सोमवार, 18 जुलाई 2016

जब नींद आयी तो ऐसे आयी...



मैं पिछले दो घंटे से लाइब्रेरी में बैठी हूं। लेकिन जब से बैठी हूं तभी से मुझे जोरों की नींद आ रही है। मैं अपनी चारों तरफ यह देख रही हूं कि कोई मुझे देख तो नहीं रहा कि मैं आते ही सोने लगी। अब तक मैंने एक अक्षर भी नहीं पढ़ा है।

नींद इतनी तेज कि मेरा सिर अपने आप डेस्क पर पटका जा रहा है। इसे सुख की नींद कहते हैं शायद, मतलब सब कुछ भूल कर सोना। लेकिन यहां तो सोने की कोई जगह ही नहीं है। यह नींद बेचैनी वाली नींद साबित हो रही है। 

लाइब्रेरी आने से पहले मैं हॉस्टल में खाना खाकर डेढ़ घंटे तक सोई रही। फिर उठी तो तैयार होकर यहां आ गई। लेकिन नींद तो साथ में ही चली आयी। लगता है यह नींद सुलाकर या फिर रूलाकर मानेगी। क्या करूं...क्या करूं...दिमाग इसी उधेड़बुन में है।

लाइब्रेरी में सोना बिल्कुल अलाऊ नहीं है। किसी ने डेस्क पर अपना सिर झुकाया नहीं कि कहीं से एक बुलंद आवाज सुनाई देती है..फौरन निकलिए बाहर...यह सोने की जगह नहीं है। क्या यह आवाज भगवान की थी...नींद में झूल रहे व्यक्ति को उस वक्त ऐसा ही लगता है..क्यों कि बुलंद आवाज में बोलने वाला कहीं दिखाई नहीं देता है।

मेरी नींद चरम पर है। मुझे सबकुछ धुंधला सा दिखाई दे रहा है। मैं हॉस्टल वापस चली जाऊं..क्या करूं..कुछ समझ में नहीं आ रहा। तीखी धूप है...ऊपर से लाइब्रेरी से मेन रोड की दूरी एक किमी है..वहां तक पैदल जाने के बाद भी कोई रिक्शा मिलने की संभावना है। इस धूप में निकलने की हिम्मत नहीं हो रही लेकिन नींद का क्या करूं।

मैं उठती हूं और बाहर नल के पास जाकर आंखों पर पानी के छींटे मारती हूं। इसके बाद भी आंखें चिपकी जा रही हैं। अचानक इतनी नींद क्यों और कैसे आने लगी..कुछ समझ में नहीं आ रहा। घर के बाहर भी ऐसी नींद आती है बिना किसी वजह के मुझे अब समझ में आ रहा था। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे पूरी रात जगकर मैं किसी की शादी में मंत्र पढ़कर आयी हूं। इतनी नींद कि लाइब्रेरी में बैठे हर चेहरे सिर्फ धुधले रंगों में दिख रहे हैं।

 अब मुझे शक हो रहा है कि कहीं मेरी रूम मेट ने चाय में नींद की गोली डालकर तो नहीं पिला दी मुझे। मैं उड़द की दाल खाकर भी नहीं आयी थी जो एसिडिटी की वजह से नींद आ रही हो।
मैं उठती हूं और थोड़ी देर लाइब्रेरी से बाहर निकलने की सोचती हूं। मैं बाहर निकलकर लाइब्रेरी के गेट तक पहुंचती हूं कि पेड़ से दो जामुन मेरे सिर पर गिरता है। बाहर काफी ग्रीनरी है...यह सब देखना आंखों को राहत देने जैसा है। मैं थोड़ी दूर जाकर एक पत्थर पर बैठ जाती हूं।  थोड़ी देर बैठने के बाद मैं लाइब्रेरी वापस आ जाती हूं। लेकिन फिर भी राहत नहीं..कुछ देर बाद मुझे फिर वैसे ही नींद आने लगती है। अब नींद भगाने के लिए मेरे पास कोई उपाय नहीं है। 

