हम सभी के अंदर आलस नाम का एक भूत बैठा होता है। सभी अपनी-अपनी शक्ति से इसे
परास्त करने की कोशिश करते हैं लेकिन मैं तो ज्यादातर खुद ही परास्त हो जाती हूं
और इसके बाद निराशा हाथ लगती है और फिर आत्मविश्वास कमजोर पड़ जाता है।
कुछ दिनों से सुबह टहलने की आदत छूट गई है। सुबह का अलार्म लगाकर रात में जल्दी सो जाती हूं। सुबह
अलार्म बजने तक नींद भी पूरी हो जाती है। मैं उठकर बैठ जाती हूं फिर जाने कौन सा
भूत चांपता है कि दोबारा सो जाती हूं। थोड़ी ही देर में तेज धूप निकल आती है तब उठने
के बाद खुद को कोसने के अलावा कुछ नहीं बचता। मैं मुंह बना कर ऐसे बैठ जाती हूं कि
इसी मूड में बनी रहूं तो पूरा दिन खराब हो जाए।
दोपहर के तीन बजे मैं कमरे में लेटे हुए यह सोच रही हूं कि मुझे बाजार जाकर
अपनी जरूरी किताबें खरीदनी है। तभी आलस वाला भूत चांपता है और मैं सोचती हूं कि
पांच मिनट बाद ही उठकर तैयार होऊं। पांच की बजाय मैं पंद्रह मिनट बाद उठकर खिड़की
से झांकती हूं तो लगता है अभी तो शाम होने में तीन घंटे बाकी है। क्यों न शाम को
ही जाकर किताबें खरीदूं। वह भूत मुझे काम के प्रति एक्टिव नहीं होने देता और मैं
शाम खोकर रात में प्रवेश कर जाती हूं।
मुझे जोरों की प्यार लगी है और छत्तीस सीढियों को नापते हुए पहले मंजिले पर
उतरकर फ्रिज से पानी लाना है। मैं थोड़ी देर तक प्यास को इग्नोर करती हूं फिर कमरे
में रखी दो खाली बोतलों में एक बूंद पानी इस कदर टटोलती हूं जैसे मरते हुए के मुंह
में एक बूंद गंगाजल डाल देता हो कोई।
सबसे बड़ी बात तो बताना भूल गई। सुबह रोज इसी ऊहापोह में रहती हूं कि पहले
नहाऊं या पहले खाऊं। फिर मेरे अंदर बैठा भूत पहले खाने की जिद करता है और मैं खाना
खा लेती हूं। इसके बाद कुर्सी पर बैठे-बैठे मैं नींद में इस कदर झूलने लगती हूं
जैसे खाना नहीं अफीम की गोली खा ली हो मैंने।
मरने के बाद जो लोग स्वर्ग में जाते होंगे वे वहां का अपना अनुभव जीवित लोगों
को तो नहीं बता सकते। लेकिन मैं जीवित ही नींद में जिस स्वर्ग का अनुभव करती हूं
वो जरूर बता सकती हूं। उस वक्त लगता ही नहीं है कि नींद से बढ़कर भी जीवन में और
कोई सुख है।
हां..ये बात अलग है कि जब सोकर उठती हूं तो दो-चार लोग पूछ बैठते हैं..अरे
चेहरा क्यों इतना सूजा है आपका..तबीयत तो ठीक है ना?
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