शनिवार, 5 मार्च 2016

लाइब्रेरी बंद थी !(भाग-2)



वह जब पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ रही थी। उसी दौरान एक गिलहरी उसके पैरों को कुचलते हुए निकल गई। गिलहरी के नाखून की खरोंच उसके पैरों पर आ गई थी। लेकिन वह कुछ इस तरह खुश हो रही थी जैसे मां लक्ष्मी उसके घर में अपने पदचिह्न छोड़ गई हों।

पेड़ के ऊपर दो गिलहरियां टहनियों पर दौड़ते हुए एक-दूसरे से आगे निकलने का खेल खेल रही थी। मच्छर के तीन छोटे बच्चे उसकी आंखों के सामने इस तरह भिनभिना रहे थे मानों उसकी आखों के आशिक हों। कोलाहल के बावजूद दो कुत्ते लाइब्रेरी के पास इतनी गहरी नींद में सो रहे थे जैसे किसी शराबी की पत्नी ने घर में रखी शराब चोरी से इन कुत्तों को पिला दी हो। दो अन्य कुत्ते मैदान में क्रिकेट खेल रहे लड़कों को देख रहे थे। जैसे उनकी मैच देखने की इच्छा इसी जन्म में पूरी होना लिखा गया था।

जैसे ही थोड़ा सन्नाटा छा जाता तब पेड़ पर बैठी एक चिड़ियां जोर से टींटींटीं करने लगती। मानो उसे उसी काम के लिए पेड़ की टहनी पर नियुक्त किया गया हो। पेड़ के पत्ते लगातार पड़ों से विदा ले रहे थे। गुलाब के दो फूल खिलकर डाली से लटक रहे थे। जैसे ही हवी बहती दो फूल एक दूसरे के गले लग जा रहे थे। खूबसूरत पत्तों से सड़क ढकी हुई थी। देखने में ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी दूसरे देश की सड़क हो।

कबूतर जैसी दिखने वाली कुछ चिड़िया सड़क पर दाने चुग रही थीं। जैसे अमरीश पुरी साहब तो सुबह से ही चावल के दाने डाले चिड़ियों का इंतजार कर रहे हों और चिड़ियो को अब जाकर फुर्सत मिली हो। 

उसके सफेद दुपट्टे पर पेड़ से कुछ चीटें गिर रहे थे और गिरते ही उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे अर्श से फर्श पर आ गए हों। कुछ चीटियां भी उसके सफेद दुपट्टे पर पेड़ के ऊपर से गिर रही थी जिनके चेहरे और आंखों को नॉर्मल आंखों से देख पाना संभव नहीं था। नन्हीं चीटियां उसके सफेद दुपट्टे पर इस कदर दुबक रही थीं मानों उन्हें शैतानी करने के लिए साफ-सुथरा सफेद चादर वाला बिस्तर मिल गया हो।

सड़क पर बिछी पेड़ों की पत्तियां हवा के साथ कुछ यूं पलट जा रही खीं जैसे करवट बदल रही हों।
धीरे-धीरे शाम हो गई। सूरज ढलने को आ गया था। उसने अपनी किताबें अपने झोले में रखी और हॉस्टल का रास्ता एक बार फिर नापने के लिए निकल गई।

गुरुवार, 3 मार्च 2016

लाइब्रेरी बंद थी! (भाग-1)

उस दिन लाइब्रेरी बंद रहती थी। उसे यह बात मालूम नहीं थी। वह रोज की तरह पीठ पर अपना झोला टांगे हॉस्टल से निकली और करीब दो किलोमीटर रास्ता नापते हुए लाइब्रेरी पहुंच गई।
राजकीय पब्लिक लाइब्रेरी की गेट पर ताला लटका था। उसे लाइब्रेरी के कैंपस में एक लड़का बैठा दिखा। उसने लड़के से पूछा-लाइब्रेरी बंद क्यों है? गेट पर तो ताला लटका है फिर आप अंदर कैसे गए?

