यह श्रेय श्रेया को जाता है
कि इनका चित्र उतारने में हम सफल रहे वरना पुराने कपड़ों में फोटो खिंचाने से
इन्हें गुरेज है। इनके जीवन की पिछली दो दीवाली ऐसे ही बीत गई..घर वालों ने इन्हें
पटाखे नहीं दिलवाए..अबकि इनकी तीसरी दीवाली है, मुहल्ले के बच्चों ने इनके कान भर
दिए कि दीवाली में किन-किन चीजों की फरमाईश करनी है...
तो शुरुआत यहां से हुई कि
आज जब दीपक बांटने वाले कुम्हार घर आए तो इन्होंने मिट्टी की बनी चक्की लेने की
जिद की...जब इनसे पूछा गया कि चक्की का क्या करोगी तो बोलीं- धूल पीसेगें..फिर उसे
कपड़े मे चालेंगे...फिर उसे पानी मे सानकर हलुवा पूड़ी बनाएंगे और धूप में
सुखाएंगे...और कल दुकान लगाकर उसे बेचेगें। बाकी पटाखे, मिठाई और कपड़ों के जुगाड़
में लोग लगे हैं इनके खातिर।
बचपन को करीब से देखना
कितना प्यारा लगता है, आजकल बस मैं भी इनका मिट्टी का बना हलवा पुड़ी बेचवाने में
मदद कर रही हूं।
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