मैनें पहली बार किसी का वध
होते हुए देखा था, एक मरे हुए जानवर का वध, जिसे मरने के बाद भी मारने की
प्रक्रिया पूरी की जा रही थी। उस वक्त स्कूल से छुट्टी हुई थी औऱ मैं कच्चे
रास्तों से होते हुए घऱ आ रही थी। उसी वक्त मैने पहली बार देखा था, एक आदमी सूखी
नहर के बीचो-बीच एक भैंस को काट रहा था। घर आने पर दिमाग में सिर्फ लाल मांस का
लोथड़ा ही घूम रहा था, औऱ खाना खाते वक्त मैनें कई बार उल्टियां की थी।
दूसरी बार मैने उस आदमी को
तब देखा जब मेरे भैंस का बच्चा मर गया था औऱ वह उसे लेने घर आय़ा था। उसका बारह साल
का लड़का दरवाजे पर ट्राली औऱ एक मोटा रस्सा लेकर खड़ा था। तब मुझे पता चला कि वह
हमारे गांव का ही एक आदमी है। उसका नाम जवाहर था, दुनिया वाले उसे जवाहिर डोम
बुलाते थे।
उसकी आवाज मुझे श्री कृष्ण
के कंस मामा की तरह लगती थी। मैं जब भी रामानंद सागर कृत श्री कृष्णा में कंस को देखती,
मेरी आंखों के सामने जवाहिर डोम की छवि आ जाती।
मरे जानवर के चमड़े उतारने
के अलावा वह छत्तीस सूअरों का मालिक था, साथ में बांस के डंडियो से बेना, सूप और
टोकरी बनाकर उसे रंग-बिरंगे रंगों में रंग कर बेचता था।
मैनें देखा था जब भी वह
हमारे दरवाजे पर सूप औऱ बेना लेकर आता था अपनी गठरी से निकालकर उसे फैला देता था
ताकि मेरी दादी उसे अपने हाथों से खुद उठाकर देख सकें। लोग डोम को नहीं छूते थे,
औऱ उससे दूर रहते थे।
जब मैनें दादी से पूछा था
कि आप इन्हें छूती नहीं औऱ इनके बनाए सूप, बेना औऱ टोकरी को घर में इस्तेमाल करती
हैं? तब दादी ने मुझे डांटा था जिसके पीछे का रहस्य आज तक मेरी समझ में नहीं आय़ा।
इस दीवाली जब मैं घर गई, तब मैनें उसी जवाहिर
डोम को कई वर्षों बाद देखा। जो मेरे घर के पिछवाड़े घने बांस के वृक्षों के बीच
लकड़ी बीन रहा था। उस दिन दीवाली थी, गांव वाले बाजार में मिठाईयां छांट रहे थे,
लेकिन ये इधर-उधर भटककर घर का चूल्हा जलाने के लिए लकड़ी का इंतजाम कर रहे थे। अब
भैंस का वध नहीं करते? ऐसा पूछने पर मेरी तरफ गर्दन उठाकर देखा उन्होंने और बोले
अब लोग भैंस ही कितनी रखते हैं? जो है सब खा-पीकर बरियार हैं, मरती ही नहीं हैं।
सूअरें एक के बाद एक खतम
होती गईं। आंख धोखा दे रही है, सूप-बेना कहां से बनाए। किसी तरह पेट का जुगाड़ हो
जाए बहुत है।
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