
सब निभाना पड़ता है....
किसी काम की वजह से कुछ दिनों तक जब रिश्तेदारी में ठहरने की बात चलती है ठीक उसी वक्त रिश्तेदारों की तरफ से एक और सवाल पूछा जाता है। यह सवाल ऐसा होता है जो उनके मुंह से नहीं निकलता लेकिन हमें सुनाई देता है, और इसका जवाब भी हम कुछ ऐसे देने की कोशिश करते हैं कि जिस भाषा में उन्होंने सवाल पूछा है, उसी भाषा में उन्हें उत्तर मिल जाए। दो चार दिन से ज्यादा नहीं रहेंगे- इसी एक सवाल की देनदेन करने में दोनों पक्ष मूकबधिर बन जाते हैं।
जब दोस्तों -यारों से शहर वीरान पड़ा हो तब अपने उसी रिश्तेदार के यहां रुकना मजबूरी बन जाती है जिसने हमें वर्षों से नहीं देखा। उनके यहां लगातार अपनी मांग देखकर मन उछल उठता है..और जी में यही आता है कि तीन-चार दिन तो यूं ही कट जाएंगे और आखिर में वे यह कहेंगे कि दो-चार दिन औऱ रूक जाती तो अच्छा था। लेकिन यह खयाली पुलाव हमें उस वक्त दुख देता है जब हम दूसरे ही दिन उनके घर से भागने की कोशिश करते हैं।
मेरा मानना है कि जीवन में यही एक अनुभव है जो दो-चार दिनों की कम अवधि में ही प्राप्त हो जाता है। इन दो-चार दिनों की बातें बाकी के रिश्तेदारों के बीच ऐसे फैलायी जाती हैं जैसे हम उनके घर चार साल बिता कर आए हों। इतना तो आज तक हम खुद को नहीं जान रहे होते जितना इन दो-चार दिनों में रिश्तेदार हमें और हम रिश्तेदार को जान लेते हैं।
यूं तो रिश्तेदारी के वे दो-चार दिन फिल्मी नहीं हैं अन्यथा मैं कहती कि उन्होंने मुझे चाय नहीं दिया, अपने घर में झाडू लगवाया, नहाने के लिए टंकी का पानी खत्म कर शाम तक इंतजार करने को कहा।
जीवन में बहुत सी बातें जुल्मी होती हैं लेकिन फिल्मी नहीं। अन्यथा दिमाग तो अपना भी चलता है, कि रिश्तेदार की प्रताड़ना नहीं सहेंगे। किसी गेस्ट हाउस में रह लेंगे लेकिन रिश्तेदार के घर नहीं आएंगे।
रिश्तेदार के घर से विदा लेते वक्त एक सवाल औऱ पूछा जाता है जो हमारे अलावा भी कई लोग सुनते हैं- अगली बार कब आना होगा!! और इसका जवाब हम यूं देते हैं कि सिर्फ यह पूछने वाला ही सुन पाता है।
जब दोस्तों -यारों से शहर वीरान पड़ा हो तब अपने उसी रिश्तेदार के यहां रुकना मजबूरी बन जाती है जिसने हमें वर्षों से नहीं देखा। उनके यहां लगातार अपनी मांग देखकर मन उछल उठता है..और जी में यही आता है कि तीन-चार दिन तो यूं ही कट जाएंगे और आखिर में वे यह कहेंगे कि दो-चार दिन औऱ रूक जाती तो अच्छा था। लेकिन यह खयाली पुलाव हमें उस वक्त दुख देता है जब हम दूसरे ही दिन उनके घर से भागने की कोशिश करते हैं।
मेरा मानना है कि जीवन में यही एक अनुभव है जो दो-चार दिनों की कम अवधि में ही प्राप्त हो जाता है। इन दो-चार दिनों की बातें बाकी के रिश्तेदारों के बीच ऐसे फैलायी जाती हैं जैसे हम उनके घर चार साल बिता कर आए हों। इतना तो आज तक हम खुद को नहीं जान रहे होते जितना इन दो-चार दिनों में रिश्तेदार हमें और हम रिश्तेदार को जान लेते हैं।
यूं तो रिश्तेदारी के वे दो-चार दिन फिल्मी नहीं हैं अन्यथा मैं कहती कि उन्होंने मुझे चाय नहीं दिया, अपने घर में झाडू लगवाया, नहाने के लिए टंकी का पानी खत्म कर शाम तक इंतजार करने को कहा।
जीवन में बहुत सी बातें जुल्मी होती हैं लेकिन फिल्मी नहीं। अन्यथा दिमाग तो अपना भी चलता है, कि रिश्तेदार की प्रताड़ना नहीं सहेंगे। किसी गेस्ट हाउस में रह लेंगे लेकिन रिश्तेदार के घर नहीं आएंगे।
रिश्तेदार के घर से विदा लेते वक्त एक सवाल औऱ पूछा जाता है जो हमारे अलावा भी कई लोग सुनते हैं- अगली बार कब आना होगा!! और इसका जवाब हम यूं देते हैं कि सिर्फ यह पूछने वाला ही सुन पाता है।
सोमवार, 9 जून 2014
हार की मार...