कुछ लोगों को देखा है कि जब नींद आने लगे तो वे लिखने बैठ जाते हैं...पढ़ते वक्त नींद ज्यादा आती है जब कि लिखते वक्त उससे कम। अब मैं लिखने बैठ जाती हूं...तो आंखें धीर-धीरे खुलना शुरू हो जाती हैं। नींद में लिखी गई पोस्ट आपके सामने है।


शनिवार, 16 जुलाई 2016

चांद..आशिक और छत



छत पर आओ न, मुझे तुम्हें देखना है।
-अच्छा जी! अगर मैं तुम्हारे हॉस्टल के सामने नहीं रहता तो कैसे देखती मुझे?
वो मुझे नहीं पता, बस तुम अपनी छत पर आ जाओ।
-लो बाबा, आ गया..अब खुश !
हां..बहुत खुश..आसमान में उस चांद को देखो..कितना प्यारा लग रहा है।
-हां..प्यारा तो लग रहा है..
नहीं..ऐसे मत देखो
-फिर कैसे
पहले चांद को देखो, फिर उसके किनारे रोशनी से बनी धुंध को देखो।
-हां..देख तो रहा हूं।
नहीं..ऐसे नहीं
-फिर कैसे?
पहले चांद को देखो..फिर उसके किनारे की धुंध को देखो..और फिर उसके बगल में जो चमकीला तारा बैठा है उसे देखो।
-अरे वाह...चांद तो वाकई प्यारा दिख रहा है।
चांद प्यारा ही नहीं बहुत प्यारा लग रहा है, लेकिन तुम इसे ऐसे मत देखो।
-फिर कैसे?
ये जो चर्च दिख रहा है न पहले इसकी मिनार देखो, फिर उसके ऊपर चांद और बगल में बैठे तारे को देखो। मिनार, चांद और तारे को एक ही फ्रेम में रखकर देखो। इसके अलावा कुछ न देखो।
देखो न..कितनी प्यारी सीनरी है ये। जैसे बचपन में हम ड्राइंग बनाया करते थे। कोई घर होता था फिर उसके ऊपर काली रात बनाते थे फिर ठीक ऐसे ही चांद और बगल में एक चमकीला तारा।
-लेकिन मुझे तो चांद के बगल में बैठा यह तारा ऐसे दिख रहा है मानों तुम्हारे गाल का तिल हो।
नहीं..तुम इसे तिल मत बनाओ..इसे ऐसे देखो जैसे बचपन में बनायी गई कोई पेंटिंग हो।
-सच.. तुम पगली हो रे।


किताब, बादल, संगीत और मूड...



रूममेट से किसी बात की लेकर बड़ी वाली बहस हो गई और उसने मुंह फुला लिया। थोड़ी ही देर में कमरे का तापमान बदल गया। अब कमरे में रहना ऐसे लगने लगा जैसे भूसे के घर में बैठी हूं..दम घुट रहा था। पत्नी से लड़ाई करने के बाद जिस तरह पति थोड़ी देर के लिए घर से बाहर रहना चाहता है वैसे ही मैं भी हॉस्टल के कमरे से बाहर निकलना चाह रही थी।

दोपहर के तीन बज रहे थे। मैंने एक किताब उठायी साथ में एक बोतल पानी और एक चादर और हॉस्टल की छत पर चली गई। छत पर खड़ी दीवार के पीछ धूप सिमट चुकी थी। बैठने के अलावा पसरने भर की छाया भी वहां मौजूद थी। मैंने वहीं अपनी चादर बिछायी और लेटकर अनुराधा बेनीवाल की किताब आजादी मेरा ब्रांड पढ़ने लगी।

