शाम के समय कोई सामान या सब्जी खरीदने के लिए बाजार या चौराहे तक निकलती हूं । उस वक्त आसपास के मंदिरों में आरती हो रही होती है या हो चुकी होती है। मंदिर के पंडित जी आरती की थाली और गंगाजल लिए पास के दुकानों पर घूमते दिख जाते हैं। सब्जी के ठेले पर कई बार ऐसे पंडित जी से पाला पड़ा है। बिना कुछ पूछे भगवान के नाम पर बुदबुदाते हुए माथे पर रोली या तिलक टीप देते हैं। उसके बदले एक या दो रुपए उन्हें देना ही पड़ता है। ना देने पर वह हमारी विद्या के घटने या बढ़ने को लेकर ना जाने क्या-क्या बोलने लगते हैं और पीछा नहीं छोड़ते।
पंडित जी किसी भी सामान के दुकान पर इकट्ठे लोगो के माथे को ऐसे ही रंगते हैं और फुटकर-फुटकर में गुल्लक भरने लायक मुद्रा जमा कर लेते हैं।मंदिर में आरती रोज होती है...शाम को सब्जी भाजी जैसी चीजें खरीदने के लिए चौराहे तक आना ही पड़ता है। भगवान के नाम पर कुछ बुदबुदाते हुए पंडित जी वहीं पत्थर बन जाते हैं।
ऐसी चीजें कभी-कभी ही अच्छी लगती हैं। रोज माथा रंगवाना अचानक पागल हो जाने के बराबर लगता हैं। सब्जी वाले के यहां एक-दो रुपए उधार रह जानें की चिन्ता नही रहती जितनी इस पंडित के थाली में झोकने की। रोज की बात है यार...ऐसे तो पंडित जी भगवान से आस्था ही खतम कर देंगे। हद है...नहीं?
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