शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

हम अर्ज़ करेंगे तो शिकायत होगी !!



कुछ दिन पहले अपनी सहेली के साथ एक समारोह में जाने का मौका मिला। वहां बहुत सारे लोग आए हुए थे, जिनमें महिलाओं की संख्या ज्यादा थी। महिलाएं तरह-तरह के लिबास में थी।

कुछ स्वेटर शॉल अपने हाथ पर टांगे घूम रही थीं...कुछ दूसरों से पूछ रही थीं कि बताओ-जैकेट के उपर से क्या उनका हार दिख रहा है?

जवाब में नहीं सुनने पर वे वहीं अपना जैकेट उतारकर साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए जनता-जनार्दन के दर्शन के लिए अपना हार को साड़ी के उपर लटका  रही थीं।

यह सब दिखना-दिखाना चल ही रहा था कि सबके बीच एक अप्सरा उतरी। गहरे सांवले रंग की महिला। होठों पर लिपस्टिक की मोटी परत जो मोम की भांति जमी हुई दिख रही थी, शायद महिला को इस बात का इल्म था और बिना शीशे के उसे ठीक करने की कोशिश में लिपस्टिक इधर-उधर फैल गई थी.. जो खराब लगने के साथ बहुत भद्दी नजर आ रही थी।

महिला डीप नेक की ब्लाउज के साथ हरी चमचमाती साड़ी में थी। डीप नेक होने के कारण उसके पीठ पर सर्दी की मार पड़ी थी जिससे रोएं उग आए थे। महिला सिर्फ एक पतली साड़ी में थी।

मेरी सहेली ने कहा- यह परम सत्य है!!!
मैने कहा- क्या?
उसने कहा- यही कि महिला को ठण्ड लग रही है!
मैने कहा- इतनी ठण्ड में गर्मी तो लगेगी नहीं!
उसने कहा- कम से कम लोगों को इतना पता होना चाहिए कि उन पर क्या अच्छा लगता है...क्या नहीं। और अगर ना फ़बते हुए भी कोई पहनने की जुर्रत करे तो उसे सलीके से पहनना चाहिए।
महिला के पीठ पर ब्लाउज की पट्टी देखो..जूते का रिबन भी शरमा जाए...इतनी पतली कि गलती से किसी की अंगुली फंस जाए तो तार-तार हो जाए..

तभी महिला अपनी सहेली से पूछी-बता ना..कैसी लग रही हूं?
महिला की सहेली ने कहा- झक्कास, सुंदर...गजब की लग रही हो.

मेरी सहेली ने मुझसे पूछा- मैं भी जाकर कुछ कहूं??
मैने कहा- क्या?
उसने कहा- यही कि………..मोहतरमा

आप खुद ही अपनी अदाओं पर ज़रा ग़ौर फ़रमाइए

    हम अर्ज़ करेंगे तो शिकायत होगी

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

हमारी और सबकी मकर संक्रांति...


कटी..कटी..अरे उधर गई...अरे वहां गिरी...की चिल-पों मुहल्ले में सुबह से मची थी। कटी पतंग सबसे पहले लूटने की होड़ में बच्चे गलियों में एक साथ दौड़ लगा रहे थे। उनके जूतों की खटर-पटर की तेज आवाज से ऐसा लग रहा था.. मानों कहीं परेड चल रही हो। कुछ बच्चों को पतंग खरीदने की जरुरत नहीं पड़ी तो कुछ को सस्ते दाम पर पतंग मिल गई।

जिन बच्चों को पतंग खरीदने की जरुरत नहीं पड़ी वे कटी हुई पतंगो को इकट्ठा करके उनमे से मनचाही पतंग उड़ा रहे थे और कुछ बच्चों में इसे सस्ते दाम पर बेंच कर मुनाफा भी कमा रहे थे।

बच्चों की मां उन पर चिल्ला रही थी कि कम से कम मकर संक्रांति के दिन तो समय से नहा-खाकर पतंग उड़ाओ नालायकों..बच्चों के साथ उनके पापा भी पतंग उड़ाने के अपने छिपे हुनर का प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन बच्चों से आगे नहीं निकल पाए।

कई घरों की छत पर बाप-बेटे में पतंग उड़ाने की कला का सेमीफाइनल और फाइनल दौर भी हुआ..लेकिन पलड़ा बेटों का ही भारी रहा..खैर इस पर उम्र की कोई मार नही थी।

