सोमवार, 24 मार्च 2014
शनिवार, 22 मार्च 2014
बात समझ में नहीं आयी..
समझाने वाले ने दोनो बातें
एक साथ समझायी थी।चेहरे पर कितना पावडर लगा है, यह लगाने वाले को ट्यूबलाईट की
रोशनी में नहीं समझ में आती। मैथ्स प्रैक्टिस की चीज है उसे इतिहास में हुए युद्ध
के सन् की तरह रटने से कोई कभी पास नही होता।
लेकिन समझाने वाले को यह
नही पता था कि जब दो बातें एक साथ बतायी जाती हैं तो कोई एक ही ज्यादा समझ में आती है। उस दिन से जब कभी वह चेहरे पर
पावडर लगाती, हाथ में शीशा लिए बालकनी मे आकर खड़ी हो जाती और चेहरे के पावडर को
ठीक करती जैसे वह कोई मिसेज शर्मा हो गयी हो।
मैथ की किताब खुली थी, और
वह दोनो घुटनो को सिकोड़कर हाथ बांधे किताब को घूर रही थी जैसे ऐसे घूरने से गणित
के नए फार्मूले ईजाद होकर किताब पर उछलने लगेंगे। उसका मन पढ़ने मे बिल्कुल नही लग
रहा था या वह गणित को इतिहास बना देना चाह रही थी।
छः साल छोटी उसकी बहन छत पर
चटाई बिछाकर सूर्य प्राणायाम कर रही थी और वह अपने हाथों की सूर्य रेखा देख रही थी
जैसे अभी-अभी सो कर उठी हो और उसके हाथों में दुनिया का नक्शा समाहित हो।
बीस बच्चों के साथ शाम में
मैथ की कोचिंग होती थी, जिनके बीच उठकर सवाल पूछने से अच्छा वो मर जाना पसंद करती
थी।
उसकी छोटी बहन नहाकर एक तौलिया
लपेटे बाथरुम से बाहर आती। बालकनी मे सफेद जैसे दिखने वाले फूलों को तोड़कर भगवान
को चढ़ाते हुए यह कहती कि आखिर मेरे पास तो उसी के जितना दिमाग है तो मुझे ही उसकी
जगह नौवीं में पढ़ने को क्यों नही भेज देते। मैं गणित को गणित ही समझूंगी और मेरा
भला हो जाएगा।
गुरुवार, 20 मार्च 2014
जाने क्या करते हैं!!
छोटे बच्चे को पहले अ, अा, इ, ई लिखना सिखाया जाता है फिर क, ख, ग, घ। लेकिन उनसे जब लिख कर दिखाने को कहा जाता है तो वे अ, आ, ई लिखना आने के बावजूद क, ख, ग लिख कर दिखाते हैं।
ऑफिस में एक बूढ़े से दिखने वाले अंकल हैं। टाइपिस्ट हैं। हाथ में एक छोटा सा झोला पकड़े आते हैं। एक बड़ा गोलाकार डिब्बा होता है उस झोले में। शायद खाने का डिब्बा। आकर एक कम्प्यूटर के पास कुर्सी पर बैठ जाते हैं। कम्प्यूटर पहले से ही खुला रहता है। वो क्वार्क पर टाइपिंग पेज खोलते हैं, और बड़े एवं मोटे अक्षरों में ककककक लिख कर इंतजार करते हैं जब तक उनके पास कुछ टाइप करने के लिए ना आ जाए। टाइप तो वो रोज करते हैं। लेकिन जब कंप्यूटर पर बैठते हैं तो ककक लिखकर जाने क्यों उसको देखते रहते हैं। शायद शुऱु से शुरु करते हैं। रोज लिखते हैं, रोज देखते हैं, रोज सीखते हैं,ककक।
ऑफिस में एक बूढ़े से दिखने वाले अंकल हैं। टाइपिस्ट हैं। हाथ में एक छोटा सा झोला पकड़े आते हैं। एक बड़ा गोलाकार डिब्बा होता है उस झोले में। शायद खाने का डिब्बा। आकर एक कम्प्यूटर के पास कुर्सी पर बैठ जाते हैं। कम्प्यूटर पहले से ही खुला रहता है। वो क्वार्क पर टाइपिंग पेज खोलते हैं, और बड़े एवं मोटे अक्षरों में ककककक लिख कर इंतजार करते हैं जब तक उनके पास कुछ टाइप करने के लिए ना आ जाए। टाइप तो वो रोज करते हैं। लेकिन जब कंप्यूटर पर बैठते हैं तो ककक लिखकर जाने क्यों उसको देखते रहते हैं। शायद शुऱु से शुरु करते हैं। रोज लिखते हैं, रोज देखते हैं, रोज सीखते हैं,ककक।
शनिवार, 8 मार्च 2014
सिर्फ एक दिन, आजादी का दिन
आठ
मार्च यानि महिला दिवस, महिलाओं का अपना दिन, उनकी आजादी का दिन। इस दिन विश्वभर की महिलाओं को विभिन्न क्षेत्रों में उनके विशेष योगदान
के लिए सम्मानित कर उन्हें गौरव प्रदान किया जाता है। महिला हमेशा से निर्माण की जननी
रही है। उसने सिर्फ परिवार का ही निर्माण नहीं किया है बल्कि देश की आजादी में हिस्सा
लेकर अपनी काबिलियत को दिखाया है लेकिन अपनी खुद
की आजादी गंवा बैठी।
·ffरत में महिलाओं की स्थिति अन्य देशों की अपेक्षा बेहद दयनीय है। कहा जाता है कि अगर एक महिला शिक्षित हो जाए तो
