रविवार, 18 मई 2014

पंगु को पंगु बना दिया



एक कामकाजी मां-बाप का बेटा अर्पित बचपन से ही विकलांग था। लेकिन तेज बुद्धि का, हंसमुख एवं होशियार था। अपना बायां पैर जमीन पर ठीक से नहीं रख पाता था उसके पैर की एड़ी उठी रहती थी और दाएं हाथ की हथेली पूरी फैलती नहीं थी बाकी उसके सारे अंग ठीक से काम करते थे। एक हाथ एवं पैर से विकलांग होने पर उसे सिर्फ इतनी दिक्कतें आती थीं कि वह अपने दाएं हाथ की पूरी हथेली खोले बिना ही किसी सामान को पकड़ने की कोशिश करता था। मां-बाप को उसकी इतनी फिक्र थी कि उसे कभी स्कूल बस से स्कूल जाने का मौका नहीं दिया गया उसके लिए घर से ही एक अलग गाड़ी व ड्राइवर की व्यवस्था की गई। वह स्कूल जरुर जाता था लेकिन अपने सहपाठियों से कम बातें करता था। कालोनी के बच्चों को देखकर उसका भी मन होता था साइकिल सीखने का लेकिन उसके मां-बाप ने कहा इसकी क्या जरुरत है गिर जाओगे चोट लग जाएगी। मां-बाप उसे उसके मन का कोई काम नहीं करने दिए। यहां तक कि ग्रेजुएशन की पढ़ाई भी घर बैठे हुई। इस तरह अर्पित न तो साइकिल चलाना सीख पाया ना अकेले कहीं आ जा पाया और ना ही दोस्त बना पाया। घर में बैठाकर उसके मां-बाप ने उसे दुनिया दिखायी।

पांच साल पहले अर्पित की शादी हुई। आज उसकी चार साल की एक बेटी भी है। शादी से पहले उसके मां-बाप उसकी विकलांगता की वजह से कहीं जाने नहीं दिए ताकि उसे कोई परेशानी ना हो। शादी के बाद से अब तक अर्पित अपनी बीवी को कहीं भी घुमाने के लिए नहीं ले गया ना ही किसी शॉपिंग या खाने पीने या मौज मस्ती के लिए बाहर ले गया। उसकी बीवी समझदार है और इन बातों को लेकर कभी कोई जिद नहीं की। अर्पित की बीवी एवं बेटी के लिए हर एक सामान की खरीददारी उसकी मां करती हैं। अब अर्पित की बेटी का एडमिशन कालोनी के पास ही एक स्कूल में करा दिया गया है। बाकी बच्चों की तरह वह भी जिद करती है कि वह पापा की उंगली पकड़कर उछलते हुए स्कूल  जाएगी लेकिन उसके पापा को यह पसंद नहीं। उस नन्ही गुड़िया को उसके दादा स्कूल छोड़ने जाते हैं। इस तरह मां-बाप ने अपने बेटे को विकलांगता के चलते घर से बाहर नहीं निकलने दिया उसका हश्र यह हुआ कि अर्पित को घर के अलावा कोई जगह अच्छी नहीं लगती। वह अपने ससुराल वालों के सामने आने से भी कतराता है।

कभी-कभी मां-बाप बच्चों की सुख सुविधाओं का खयाल इस कदर रखते हैं कि वह आगे बच्चों के लिए परेशानी का सबब बन जाता है। अर्पित विकलांग जरूर था लेकिन सिर्फ इतना कि वह अपना पैर जमीन पर ठीक से नहीं रख पाता था, हाथ की हथेली फैला नहीं सकता था। लेकिन ये समस्या उसके किसी भी काम में बाधा नहीं बनी। बाधा बने तो उसके मां-बाप। उन्हें डर था कि कहीं बच्चे को अकेले भेजने पर कोई परेशानी ना हो। साइकिल से गिरने पर उसे चोट ना लग जाए, खेलते वक्त कोई बच्चा उसे मार न दे। इन्हीं सब बातों का वहम पाले अर्पित के माता-पिता ने उसको किसी भी चीज की आजादी नहीं दी। और उस पंगु को इस तरह पंगु बना दिया कि वह घर की दहलीज से आगे नहीं बढ़ पाया। अब अर्पित के बेटी को भले ही पिता का प्यार मिलता रहे लेकिन घर-बाहर की परेशानियों से लड़ने के लिए उस गुड़िया को किसी भी तरह का सहयोग नहीं मिलेगा।