लड़का अपने कानों में इयरफोन लगाए हुए था। वह उसकी तरफ ऐसे देख रहा था जैसे उसकी आवाज भी वह इयरफोन के जरिए ही सुनना चाह रहा हो। अंदर से ही वह जोर से बोला-लाइब्रेरी नहीं खुली है। उसने पूछा- आज तो संडे भी नहीं है फिर बंद क्यों है? इस बार लड़का जवाब देने के मूड में नहीं था।

वह लाइब्रेरी के पास ही पेड़ की छाया में बैठ गई। उसने पिछले दो दिनों में लाइब्रेरी में जो नोट्स बनाए थे, उसे झोले से निकाली और पढने लगी। लाइब्रेरी के दोनों तरफ बड़े-बड़े मैदान थे। वहां पेड़ों की छांव में बैठकर बहुत सारे लोग पढ़ाई कर रहे थे।
उन बहुत सारे लोगों में सिर्फ वही एक लड़की थी। पढ़ाई करने वाले लड़के पहले उसने मिनटों घूरते रहे और फिर जल्द ही स्वीकार कर लिया कि इस जगह पर पढ़ाई करने का सबको समान अधिकार है।

कुछ ही देर बाद लाइब्रेरी के कैंपस से दो लड़के गेट के पास आए। एक ने गेट पर लगे ताले पर बिना चाभी के अपनी उंगलियां चलाई और ताला खुल गया। लड़कों के पीछे एक बुजुर्ग हाथ में दूध का डिब्बा लिए आ रहे थे। गेट पर पहले से खड़ा एक लड़का गेट खुलते ही अंदर जाने लगा। लेकिन बुजुर्ग ने उसे जोर से डांटा और अंदर जाने से रोक दिया। उन्होंने ताले में चाभी लगायी और गेट में ताला लटका दिया।

वह पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ाई कर रही थी। बीच-बीच में उसे कुछ लड़कियां दिखाई पड़ रही थीं जो किसी लड़के का हाथ पकड़कर और चेहरे को दुपट्टे से ढककर आ रही थीं। 

थोड़ी देर बाद पीठ पर बैग टांगे लाइब्रेरी की गेट पर एक लड़का आया। वो वही था, जिसने लाइब्रेरी के अंदर कल उसे दो बार मुड़कर देखा था। उसके चेहरे पर एक प्यारी मुस्कुराहट थी। वह उसके पास आया और पूछा- लाइब्रेरी क्यों बंद है? उसने कहा- शायद गुरुवार को बंद रहती है। वह अपने बैग से पानी की बोतल निकाला, एक घूंट पानी पिया और वापस लौट गया।

अब उसे भूख लगने लगी थी। वह अपने बैग से टिफिन और चम्मच निकाली और हलवा खाने लगी। इसी दौरान नल से बोतल में पानी भरकर तीन लड़के उसके बगल से गुजरे। एक ने दूसरे से कहा-सोच रहा हूं इस बार गांव जाऊं तो शादी करके पत्नी को साथ ले आऊं। जब मैं लाइब्रेरी पढ़ने के लिए आऊंगा तो कम से कम वह टिफिन बनाकर तो देगी। शायद उसे भूख लगी थी। वह उसे अपना हलवा देना चाह रही थी। लेकिन उसे खुद नहीं पता चला कि उसका टिफिन कब खाली हो चुका था। उसने पानी पिया और फिर से पढ़ाई करने में जुट गई। 

लोग लगातार आ रहे थे और लाइब्रेरी की गेट पर ताला लटका देखकर वापस लौट जा रहे थे। कुछ लोग लाइब्रेरी की बाऊंड्री फांदकर अंदर जा रहे थे और जमीन पर चादर बिछाकर पढ़ाई कर रहे थे।
लाइब्रेरी के ठीक सामने पेड़ के नीचे बैठकर पढ़ना उसे काफी अच्छा लग रहा था। अचानक उसे पीछे से पांच लड़के आते हुए दिखाई दिए। चार लड़के कद में छोटे  और लगभग एक बराबर कद के थे लेकिन पांचवा लड़का कद में उन चारों से बड़ा था। उसकी शर्ट पर रंग-बिरंगे फूल-पत्तियां बनी थी। उसने अपनी दोनों आंखे काले चश्में से ढक रखी थी। वह लड़का उसके बगल से गुजरा और उन चारों लड़कों में से जाने किससे बोला-नंबर मांग लो मैडम का, तभी तो पटा पाओगे। यह कहते हुए वे पांचों एक साथ हंसे जैसे वह दुनिया की सबसे आनंदमयी बात रही हो, और वहां से आगे बढ़ गए।

इस बीच घूमकर चाय बेचने वाला उससे चार बार चाय के लिए पूछ चुका था और वह दस बार मना कर चुकी थी।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2016

