रविवार, 6 अप्रैल 2014

कैसे लगता है धंधे पर बट्टा!!


लख्खू प्रजापति पेशे से कुम्हार है। पिछले पचास सालों से बाप-दादा के इस पुस्तैनी धंधे को सीने से लगाए बैठे हैं। देश में चुनाव की गर्मी है। किसी विशेष की हवा भी चल रही है। लेकिन इनकी झोपड़ी को यह हवा नहीं छूती। ना इनके जीवन में मोदी हैं.. ना ही कोई और पार्टी। आधुनिकता ने इनकी रोजी-रोटी पर बट्टा लगा दिया है।इतना की  मिट्टी के बर्तन रखे रह जाते हैं और लोग खरीदने नहीं जाते। स्थिति यह आ गयी है कि दो जून की रोटी के लिए इस उम्र में पत्नी के साथ दूसरों के खेतों एवं घरों में मजदूरी करते हैं।



दिन भर की मेहनत के बाद मिट्टी से गढ़े गए हैं ये सुन्दर मटके..शाम की हल्की धूप ले रहे हैं।
खुद का पैर पसारने की जगह नहीं है...लेकिन जितना भी जगह है उसमे उन्होंने मिट्टी के बर्तनों को करीने से सजा कर रखा है ताकि मेहनत पर पानी ना फिरे और ये नाजुक बर्तन सुरक्षित रहें।

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

भूख तो मार ही डालती..


कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र अपने तीन मित्रों के साथ फिल्म देखने गए। रात का शो था इसलिए लौटने में रात के साढ़े ग्यारह बज गए। भूख तेज लगी थी..इतनी रात को कहीं कुछ खाने के लिए नहीं दिख रहा था।कमरे पर पहुंचकर खाना बनाते तब कहीं जाकर खाते..। लेकिन यहां तो भूख के मारे जान जा रही थी। रास्ते भर सड़क किनारे घूरते हुुए चले आ रहे थे कि कहीं कुछ खाने को मिले तो जान में जान आए। काफी दूर चलने के बाद बाटी चोखा बिकने वाला एक ठेला दिखा। मित्र अपने दोस्तों के साथ दौड़े  जैसे जो पहले पहुंचेगा वो ज्यादा खाएगा।बाटी -चोखा वाला सारा सामान समेट चुका था और अपने लिए पांच बाटियां सेंक रहा था। इन लोगों ने उससे निवेदन किया कि बड़ी भूख लगी है कुछ खिला दो। वह बोला सिर्फ पांच बाटियां हैं ..दिन भर बेंच कर थक गया हूं ..जोर की भूख लगी है मुझे ..मैं किसी को नहीं खिलाउंगा। इन लोगों ने कहा चाहे जितने पैसे ले लो...लेकिन खिला दो। वह बोला बाटी अभी कच्ची है..उपले ठंडे पड़ गए हैं...ठीक से सेंक नही पाया हूं...।चारों ने चार कच्ची बाटियां उठायी और राक्षसों की तरह खाने लगे..हालांकि बाटी मुंह में जाने पर गीला आटा बन चुका था। लेकिन भूख में उन्हें यह किसी अमृत से कम नहीं लग रहा था। सिर्फ एक बाटी बची थी जो बेचने वाला खाया।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

अपने-अपने जुगत में...


एक नदी के किनारे का दृश्य है ये। देखिए ना..ये दोनों कैसे अपने जुगाड़ में लगे हैं एक नदी के किनारे का दृश्य है ये। देखिए ना..ये दोनों कैसे अपने जुगाड़ में लगे हैं. बच्ची इन कचरों के ढ़ेर में सिक्का खोज रही है..तो कुत्ता खाने पीने का सामान...दोनों की जरूरत पेट भरना है...आजकल आदमी कुत्ता हो गया है या कुत्ता आदमी...मुश्किल हो रहा समझना.

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

ऐसे तो मेरी आस्था ही ना रहेगी!!!