इस दौरान अचानक ही मेरी आंखें बादलों पर पड़ी और मैं डर के मारे उठकर बैठ गई। काले बादल चिमनी के धुएं की तरह उमड़-घुमड़ रहे थे। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे थोड़ी ही देर में ये मेरे ऊपर गिर पड़ेंगे। बादल चल रहे थे और पल-पल भर में काले से सफेद और फिर नीले हो जा रहे थे।

बादलों को थोड़ी देर निहारने के बाद मेरा डर यह डर खत्म हो गया कि मैं इनके नीचे दबने वाली नहीं हूं। मुझे इनसे डरने की बजाय क्षण भर में बन और बिगड़ रहे इन बादलों के रंगों को लेटकर देखना चाहिए। मैं किताब किनारे रखी और चादर पर दोबारा लेट गई। इस बार बादल मुझे सुंदर दिखने लगे। थोड़ी ही देर बाद जाने क्या हुआ कि फिर से धूप निकल आयी और हवा चलने लगी। हवा तेज थी इसकी वजह से छत पर कोने में रखी बालू बिखरकर मेरे बालों और चादर पर आ पड़ी। अब मुझे उठकर बैठना पड़ा।

मैंने किताब उठाई और फिर से पढ़ने लगी। आजादी मेरा ब्रांड पढ़ते हुए मैं भारत में कहां थी, मैं तो लेखिका के साथ ही विदेशों का भ्रमण कर रही थी। उस वक्त में किताब में लिखी विदेश के किसी शहर की कला और संगीत के बारे में पढ़ रही थी कि छत पर किसी के आने की आहट सुनाई दी।
मैंने पलट कर देखा तो एक लड़की छत पर चादर बिछाकर तबला बजाने का रियाज करने जा रही थी। इधर मैं छत पर लेटी हुई विदेश की कला और संस्कृति के बारे में पढ़ रही थी कि किसी भीनी-भीनी खुशबू की तरह तबले की आवाज कानों में पड़ने लगी। वाह...पल भर में ही सबकुछ अद्भुत सा हो गया। मैं तो कहीं खो ही गई। इतने सुख और शांति की आशा करके तो मैं नहीं आयी थी न छत पर। 

आसमान में काले-घुमड़ते बादल, बादलों के नीचे छत पर लेटी लड़की, लड़की की हाथ में आजादी मेरा ब्रांड जैसी किताब, सिरहाने से आती तबले की आवाज, हवा में उड़ते खुले बाल। वाकई..ये सुबह तो नहीं थी..लेकिन सबकुछ सुबह सा क्यों महसूस हो रहा था। मन ऐसा ताजा हो गया मानों मैंने थोड़ी देर पहले मेडिटेशन किया हो। सबकुछ बहुत ही सुहाना था। आज अपनी शाम बन गई।

शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

हम काले हैं तो क्या हुआ हुनर वाले हैं....



लड़की बदसूरत है और चार फिट से कम हाइट वाली है। हॉस्टल की मॉडर्न लड़कियां उसे कम पसंद करती हैं या यूं कहें कि पसंद ही नहीं करती है। वह लड़की कोई काम फटाफट कर लेती है..बर्तन मांजते या फिर सब्जी काटते वक्त उसकी कलाई किसी घरेलू महिला से कम नहीं दिखती है। उम्र में भी वह हॉस्टल की बाकी लड़कियों से काफी बड़ी है।

सुबह जल्दी जगती है, बाकी लड़कियों से पहले नहा लेती है। हॉस्टल की बालकनी में गमले में लगे तुलसी को रोजाना दो लोटा जल चढ़ाती है। अन्य लड़कियां उसे कहती हैं कि उम्र में काफी बड़ी दिखती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसकी शादी न लग रही हो और अच्छे वर के लिए ये रोजाना तुलसी को जल चढ़ाती है। लड़कियों के पास शायद इतनी फुर्सत होती है कि वे बालकनी में जगह-जगह खड़ी होकर उसके बारे में कयास लगाती रहती हैं।