पड़ोस की आंटी नहा-धोकर लोटे में जल भरकर छत पर खड़ी आंख दबाकर आसमान में सूरज को खोज रहीं थीं, मानोँ आज सूरज इन्हें चकमा देकर दक्षिण से निकलने वाला हो।
आंटी की बेटी अपने घर के दरवाजे पर बल्टे वाले से पांच लीटर दूध नपवा रही थी। खीर बनाने के लिए नहीं.. बल्कि चूड़ा-दूध खाने के लिए।

और इधर मेरे घर.. दादी इस बात को लेकर बवाल काट रही थीं कि अगर मकर संक्रांति के दिन गाय-भैंस को नहीं नहलाया गया तो अगले जनम भी जानवर के रुप में ही वे धरती पर पैदा होंगे..जबकि वह ऐसा कतई नहीं चाहती। भाई ने कहा- इतनी कड़ाके की ठंड में इंसानों का गुजारा ही नहीं चल रहा, क्यों जानवरों को नहलाकर तकलीफ दी जाय?...लेकिन दादी अपनी बात पर अड़ी रहीं कि घर के जानवरों को नहलाकर उन्हें तिलकुट खिलाया जाए।

इस पर भाई ने कहा- कहिए तो जानवरों को हांक कर संगम नहला लाएं। अगले जनम तक ये आपका एहसान मानेंगे। इस पर दादी तुनककर मुंह टेढ़ा कर बैठ गईं और कुछ न बोलीं।
हम छत पर खड़े होकर गुड़ और तिल के बने अटर-पटर सामान खाते रहे और आसमान में हवा खाती रंग-बिरंगी पतंगों को निहारते रहे।


और अंत में.....स्वाद भले ही अलग रहा हो लेकिन मकर संक्रांति के दिन सबके घर एक ही चीज बनी...और बन जाने पर कहा गया.. खिचड़ी खा लो, नहीं तो ठंड़ी हो जाएगी।

रविवार, 5 जनवरी 2014

मैं ऐसा करती नहीं..ऐसा हो जाता है...



कुछ आदतें ऐसी होती हैं जिन्हे हम जानबूझ कर नहीं करना चाहते फिर भी बार-बार करते हैं। मना करने के बावजूद करते हैं। और कभी-कभी ज़ेहन में रहते हुए भी कि-ऐसा नहीं करना है-कर देते हैं। ऐसा करते वक्त पता रहता है कि ऐसा कर रहे हैं लेकिन पता रहते हुए भी ऐसा कर ही डालते हैं।

ख़ैर... मेरे ख्याल से अब बता देना चाहिए कि मैं किस बारे में बात कर रही हूं। अगर ऐसी आदतें सिर्फ मेरी ही हैं.. तो हो सकता है मैं किसी दूसरे ग्रह की प्राणी हूं, लेकिन अगर आप भी ऐसा ही कुछ करते हैं तो ऐसा करने से खुद को कैसे आप रोकते हैं, मुझ भी बता सकते हैं।

जब मैं पढ़ाई करने बैठती हूं तो नमकीन या चना-लाई का डिब्बा लेकर बैठ जाती हूं। कुछ खाते हुए पढ़ने पर ज्यादा ध्यान लगता है..इस ध्यान के चक्कर में नमकीन खाकर डिब्बा कब खाली कर दी, इसका पता तब चलता है जब कुर्सी के नीचे खाली डिब्बे को लुढ़कते देख मेरी दादी भगवन् से शिकायत करते हुए यह कहती हैं कि हल्दीराम का एक पाकिट नमकीन एक ही दिन में भकोस गयी। अब मेहमानों को क्या देंगे।

एक दोस्त से उसकी एक नई किताब मांग लायी पढ़ने को। पढ़ने बैठी ही थी, उसी वक्त एक फोन आ गया। फोन पर बात करते हुए मैने एक पेन उठाया और उसकी किताब पर कमल का फूल और बत्तख बना डाला। सिर्फ बनायी ही नहीं बल्कि पेन की स्याही रगड़-रगड़ कर उसे अच्छी तरह सजा भी दी। जिससे स्याही दूसरे पन्ने पर भी फैल गई। फोन रखने के बाद ध्यान आया कि इस पिकासो को बना कर मैनें उसकी नई किताब खराब कर दी। हालांकि बनाते वक्त मैं देख रही थी कि मैं कुछ बना रही हूं, लेकिन एक किताब को बुरी तरह खराब कर रही हूं इस बात का इल्म उस वक्त तो मुझे नहीं था।