पलाश की दीवानी



बारिश होने पर जैसे मोर झूमता है, उसका भी मन वैसे ही झूमता है जब वह पलाश के फूलों को देखती है। लहरतारा पुल से गुजरने पर पुल के नीचे फूलों से लदे पलाश के पेड़ उसकी एक नजर के आतुर दिखते हैं। पुल से गुजरते वक्त वह पलाश के फूलों को वह जी भरकर निहारती है और अपनी आंखों में कहीं छुपा लेती है। उसे उस रात सिर्फ पलाश के ही सपने आते हैं। वह उन्हें महसूस करती है, आधी रात को जब उसे सपना आता है कि वह पलाश के पेड़ के नीचे उसके नर्म फूलों के बिस्तर पर लेटकर कोई प्रेम कहानी पढ़ रही है। 
 
वह शहर भर के रास्तों को जब नापती है तो उसे इस बात का गुमान होता है कि आगे न सही लेकिन उसके आगे पलाश का पेड़ जरूर दिखेगा। लेकिन मानो शहर ने पलाश को पलायन का रास्ता दिखा दिया हो। वह निराश हो जाती है। वह रास्ते में जहां कहीं भी छह-सात पेड़ों का झुंड देखती है, देखती ही जाती है, मुड़-मुड़ कर देखती है कि उन पेड़ों के बीच से कहीं पलाश न झांककर उसे देखे। वह दीदार करना चाहती है तो सिर्फ पलाश के फूलों का। वह उन फूलों को अपने में समा लेना चाहती है। वह दीवानी है तो बस पलाश के फूलों की।

बुधवार, 27 जनवरी 2016

फुदक-फुदक कर आयी चिड़िया!



सुबह वॉक पर जाते समय रास्ते में एक घर पड़ता है। उस घर में दो सफेद और रेशमी बाल वाले कुत्ते रहते हैं। सुबह वे दोनों कुत्ते घर के बाहर अकेले टहलते दिख जाते हैं। एक दिन अचानक उन कुत्तों पर नजर पड़ी तो देखा कि दोनों कुत्तों के माथे पर गहरे काले रंग का लंबा सा टीका लगा हुआ था। उस वक्त दोनों कुत्ते अपनी पूंछ हिलाते हुए सड़क पार कर रहे थे। उनके माथे पर टीका देखकर मुझे हंसी आ गई। मेरे साथ चल रही एक आंटी ने बताया कि इन कुत्तों को लोगों की नजर लग जाती है और ये बीमार पड़ जाते हैं इसलिए इन्हें नजर से बचाने के लिए काजल का टीका माथे पर लगाया गया है।

मां भी तो ऐसा ही करती है न। अपने बच्चों को बुरी नजर से बचाने के लिए उसके माथे पर टीका लगा देती है।

आजकल लोगों में पालतू जानवरों के प्रति के एक गहरा प्रेम देखने को मिलता है। कॉलेज के दिनों में मेरे हॉस्टल की एक लड़की सफेद रंग का चूहा पाली थी। जब भी वह कहीं जाती तो चूहे को एक बैग में भरकर पीठ पर लटकाकर ले जाती। क्लास के दौरान भी चूहा उसकी बैग में ही बैठा रहता। कुछ लोगों ने उसे यह कहकर डराया कि वह हर वक्त चूहे के साथ रहेगी तो उसे प्लेग हो जाएगा इस पर वह चूहे को और ज्यादा दुलारने लगती।

मेरे घर के आंगन में दो चिड़िया आया करती थीं। दोनों के पैर में एल्युमिनियम के तार पहनाए गए थे। जब भी चिड़िया आंगन में आकर चावल चुगती..हम लोग जोर से चिल्लाते कि देखो पायल वाली चिड़िया आ गई। उन्हें देखकर बड़ा मजा आता था। पैर में एल्युमिनियम का पायल पहनने की वजह से वे अन्य चिड़ियों से थोड़ा अलग दिखा करती थीं। हमारे मुहल्ले में एक चाचा के घर जब मुर्गी ने अंडे दिए और जब उसमें से चूजे निकले तब चाचा ने सभी चूजों को लाल, पीले और गुलाबी रंगों से रंग दिया...वे देखने में इतने सुंदर लगते मन करता कि उन्हें चुराकर अपने घर ले आएं..और उनका नाम टूल्लू, मुल्लू रख दें।

मुझे तो बड़े ही अच्छे लगते हैं ऐसे जानवर जिन्हें हम सजा-संवारकर और भी सुंदर बना देते हैं। जैसे वे हमारे ही भाई-बहन या घर के बच्चे हों।

सोमवार, 25 जनवरी 2016

26 जनवरीः लड्डू खाने का दिन!