पिछले कई दिनों से उत्तर भारत में भीषण गर्मी से त्राहि-त्राहि
मची है। आसमान से मानो आग के गोले बरस रहे हैं और लोग अंडे की तरह उबल रहे हैं। इस
भीषण गर्मी से जब मनुष्य इतना बेहाल है तो बेजुबान जानवरों का क्या कहा जाए। जहां
पूरा देश बिजली की अघोषित कटौती की मार झेल रहा है वहीं बिजली औऱ पानी को लेकर उत्तर
प्रदेश की हालत बेहद खराब है। इनमें वाराणसी इस समय अपने सबसे बुरे दिनों को झेल
रहा है। प्रदेश सरकार लोगों से हार का बदला निकाल रही है। वाराणसी सीट से भाजपा की
जीत के बाद लोगों को उम्मीद थी कि अच्छे दिनों में ये गर्मी बस यूं ही बीत जाएगी।
लेकिन देखा जाए तो बिजली-पानी के मामले में सबसे ज्यादा बदतर हालत वाराणसी की ही
है।
इस दुर्दशा के लिए लोग प्रदेश सरकार
को तो कोस ही रहे हैं साथ ही भाजपा को भी जिम्मेदार ठहरा रहे हैं जिसने
यहां से जीत तो दर्ज कर ली लेकिन इस जीत का बदला कोई औऱ निकाल रहा है। वहां की
जनता आस लगाए जरूर बैठी है लेकिन उन्हें यह नहीं पता है कि यहां अच्छे दिन कैसे
आएंगे। लोगों को बिजली-पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं जिससे उन पर
इस भीषण गर्मी की दोतरफा मार पड़ रही है। लोग कराह रहे हैं, दम भर रहे हैं और फिर
एक दूसरे को वही आसरा दे रहे हैं कि वाराणसी के अच्छे दिन आने ही वाले हैं, लेकिन
कब यह किसी को नहीं पता।
पिछले कई सालों से इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का सबसे गर्म शहर
बन चुका है। इस भीषण गर्मी में अब तक दिल्ली, मथुरा, झारखंड और इलाहाबाद से कई
लोगों की जानें भी जा चुकी हैं। कहा जाता है कि कर्क रेखा इलाहाबाद से होकर गुजरती
है शायद इसलिए यहां जबरदस्त गर्मी पड़ती है।
बहरहाल इस साल समूचा उत्तर प्रदेश अखिलेश सरकार की कोपभाजन
का शिकार बन रहा है। अपने ही घर के मतदाताओं का वोट न पाकर करारी हार का सामना
करने वाली सपा इस भीषण गर्मी में लोगों को बिजली-पानी जैसी बुनियादी चीजों की
कटौती कर अपनी हार का बदला ले रही है। अगर यह ऐसे ही चलता रहा तो इस भीषण गर्मी
में दम तोड़ने वालों की संख्या में इजाफा होने से कोई नहीं रोक सकता।
शनिवार, 7 जून 2014
ਜੁਲਮ ਦੀ ਹੱਦ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ !!