 
शाम के समय कोई सामान या सब्जी खरीदने के लिए बाजार या चौराहे तक निकलती हूं । उस वक्त आसपास के मंदिरों में आरती हो रही होती है या हो चुकी होती है। मंदिर के पंडित जी आरती की थाली और गंगाजल लिए पास के दुकानों पर घूमते दिख जाते हैं। सब्जी के ठेले पर कई  बार ऐसे पंडित जी से पाला पड़ा है। बिना  कुछ पूछे भगवान   के नाम   पर बुदबुदाते हुए माथे पर रोली या तिलक टीप देते हैं। उसके बदले एक या दो रुपए उन्हें देना ही पड़ता है। ना देने पर वह हमारी विद्या के घटने या बढ़ने को लेकर ना जाने क्या-क्या बोलने लगते हैं और पीछा नहीं छोड़ते।

पंडित जी किसी भी सामान के दुकान पर इकट्ठे लोगो के माथे को ऐसे ही रंगते हैं और फुटकर-फुटकर में गुल्लक भरने लायक मुद्रा जमा कर लेते हैं।मंदिर में आरती रोज होती है...शाम को सब्जी भाजी जैसी चीजें खरीदने के लिए चौराहे तक आना ही पड़ता है। भगवान के नाम पर कुछ बुदबुदाते हुए पंडित जी वहीं पत्थर बन जाते हैं।

ऐसी चीजें कभी-कभी ही अच्छी लगती हैं। रोज माथा रंगवाना अचानक पागल हो जाने के बराबर लगता हैं। सब्जी वाले के यहां एक-दो रुपए उधार रह जानें की चिन्ता नही रहती जितनी  इस पंडित के थाली में झोकने की। रोज की बात है यार...ऐसे तो पंडित जी भगवान से आस्था ही खतम कर देंगे। हद है...नहीं?

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

इनके लिए एक ही इच्छा रहती है!!!



एक संयुक्त परिवार में अपने भाईयों में सबसे छोटे व्यक्ति ने कल जमीन खरीदी। वह खाली जमीन उनके घर के ठीक बगल में थी और बेचनेवाले से वह सिर्फ इसलिए खरीदना चाहते थे कि उनके घर से सटी वह जमीन उस घर का एक हिस्सा बन जाएगी। उनके घर में अब तक जमीन खरीदने का काम उनके बड़े भाई किया करते थे जब तक कि उन्हें उम्मीद थी कि एक ना एक दिन उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, हालांकि उनकी दो बेटियां हैं। व्यक्ति ने अपने भाई कि मनःस्थिति को देखकर कुछ भी पूछना उचित नही समझा और जमीन हाथ से निकलती. इससे पहले खुद ही खरीद ली।

 समाज में आजकल कुछ ऐसे लोग भी हैं जो घर में बेटा न होने का कोई गम नहीं करते, बेटियों को मानते हैं, अच्छी शिक्षा देते हैं। लेकिन अगर घर में बेटा होता तो शायद वह प्यार दुलार या सिर्फ अच्छी शिक्षा तक ही सीमित ना होता। एक समय आता है जब बेटा बड़ा भी नहीं हुआ होता है और मां-बाप को अपना घर बित्ते भर का लगने लगता है। और बेटे के नाम फ्लैट खरीदने की जुगत होने लगती है। माता-पिता जीवन भर बेटे के लिए पर्याप्त जमीन एवं सुविधाएं खरीदने में परेशान रहते हैं, और जितना खरीदते हैं वो सब उन्हें उतना ही कम लगता है। इस चक्कर में वे बेटे की कई पीढ़ियों के लिए सुविधाएं जुटा जाते हैं।
 