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

ऐसे भी लोग हैं..

कुछ लोग साधारण होते हुए भी दुनिया के लिए अजूबा होते हैं। कोई अपने दांत से तार खींच देता है तो कोई कई फीट ऊंचे टॉवर पर चढ़ जाता है। ये लोग जहां ऐसे कारनामे करते हैं वहां इन्हें देखने वालों की भीड़ लग जाती है।
लेकिन हमने ऐसे छोटे या बड़े कारनामें अपनी आंखों से सिर्फ टीवी में ही देखा था। तस्वीर में जो शख्स आपको दिख रहे हैं ये आम आदमी की तरह साधारण होते हुए भी असाधारण हैं। बचपन में लोग दादी-नानी से कहानियां सीखते हैं, जनाब ने बचपन में अपनी दादी से पान खाना सीखा। कभी-कभार पान दांत में फंस जाता था, ये सींक से दांत साफ करते, सींक जल्दी टूट जाती। इससे ऊबकर इन्होनेंं एक लोहे की पेपर पिन मुंह रखनी शुरू की। जरूरत पड़ने पर उसी से दांत में फंसा पान निकाल लेते। कभी-कभी एक-दो पिन मुंह से बाहर निकालना ही भूल जाते। और आज....ये पूरे सतना शहर में अपने मुंह में एक नहीं बल्कि पूरे दस दजर्न पेपर पिन रखने के लिए जाने जाते हैं। महाशय पेशे से मैकेनिक हैं..बताते हैं कि पिछले 33 सालों से मुंह में दस दर्जन से अधिक पेपर पिन रख रहा हूं। यहां तक कि अपनी शादी वाले दिन भी मुंह में इतने ही पिन दबाकर ससुराल पहुंचा था। पहले घर वालों को आपत्ति थी लेकिन अब किसी को याद भी नहीं रहता इस बात का। पेपर पिन चौबीस घंटे इनके मुंह के अंदर ही रहता है। उठते-बैठते, खाते-पीते यहां तक कि ब्रश करते हुए भी। है ना...अजूबे वाली बात।।।



गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

हाय!! ये मेरी चुहिया जैसी पूंछ..

सिर के बाल तेजी से झड़ रहे हैं। बहुत चिंता हो रही है। ऐसे ही झड़ते रहे तो कुछ दिन में चुहिया की पूंछ की तरह हो जाएंगे। बचपन से ही लंबे रहे हैं मेरे बाल। बड़ी दीदी छुट्टियों में जब भी घर आती थीं, नाई के पास ले जाकर मेरा टकला बनवा देती थीं..और हम अपने सारे बाल को एक पॉलिथिन में भरकर हाथ में पकड़े रोते हुए घर चले आते थे।
पापा और दीदी में  मेरा टकला बनवा देने को लेकर हमेशा लड़ाई होती थी। पापा को लंबे बाल..लंबी चोटियां पसंद थी..जबकि दीदी कहतीं कि अभी ये छोटी है। बचपन में  जल्दी-जल्दी टकला बनवाने से हर बार पहले से ज्यादा घने बाल उगते हैं। बड़ी होगी तो इसके बाल घने, लंबे और सुंदर होंगे।