ਕੱਲ ਅਲਜਜੀਰਾ ਚੈਨਲ ਦੁਆਰਾ ਔਰਤਾਂ ਉੱਤੇ ਬਣੀ ਡਾਕਿਊਮੇਂਟਰੀ ਵੇਖ ਰਹੀ
ਸੀ । ਉਸ ਵਿੱਚ ਕਈ ਸ਼ਹਿਰਾਂ ਦੀਆਂ ਔਰਤਾਂ ਦੀਆਂ ਹਲਾਤਾਂ
ਨੂੰ ਵਖਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ । ਪਹਿਲਾ ਸੀਨ ਹਰਿਆਣਾ ਵਲੋਂ
ਸ਼ੂਟ ਕੀਤਾ ਗਿਆ ਸੀ ਜਿੱਥੇ ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਦਾ ਵਪਾਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ । ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਖਰੀਦ ਕਰ ਲਿਆਈ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਅਤੇ ਜਬਰਦਸਤੀ ਉਨ੍ਹਾਂ
ਦੀ ਵਿਆਹ ਕਰ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ । ਇਹ ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਜਦੋਂ
ਆਪਣੇ ਆਪ ਮਾਂ ਬਣਦੀਆਂ ਹਨ ਤਾਂ ਇਹਨਾਂ ਦੀ ਛੋਟੀ ਬੱਚੀਆਂ ਨੂੰ ਚੁੱਕਕੇ ਬਚਪਨ ਵਿੱਚ ਹੀ ਬੇਂਚ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।
ਪਸ਼ੁਆਂ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਅੱਧੀ ਰਾਤ ਨੂੰ ਇਸ ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਨੂੰ ਟਰੱਕਾਂ
ਉੱਤੇ ਲਾਦਕਰ ਦੂੱਜੇ ਸ਼ਹਿਰ ਭੇਜਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ।
ਇੱਕ ਤੀਵੀਂ ਮਜਦੂਰ ਆਪਣੀ ਕਹਾਣੀ ਦੱਸਦੇ ਹੋਏ ਫਫਕ - ਫਫਕ ਕਰ ਰੋ ਰਹੀ ਸੀ
। ਆਪਣੀ ਛੋਟੀ ਗੁੱਡੀ ਨੂੰ ਉਹ ਅੰਚਲ ਵਿੱਚ ਦਬਾਏ ਦੱਸ
ਰਹੀ ਸੀ ਕਿ ਸਾਲਾਂ ਪਹਿਲਾਂ ਉਸਨੂੰ ਵੀ ਇੰਜ ਹੀ ਉਸਦੇ ਪਿੰਡ ਵਲੋਂ ਚੁੱਕਕੇ ਇੱਥੇ ਲਿਆਇਆ ਗਿਆ ਸੀ ਔऱ ਜਬਰਦਸਤੀ ਵਿਆਹ ਕਰ ਦਿੱਤੀ
ਗਈ ਸੀ ।
ਉਸਦਾ ਪਤੀ ਮਜਦੂਰ ਸੀ ਜਿਸਦੇ ਨਾਲ ਵਿਆਹ ਦੇ ਬਾਅਦ ਉਸਨੂੰ ਵੀ ਮਜਦੂਰੀ ਕਰਣੀ ਪਈ । ਹੁਣ ਉਸਦਾ ਪਤੀ ਘਰ ਵਿੱਚ ਦਾਰੂ ਪੀਕੇ ਸੁੱਤਾ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ
ਔऱ ਉਹ ਇਕੱਲੇ ਮਜਦੂਰੀ ਕਰਦੀ ਹੈ । ਸ਼ਾਮ ਨੂੰ ਘਰ
ਆਉਣ ਉੱਤੇ ਨਸ਼ੇ ਦੀ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਪਹਿਲਾਂ ਉਸਦਾ ਪਤੀ ਉਸਨੂੰ ਪੀਟਤਾ ਹੈ । ਉਹ ਰੋਂਦੇ ਹੋਏ ਖਾਨਾ ਬਣਾਉਂਦੀ ਹੈ ।
ਉਸਨੂੰ ਖਿਡਾਉਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਰਾਤ ਵਿੱਚ ਪੈਰ ਵੀ ਦਬਾਤੀ ਹੈ
। ਇਹ ਕਹਾਣੀ ਦੱਸਦੇ ਹੋਏ ਤੀਵੀਂ ਜ਼ੋਰ ਵਲੋਂ ਰੋ ਰਹੀ
ਸੀ ।
ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਔਰਤਾਂ ਹਮੇਸ਼ਾ ਵਲੋਂ ਹੀ ਕੋਮਲ ਹਿਰਦਾ ਦੀ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ
। ਮਰਦ ਚਾਹੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਜੀਨਾ ਹਰਾਮ ਕਰ ਦੇ ਲੇਕਿਨ ਉਹ ਕਿਵੇਂ ਵੀ ਖੁਸ਼ ਰਹਿਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੀਆਂ
ਹਨ । ਲਡ਼ਕੀਆਂ ਨੂੰ ਬਚਪਨ ਵਲੋਂ ਇਹੀ ਸੀਖਾਇਆ ਜਾਂਦਾ
ਹੈ ਕਿ ਕੁੜੀ ਦੀ ਡੋਲੀ ਪਿਤਾ ਦੇ ਘਰ ਵਲੋਂ ਔऱ ਅਰਥੀ ਪਤੀ ਦੇ ਘਰ ਵਲੋਂ ਉੱਠਦੀ ਹੈ । ਔਰਤਾਂ ਕਿਸੇ ਵੀ ਹਾਲਤ ਵਿੱਚ ਮਰਦਾਂ ਦੇ ਨਾਲ ਸਮੱਝੌਤਾ ਕਰਣ ਨੂੰ ਤਿਆਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ ਲੇਕਿਨ
ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਛੋੜਤੀ । ਅੱਜਕੱਲ੍ਹ ਪੁਰਖ
ਔਰਤਾਂ ਦਾ ਜੋ ਹਾਲ ਕਰ ਰਹੇ ਹੈ ਉਹ ਸੱਚ ਵਿੱਚ ਅਤਿ ਤਰਸਯੋਗ ਹੈ । ਜੇਕਰ ਔਰਤਾਂ ਉੱਤੇ ਇੰਜ ਹੀ ਜੁਲਮ
ਚੱਲਦਾ ਰਿਹਾ ਤਾਂ ਇੱਕ ਦਿਨ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਅਸਤੀਤਵ ਹੀ ਖ਼ਤਮ ਹੋ ਜਾਵੇਗਾ ।
शुक्रवार, 6 जून 2014
ਜੀਵਨ ਦੁੱਖ ਹੈ ! !
ਗੌਤਮ ਬੁੱਧ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਜੀਵਨ ਇੱਕ ਦੁੱਖ ਹੈ । ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਜੀਵਨ ਸੱਚ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਦੁੱਖ ਹੈ , ਦੁਖਾਂ ਦਾ ਪਹਾੜ ਹੈ ਜਿਨੂੰ ਲਾਂਘਤੇ ਹੋਏ ਅਸੀ ਜੀਵਨ ਭਰ ਅੱਗੇ ਵਧਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੇ ਹਾਂ । ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਪੜਾਉ ਇਹ ਵੀ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਸਾਡੀ ਪੜਾਈ ਪੂਰੀ ਹੋ ਚੁੱਕੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਸੀ ਨੌਕਰੀ ਲਈ ਮਾਰੇ - ਮਾਰੇ ਫਿਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ । ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਿੰਦਗੀ ਬੇਹੱਦ ਨੀਰਸ ਲੱਗਦੀ ਹੈ ਔऱ ਅਸੀ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਸਭਤੋਂ ਦੁਖੀ ਇੰਸਾਨ ਹੁੰਦੇ ਹਨ । ਇਸ ਸਾਰੀ ਚੀਜਾਂ ਦੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਚੱਲ ਹੀ ਰਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਕਿ ਘਰ ਵਾਲੇ ਵਿਆਹ ਕਰਣ ਦਾ ਦਬਾਅ ਬਣਾਉਣ ਲੱਗਦੇ ਹਾਂ । ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਿਸ ਦੌਰ ਵਲੋਂ ਅਸੀ ਗੁਜਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਆਪਣੀ ਹਾਲਤ ਉਸ ਗਧੇ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਨੂੰ ਢੋਣ ਦਾ ਦਮ ਨਾ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਉਹ ਦਮ ਲਗਾਕੇ ਪਿੱਠ ਉੱਤੇ ਲਦਾ ਬੋਝ ਢੋਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ । ਠੀਕ ਉਂਜ ਹੀ ਅਸੀ ਵੀ ਨਿਠੱਲੇ ਬਣਕੇ ਢਿੱਡ ਦੇ ਜੂਗਾੜ ਲਈ ਮਾਰੇ - ਮਾਰੇ ਫਿਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹੈ । ਲੇਕਿਨ ਘਰ ਵਾਲੇ ਕਿਸੇ ਔऱ ਹੀ ਦੁਨੀਆ ਦਾ ਸੁਫ਼ਨਾ ਦਿਖਾਂਦੇ ਹਾਂ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਰੰਗ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ । ਅਤੇ ਆਖ਼ਿਰਕਾਰ ਅਜਿਹੇ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਪਰਵੇਸ਼ ਕਰਣਾ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਿੱਥੋਂ ਇੱਕ ਵਾਰ ਫਿਰ ਜਿੰਦਗੀ ਦੀ ਦੋਹਰੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ।
मंगलवार, 3 जून 2014
एक सबक दूसरों के काम आ रहा...