बेटियां का जन्म तो घर से सिर्फ विदा लेने के लिए होता है। मायके से ससुराल और ससुराल से मायके। बेटियों को लेकर मां-बाप के अरमान जमीन या फ्लैट जैसे नहीं होते। लेकिन एक अच्छे वर के साथ मोटे दहेज की चिन्ता जरूर रहती है। यह चिंता  शायद बेटी के जन्म के बाद से ही हो जाती है। दो बेटियों से भरे घर में सिर्फ एक बेटे के ना होने से मां-बाप को लगता है इतना बड़ा घर और रहने वाला कोई नहीं। उस वक्त घर में बेटियों की गिनती न के बराबर होती है।मां-बाप हमेशा मुरझाए रहते हैं जैसे जीवन में कोई रस ही नहीं। पड़ोसिन से बात करते हुए मां अक्सर रो दिया करती जैसे एक बेटे के बिना वह कितनी बेबस कितनी लाचार है। बेटा होता तो वह एक नहीं कई बार मुहल्ले की औरतों से पूछती कहां खरीदी नई जमीन, कितने का लिय़ा नया फ्लैट।.क्या घर और जमीन की जरुरत बेटियों को नहीं पड़ती?

बुधवार, 26 मार्च 2014

'बस' एक सनम चाहिए..



बस चल रही है। जितने बैठे हैं उससे कहीं ज्यादा खड़े हैं।पुरुष हैं, महिलाएं हैं, बच्चे हैं। कोई कहीं जा रहा है तो कोई कहीं। किसी को जल्दी पहुंचने की हड़बड़ी है तो कोई फुरसत को पीठ पर टांगे चल रहा है। कोई घर से बिना खाए निकला है तो कोई झगड़ा करके। जितने लोग उतने तरह की स्थितियां-परिस्थितियां। ड्राइवर गाने बजा रहा है। अल्का याज्ञनिक की आवाज के साथ कभी कुमार सानू तो कभी उदित नारायण को बदल रहा है। वह अपने मनचाहे गीत सुन रहा है। कुछ यात्री बजते हुए गाने के साथ गुनगुना रहे हैं तो कुछ की उंगलियां गाने की धुन पर सीट पर ही नाच रही हैं। किसी को गाने से सिर दर्द हो रहा है तो किसी को गाना बेहद उबाऊ लग रहा है।

 एक अपने बगल वाले के कहता है..इससे अच्छा होता कि कोई भक्ति गाना बजाता। दो लड़के कह रहे हैं.. लगता है इसके पास नए गानों का कलेक्शन नही है। कोई बिरहा सुनने की इच्छा जता रहा है जो ड्राइवर तक पहुंच नहीं रही है तो कोई..जो कि नींद में बार-बार अपना सिर बगल वाले के कंधे पर पटक रहा है, बुदबुदा रहा है कि साला ई का बजा रहा है..भनन-भनन लगाया है, नींद टूट जा रही है। 
दो-चार लोग उबकर जो कि मल्टीमीडिया मोबाइल के साथ ईयर फोन लेकर बैठे हैं, कान में खोंसते हैं और ढिच्चक..ढिच्चक सुनने लगते हैं। जो लोग ड्राइवर की पसंद को झेल रहे हैं उनके पास कोई और चारा नहीं है। ड्राइवर के साथ बेवफाई हुई है..उसका सनम उसे छोड़ कर चला गया है। ड्राइवर पचास किलोमीटर की दूरी के हिसाब से बेवफाई और बिछड़े सनम जैसे गानों को इकट्ठा कर के रखा है। बस में बैठे लोग यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि पांच-दस किलोमीटर तक एक के बाद एक ऐसे गाने बजने के बाद शायद सनम की जुदाई का भूत उतरे और गाना बदल जाये लेकिन प्रति किलोमीटर की रफ्तार से उम्मीदों पर पानी फिरता जा रहा है। 
 बस का माहौल बेवफाई मय हो गया। लोग चिड़चिड़ेपन का आंसू पीकर रह गए। बस जब अपने ठिकाने पर पहुंची तो सभी लोग भरभरा कर निकले।