हर साल 26 जनवरी और 15 अगस्त पर स्कूल के दिनों की याद आती है। गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले स्कूल में हॉफ डे कर दिया जाता था। छुट्टी के बाद हम लोग दौड़ते हुए घर पहुंचते थे और अपना यूनिफॉर्म निकालकर साफ करते थे ताकि अगले दिन साफ-सुथरा ड्रेस पहनकर 26 जनवरी मनाने स्कलू जाएं।

गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले जब हम अपना यूनीफॉर्म साफ करते तो अगले दिन तक वह सूख नहीं पाता था। जाड़े की कम धूप या कुहरा के चलते ऐसा होता था। हम रात में सोने से पहले यूनीफार्म को उटल-पलट कर देखते की कितना सूखना बाकी है। स्कूल जाकर गणतंत्र दिवस मनाने की इतनी खुशी होती मन में की हम 26 जनवरी की भोर में चार बजे ही उठ जाते। यूनीफॉर्म तब भी नहीं सूखा होता था। उन दिनों मां हमारे बाकी कपड़े जरूर धो देती लेकिन अपना यूनीफॉर्म हम खुद ही धोया करते थे। 26 जनवरी की सुबह स्कूल जाने की तैयारी लेकिन तब तक यूनीफॉर्म सूखा ही नहीं रहता। हम हल्के गीले यूनीफार्म पर ही आयरन चलाते..बार-बार चलाते और इस तरह उसे पहनने लायक बनाते।

बाकी स्कूलों को तो नहीं पता लेकिन यूपी बोर्ड के स्कूलों में गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस मनाने के लिए फूल-मालाएं भी बच्चों से ही मंगाए जाते थे। हमें पता होता था कि हमें फूल लेकर ही स्कूल जाना पड़ेगा। 25 जनवरी की शाम ही हम पड़ोस के घरों से गेंदे का फूल तोड़कर रख लेते थे। कभी-कभी जब फूल ज्यादा इकट्ठे हो जाते तो हम अपने नन्हीं उंगलियों में जाने कितनी बार सूइयां चुभोकर मालाएं गूथा करते थे।

उन दिनों स्कूल के बच्चों में इस बात का ज्यादा क्रेज रहता था कि 26 जनवरी पर किसके स्कूल में क्या मिलता है। लड्डू तो सभी के स्कूल में बांटे जाते थे लेकिन इसके अलावा भी किसी स्कूल में जलेबी तो कहीं आलू दम बच्चों को दोने में दिए जाते थे। आलू दम में मिर्च इतना ज्यादा होता था कि बच्चे इसे खाने में अपनी आंख और नाक के पानी बहा डालते और फिर जमकर पानी पीते।

जब इंटरमीडिएट में गई तो घर से 16 किमी दूर साइकल चलाकर स्कूल जाना पड़ता था। जीआईसी में इंटरमीडिएट की कक्षाएं ग्यारह बजे से चला करती थीं। लेकिन कई विषयों की कोचिंग पढ़ने हम घर से सुबह छह बजे ही निकला करते थे फिर स्कूल की क्लास करने के बाद शाम पांच बजे घर लौटा करते थे। उन दिनों गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस किसी छुट्टी से कम नहीं लगता। 16 किमी साइकल चलाकर सिर्फ गणतंत्र दिवस मनाने जाने स्कूल जाने में हमें बहुत आलस आता था। हमारे दोस्त कहा करते कि अब हम बड़े हो गए हैं सिर्फ लड्डू लेने स्कूल नहीं आएंगे। सबसे ज्यादा शर्म लड़कियों को आया करती थी..26 जनवरी पर स्कूल में लड़के उन्हें कहा करते देखो सिर्फ लड्डू लेने के लिए स्कूल आ गई। और जवाब में लड़कियां उन्हें कहा करतीं अच्छा...तुम लोग क्या झंडे के नीचे शहीद होने स्कूल आए हो। इंटरमीडिएट की कक्षाओं में छात्र-छात्राओं को 26 जनवरी पर फूल-मालाएं लेकर स्कूल नहीं जाना पड़ता था।