खैर..हुआ भी ऐसा ही..जब स्कूल जाने लगी तो मां बाल में पराशूट नारियल का तेल लगाकर लाल फीते से दो चोटियां बांधकर लटका देती थी..सुबह-सुबह जैसे गमले में बड़े-बड़े फूल खिल जाते हैं..वैसे ही। रोज फीते से बाल बांधने से बाल जल्दी ही बढ़ने लगे और काफी लंबे हो गए। फिर मां जब भी स्कूल के लिए मेरी चोटियां बनाती..स्कूल में दोपहर तक ही चोटियां ढीली हो जाती थी। फिर हम भी थोड़े बड़े होने लगे..तो समझने लगे कि ढीली चोटियां तो अच्छी ही नहीं लगती। फिर स्कूल जाते समय चाची से जिद करके चोटियां बनवाते। चाची लाल फीता लगाकर ऐसी कस की चोटियां बनातीं कि अपने सिर को इधर से उधर घुमाने में गर्दन के नीचे की त्वचा खींच जाती थी। रात में सोने के बाद भी चोटियां ढीली नहीं पड़ती थी। चाची के पास वक्त कम होता था..वे रोज मेरी चोटियां नहीं बनाती थी। चाची की बनायी चोटियों पर ही हम कंघी से आगे के बाल को थोड़ा चिकना कर हेयर क्लिप लगाकर चल देते थे।
गांव छूटा..पढ़ने के लिए जब शहर आए..तब पता चला कि लड़कियां कितने तरह से बाल कटाती हैं। और कौन सा कट कैसे चेहरे पर फबता है। लेकिन हम कभी बाल ना कटाए। हमें अपने लंबे बालों से बहुत प्यार रहा है। मां जब भी फोन करती अक्सर पूछती दूसरे लड़कियों की देखा देखी बाल तो नहीं कटाए? और मैं हंस कर उसे प्यारी सी सांत्वना देती। घर जाने पर मां धूप में बैठाकर बाल खींच खींच कर सरसो का तेल लगाते हुए बड़बड़ाती है कि बाल नहीं कटाकर महारानी जैसे हम पर एहसान कर दी हैं।देखो.. बाल कितने तेल  सोख रहे हैं फैशन के चक्कर में तो बालों पर ध्यान ही नहीं जाता। और मैं मां की बातें सुनते सुनते लुढ़क जाती हूं।

सच बताऊं तो बालों में तेल लगाती ही रही हूं। शहर का पॉलूशन..धूल मिट्टी..गाड़ियों के धुएं,खाने पीने में मिलावट और इन सबसे बढ़कर अपनी खुद की दिमागी टेंशन मेरे लंबे बालों को चौपट कर रही हैं। क्या करुं....वैसे डॉक्टर बत्रा तो बिना कहे ही समझ जाते हैं..उनके मैसेज से मेल बॉक्स भरा पड़ा है। 

रविवार, 6 अप्रैल 2014

कभी देखी है ऐसी चोरी?


अखबारों में पढ़ा था..लोगों से सुना था कि बालू की चोरियां भी होती हैं। आधी रात को या भोर के वक्त ट्रैक्टर भर-भर कर बालू नदियाें से गायब हो जाता है। लेकिन ऐसी चोरियां मैनें कभी नहीं देखी थी। नदी किनारे बैठे हुए एक दिन नदी में धीमी प्रवाह में आते हुए एक नाव पर नजर पड़ी। दूर से ही इतना पता चल पा रहा था कि नाव भरी है.. लेकिन यात्रियों से नहीं..बल्कि किसी और चीज से..।
नाव बहते हुए पास आ गई..बीच नदी..आंखों  के बिल्कुल सामने। चित्र में देखा जा सकता है बालू के वजन के साथ नाव में कितने लोग बैठे हैं..जो नदी से बालू चोरी करके ला रहे हैं..। इतने वजन के बाद भी नाव कैसे चल रही है..ये तो मुझे समझ में नहीं आया...लेकिन हां..मैने बालू की चोरी देख ली..वो भी ट्रैक्टर की ट्राली में भरी नहीं..बल्कि नाव में भरी।

कैसे लगता है धंधे पर बट्टा!!