सालों पहले जब हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं
में आज की तरह अच्छे प्रतिशत नहीं आते थे उसी दौर में जतिन ने इंटरमीडिएट की
परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाकर स्कूल ही नहीं वरन अपने जिले में भी टॉप किया। जतिन
मेधावी छात्र था लेकिन इंटरमीडिएट के बाद आगे की पढ़ाई को लेकर उलझ गया। जतिन के
माता-पिता कम पढ़े लिखे थे, अतः उनसे आर्थिक मदद के अलावा आगे के भविष्य को लेकर
जतिन को कोई मार्गदर्शन नहीं मिला। जतिन के कुछ रिश्तेदारों ने उसे ग्रेजुएशन करने
को कहा तो किसी ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का सुझाव दिया।
जतिन दोनो लोगों की
बातों में इस तरह उलझा कि उसने कला वर्ग से स्नातक में दाखिला ले लिया जबकि वह अब
तक विज्ञान का छात्र था। पढ़ाई के प्रथम वर्ष में ही उसका मन न लगा।
अगले साल उसने
फिर से प्रवेश परीक्षा दी और इस बार वह विज्ञान वर्ग में दाखिला लिया। स्नातक पूरा
हो जाने के बाद भी उसका लक्ष्य स्पष्ट नहीं हुआ कि उसको अपने जीवन में क्या करना
है।जो कोई उसे जैसी राय दे देता वह उसी विषय में दाखिला ले लेता।
इस तरह उसके पास
डिग्रियों की भरमार हो गयी जबकि नौकरी अभी भी उससे कोसों दूर थी। वह रोजगार के
चक्कर में दिन भर यहां से वहां चप्पलें घिसता औऱ किसी भी नौकरी की जल्द कोई आसार न
दिखने पर वह मानसिक तनाव से गुजरने लगा। उसे लोगों का कहा अब बिल्कुल पसंद नहीं
आता औऱ चिड़चिड़ेपन ने उसे घेर लिया।
इस सब चीजों से निजात पाने के लिए उसने एक कोचिंग संस्था
में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया जिससे उसकी आजीविका चलनी शुरू हो गयी। धीरे-धीरे
उसने उन्नति की और आज खुद का एक बड़ा कोचिंग संस्थान चलाता है। जिसमें सैकड़ों
हाईस्कूल औऱ इंटरमीडिएट के बच्चे कोचिंग पढ़ने आते हैं।
बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट आ गए हैं और हर साल जतिन की तरह
ही लाखों बच्चे यह नहीं समझ पाते की उन्हें आगे करना क्या है। वह अपनी रुचि ना तो
समझ पाते हैं ना ही जाहिर कर पाते हैं और लोगों की कही बातों में उलझ कर कुछ भी
करने के चक्कर में किसी भी विषय में दाखिला ले लेते हैं। आगे उस विषय में मन ना
लगने पर उन्हें उसे मजबूरन छोड़ना पड़ता है। इससे पैसे के साथ-साथ उनका कीमती वक्त
भी बर्बाद होता है। इससे वे बच्चा मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं।
चूंकि जतिन इस दौर से गुजर चुका है। भटकते-भटकते ही सही
लेकिन आज उसके पास उसकी खुद की बड़ी कोचिंग संस्था है। वह इंटरमीडिएट के बाद आगे
की पढ़ाई को लेकर होने वाली उलझन को अच्छी तरह समझता है। इन उलझनों से तमाम बच्चों
को बाहर निकालने के वह हर साल अपने कोचिंग संस्था में बाहर से कुछ कॅरियर काउंसलर
को बुलाता है। जिनकी सहायता से बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए विषय चुनने में काफी
सहायता मिलती है। इस साल भी सैकड़ों बच्चे उसके कोचिंग संस्था में जाकर कॅरियर
काउंसलर से मार्गदर्शन लेकर अपने भविष्य की नींव खुद रखने के लिए तैयार हैं। जिससे
जतिन को इस बात की खुशी मिलती है कि बच्चा दूसरों की बातों में न आकर अपना निर्णय
खुद ले रहा है।
अगर हम अपनी गलतियों से सीखें और आने वाली पीढ़ी को एक
बेहतर मार्गदर्शन प्रदान कर उन्हें गर्त में जाने से बचाएं तो ऐसे लाखों बच्चों का
भविष्य खराब होने से बचाया जा सकता है, जो मेधावी तो होते हैं लेकिन यह नहीं समझ
पाते कि किस रास्ते पर चलकर जीवन में आगे बढ़ा जा सकता है।
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