टीवी देखते हुए संतरा खा रही थी। एक खायी..फिर एक खायी..फिर एक के बाद एक....टीवी देखती गयी...संतरा खाती गयी। इस तरह एक किलो संतरा कैसे टोकरी भर छिलके में बदल गया इसका अंदाजा तब हुआ जब संतरे की खाली थैली उड़कर जमीन पर बैठ गयी। मां ने डांटा कि भाई-बहन के लिए एक भी न छोड़ी, सब खा गयी। मैं सिर्फ इतना कह पायी कि मैं खब्बू नहीं हूं। टीवी देखते हुए खाने में कब खत्म हो गया पता नहीं लगा।

किचन में सब्जी बनाते वक्त दिमाग में हालिया देखी एक फिल्म की कहानी चल रही थी। खाते वक्त भाई ने कहा कि नमक अभी प्याज के भाव नहीं बिक रहा, कि हमें इसके बिना खाने की आदत डालनी पड़े।

मेरी इन आदतों से परेशान लोगों ने बोलने की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए बोल कर कई उपाधियों से नवाजा है। कभी-कभी मेरी इन हरकतों के लिए मुझे बहुत डांट भी खानी पड़ी है। लेकिन मैं सच्ची बता रही हूं, ऐसा हो जाता है...मैं ऐसा करती नहीं।

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

उसके नाना क्रीम वाली बिस्कुट लाते थे..




जिस बच्चे के नाना आते, उसे अधिक बिस्कुट खाने को मिलता। बच्चा अपने नाना की गोद में बैठकर हमारी तरफ देखते हुए कहता मेरे नाना हैं.. ये मेरे नाना हैं जैसे हम ये किसके नाना हैं? इस बात पर कोई सवाल खड़ा करने वाले हों।

वे हमारी चाची के पिताजी होते थे जो रिश्ते में हमारे भी नाना लगते थे। लेकिन उस बच्चे की तरह उनकी गोद में बैठकर हमें यह कहने का अधिकार नही था कि ये हमारे नाना हैं।

उसके नाना जब भी आते क्रीम वाली बिस्कुट लेकर आते। कभी सिर्फ एक पैकेट या कभी दो। वह आपस में चिपके दो बिस्कुटों के बीच से बड़ी आसानी से क्रीम उखाड़ लेता था। एक पैकेट में दस बिस्कुट होते थे, वह क्रीम निकालकर बिस्कुटों का सत्यानाश कर डालता, फिर सादे बिस्कुट हमें खाने पड़ते, बिना क्रीम वाले।

शाम को रसोई से मानो छप्पन भोग बनने जैसी महक आती। सर्दी, जुकाम, बुखार जैसी नाटकीय बिमारियों पर चादर तान कर सोने वाली चाची रसोई में पूरे समय लगी रहती, नाना के लिए अच्छा खाना बनाने में।

उन दिनों लोग मेहमानों को आलू-गोभी के साथ सोयाबीन(न्यूट्रीला) की सब्जी खिलाकर बड़ा गर्व महसूस करते। सोयाबीन को तलने में पर्याप्त तेल खर्च होता। जो हमारी दादी के सिर का दर्द बन जाता। उनका महिने के चार-पांच दिन का हिसाब बिगड़ जाता। जो कि महिने भर के खर्च के लिए एक अलग डिब्बे में तेल निकालकर रखती थीं।

अक्सर होता था कि नाना के साथ खाने पर चाचा नही बैठते थे। उनके साथ घर का कोई  और व्यक्ति खाने बैठता।

शुरुआत में तो नाना के साथ खाने पर चाचा ही बैठते थे, और बात-बात में उनसे चाची की बुराई कर डालते। तब से मेहमानों के आने पर चाचा की ड्यूटी खाना परोसने पर रहती।

बच्चे के नाना जाते वक्त उसे खूब प्यार करते औऱ घर से निकलते वक्त उसे दस या कभी बीस रुपए की नोट पकड़ाते हुए कहते कि इसका चिनिया बादाम खरीद कर खा लेना। हम उन्हें गौर से देखते रहते लेकिन हमें पैसे नहीं मिलते। वे उस बच्चे के सगे नाना थे, हमारे नहीं। जाते वक्त हम उनके पैर छूकर दरकिनार हो जाते।

हम संयुक्त परिवार में रहते थे। हमने अपने सगे नाना को कभी नहीं देखा था। इतना भी नहीं कि किसी के नाना को देखकर अपने नाना को याद किया जा सके।