लख्खू प्रजापति पेशे से कुम्हार है। पिछले पचास सालों से बाप-दादा के इस पुस्तैनी धंधे को सीने से लगाए बैठे हैं। देश में चुनाव की गर्मी है। किसी विशेष की हवा भी चल रही है। लेकिन इनकी झोपड़ी को यह हवा नहीं छूती। ना इनके जीवन में मोदी हैं.. ना ही कोई और पार्टी। आधुनिकता ने इनकी रोजी-रोटी पर बट्टा लगा दिया है।इतना की  मिट्टी के बर्तन रखे रह जाते हैं और लोग खरीदने नहीं जाते। स्थिति यह आ गयी है कि दो जून की रोटी के लिए इस उम्र में पत्नी के साथ दूसरों के खेतों एवं घरों में मजदूरी करते हैं।



दिन भर की मेहनत के बाद मिट्टी से गढ़े गए हैं ये सुन्दर मटके..शाम की हल्की धूप ले रहे हैं।
खुद का पैर पसारने की जगह नहीं है...लेकिन जितना भी जगह है उसमे उन्होंने मिट्टी के बर्तनों को करीने से सजा कर रखा है ताकि मेहनत पर पानी ना फिरे और ये नाजुक बर्तन सुरक्षित रहें।

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

भूख तो मार ही डालती..


कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र अपने तीन मित्रों के साथ फिल्म देखने गए। रात का शो था इसलिए लौटने में रात के साढ़े ग्यारह बज गए। भूख तेज लगी थी..इतनी रात को कहीं कुछ खाने के लिए नहीं दिख रहा था।कमरे पर पहुंचकर खाना बनाते तब कहीं जाकर खाते..। लेकिन यहां तो भूख के मारे जान जा रही थी। रास्ते भर सड़क किनारे घूरते हुुए चले आ रहे थे कि कहीं कुछ खाने को मिले तो जान में जान आए। काफी दूर चलने के बाद बाटी चोखा बिकने वाला एक ठेला दिखा। मित्र अपने दोस्तों के साथ दौड़े  जैसे जो पहले पहुंचेगा वो ज्यादा खाएगा।बाटी -चोखा वाला सारा सामान समेट चुका था और अपने लिए पांच बाटियां सेंक रहा था। इन लोगों ने उससे निवेदन किया कि बड़ी भूख लगी है कुछ खिला दो। वह बोला सिर्फ पांच बाटियां हैं ..दिन भर बेंच कर थक गया हूं ..जोर की भूख लगी है मुझे ..मैं किसी को नहीं खिलाउंगा। इन लोगों ने कहा चाहे जितने पैसे ले लो...लेकिन खिला दो। वह बोला बाटी अभी कच्ची है..उपले ठंडे पड़ गए हैं...ठीक से सेंक नही पाया हूं...।चारों ने चार कच्ची बाटियां उठायी और राक्षसों की तरह खाने लगे..हालांकि बाटी मुंह में जाने पर गीला आटा बन चुका था। लेकिन भूख में उन्हें यह किसी अमृत से कम नहीं लग रहा था। सिर्फ एक बाटी बची थी जो बेचने वाला खाया।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

अपने-अपने जुगत में...


एक नदी के किनारे का दृश्य है ये। देखिए ना..ये दोनों कैसे अपने जुगाड़ में लगे हैं एक नदी के किनारे का दृश्य है ये। देखिए ना..ये दोनों कैसे अपने जुगाड़ में लगे हैं. बच्ची इन कचरों के ढ़ेर में सिक्का खोज रही है..तो कुत्ता खाने पीने का सामान...दोनों की जरूरत पेट भरना है...आजकल आदमी कुत्ता हो गया है या कुत्ता आदमी...मुश्किल हो रहा समझना.