एक शिक्षित परिवार एवं समाज का निर्माण करती है लेकिन देखा जाए तो यह बात उसके खुद
के लिए मिथक साबित हुई है, क्योंकि जिस परिवार को उसने आगे बढ़ाया, जिस समाज को शिक्षित
कर उसे विकसित किया, आज उसी समाज ने महिला को तुच्छ समझ उसके पैरों में बेड़ियां डाल
दी।
अगर लोगों की मानें तो महिलाओं के प्रति व्यवहार को लेकर समाज में दो प्रकार का
वर्ग है। एक वह जिसने महिला को रसोई में व्यंजन
पकाने व परिवार बढ़ाने की मशीन मान ली, जिससे महिला रसोई से आने वाली गंध में ही सिमट
कर रह गई। दूसरा वर्ग जिसने दुनिया देखी, सोच बदली, और महिला को घर से बाहर कदम बढ़ाने
की आजादी दी। इंदिरा गांधी, मदर टेरेसा, कल्पना चावला, सरोजिनी नायडू जैसी वीरांगनाएं एक ऐसे ही परिवार का उदाहरण हैं, जिन्हें घर से तो आजादी मिली
लेकिन इस समाज ने, देश ने इन्हें आसानी से स्वीकार नहीं किया।
आज
जिस तरह से महिला ही महिला की दुश्मन बन बैठी है, यह महिला सशक्तिकरण के लिए शुभ संकेत नहीं है। यह महिलाओं में फूट जैसी बात है।
जो इन्हें गर्त में ले जा रहा है। जरुरत है तो महिलाओं को अपने में एकता लाने की, एकजुट
होने की, और अपने प्रति पुरुषों और समाज की दृष्टि बदलने की। वरना महिला, महिला दिवस
का एक विषय बनकर रह जाएगी। पुरुष उनके लिए मंच सजाएंगे, ऊंचे ओहदे पर बैठे पुरुष महिलाओं
से महिला की दयनीय स्थिति पर ही भाषण दिलवाएंगे और अगली सुबह महिलाओं
की फिर से दुर्गति करेंगे।
बुधवार, 26 फ़रवरी 2014
फिल्म निर्माता प्रकाश झा के जन्मदिन पर ......
गंगाजल,
अपहरण, राजनीति, चक्रव्यूह और सत्याग्रह जैसी फिल्में बना कर कई नेशनल, फिल्म फेयर
एवं स्क्रीन अवार्ड अपने नाम कर चुके निर्माता
निर्देशक प्रकाश झा का आज 61वां जन्मदिन है।
फिल्म
निर्माता प्रकाश झा का जन्म 27 फरवरी 1952
को बिहार के चंपारन जिले के बेतिया गांव मे हुआ था।उनके पिता किसान थे और घर में खेती-बाड़ी
का काम होता था।
उनकी
स्कूलिंग कोडरमा डिस्ट्रिक्ट के सैनिक स्कूल तिलाया और बोकारो स्टील सिटी के केंद्रीय
विद्यालय झारखंड में हुई. इसके बाद उन्होंने दिल्ली युनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज से
फिजिक्स में बीएससी ऑनर्स किया. इसके बाद उन्होंने पेंटर बनने का निर्णय किया और जेजे
कॉलेज ऑफ आर्टस में एडमीशन लेने मुंबई आ गए.
मुंबई
में पहली बार उन्होनें चांद साहब की फिल्म धर्मा की शूटिंग देखी और फिल्म मेकिंग का
निर्णय किया, और पूणे स्थित फिल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट में एडिटिंग का कोर्स में
दाखिला लिया। उस समय कुंदन शाह, केतन मेहता, ओम पुरी और नसीरुद्दीन शाह उसी इंस्टीट्यूट
में पढ़ते थे। कोर्स के बीच में ही स्टूडेंट एजिटेशन की वजह से इंस्टीट्यूट कुछ दिन
के लिए बंद हो गया और वो फिर मुबई आ गए और फिर कभी वापस नहीं गए.
प्रकाश
झा ने प्रसिद्ध अभिनेत्री दीप्ति नवल से शादी की और इन दोनों ने मिलकर एक बेटी को गोद
लिया। बाद में दोनो अलग हो गए।
प्रकाश
झा कहते हैं-मिट्टी की महक, कच्ची सड़के, पगडंडियां, खेत, और धान की महक मेरे दिलो
दिमाग में बसी है। मैं एक खेतिहर पिता का बेटा हूं। पहली बार घर से भागा तो मुंबई ही
आकर रुका और वहां चांद साहब की फिल्म धर्मा की शूटिंग होते हुए देखा, वहीं से फिल्म
मेकिंग का ख्याल दिमाग मे आया। फिल्म मेकिंग का जूनून इस कदर सवार था कि मैं अपना एक
मिनट भी बर्बाद नहीं करना चाहता था, और फिल्म एंड टेलिवीजन इंस्टीट्यूट, पूणे में एडिटिंग
का कोर्स करने के लिए दाखिला ले लिया। बीच में ही कोर्स अधूरा छोड़कर वापस मुंबई लौट
आया और फिल्म मेकिंग के अपने सपने को साकार करने में जुट गया। मेरी जिंदगी की नई शुरुआत
यहीं से हुई।
सन्
2005 में उन्हें फिल्म आरक्षण और 2011 में फिल्म राजनीति के लिए बेस्ट स्क्रीन प्ले
अवार्ड से नवाजा गया।
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