कल हॉस्टल की ही एक लड़की का बर्थडे था। लड़की ने अपनी फ्लोर की सभी लड़कियों को बुलाया साथ ही उस बदसूरत लड़की को भी बुलाया। केक कटने के बाद खाने-पीने का दौर शुरू हुआ। उस बदसूरत लड़की ने फटाफट सबको प्लेट में खाने वाले आयटम परोसे। सबको प्यार से खिलाया। गुलाब जामुन उठाकर कुछ लड़कियों को खिलाते हुए सेल्फी भी ली। खाने-पीने के बाद नाच-गाने का सिलसिला शुरू हुआ। कुछ लड़कियों ने शरमाते हुए डांस किया...जिसने खुल कर डांस किया वो भी ऐसे जैसे नौसिखिए हों...सबने एक दूसरे के डांस की झूठी तारीफ की और ठहाके लगाए। इस दौरान बदसूरत लड़की को किसी ने डांस करने के लिए कहा, पहले तो लड़की ने ना कहा लेकिन दोबारा कहने पर मान गई।

बदसूरत लड़की ने डांस करना शुरू किया...बाकी लड़कियां किनारे हट गईं...क्या डांस किया उस लड़की ने। सब मुंह फाड़े हुए माशाअल्लाह कहती रह गईं। गाना खत्म हुए और लड़की के कदम रूक गए। लेकिन बाकी लड़कियों ने उसे रूकने नहीं दिया...ऐसा डांस थर्ड फ्लोर की किसी भी लड़की को नहीं आता था...बदसूरत लड़की ने एक के बाद एक तीन गानों पर डांस किया और सभी लड़कियों को झूमने पर मजबूर कर दिया। हॉस्टल की सभी लड़कियों ने उस लड़की की बहुत-बहुत तारीफ की। कुछ ने उससे डांस सिखाने का वादा भी लिया। लड़की खुश हो गई। अब उसका कमरा खाली नहीं है। कोई न कोई लड़की उसके कमरे में हर वक्त बैठी दिख रही है। हॉस्टल की लड़कियों के लिए उसकी बदसूरती खत्म हो गई। लड़की खुश है। प्रतिभा हो तो ऐब छिप जाते हैं। वह किसी लड़की से ऐसा कह रही थी। मैंने उससे कहा-सांवला होना, या खूबसूरत नहीं होना कोई ऐब नहीं होता।

सब्जी ए..सब्जीए!



कॉलोनी और मुहल्लों में घूमकर सब्जी बेचने वाले सब्जी वालों की अपनी एक खास स्टाइल होती है। उनके आवाज लगाने के तरीके को पहचान कर आंटियां घर से निकलकर गेट पर आ जाती हैं कि उनका सब्जी वाला तो आ गया।

मुहल्ले कॉलोनी में तो सुबह से लेकर दोपहर तक वैसे तो कई सब्जी वाले आते हैं लेकिन हर घर में हर एक आंटी का अपनी पसंद के ठेले वालों से सब्जी खरीदना फिक्स रहता है। कुछ आंटियों का तो ठेले वालों से उधारी भी चलती है। फिर भी सब्जी बेंचने वालों में इस बात का कॉम्पटिशन रहता है कि वे मुहल्ले में एक-दूसरे से जल्दी पहुंचे।

घूमकर सब्जी बेचने वालों में कुछ बड़े सब्जी वाले होते हैं तो कुछ छोटे। कुछ ठेले वाले सिर्फ सीजन की ही सब्जियां बेचते हैं इससे ज्यादा उनके पास कुछ नहीं रहता। ऐसे ठेले वालों को कॉलोनी की आंटियां ज्यादातर शाम को भाव देती हैं क्यों कि शाम में एक-दो ठेले वाले ही सब्जी बेचने आते हैं औऱ सस्ते में बेंचकर लौट जाते हैं। दूसरे किस्म के ठेले वाले सीजनल सब्जियों के अलावा गोभी, गाजर और पत्तागोभी जैसी सब्जियां भी बेचते हैं जो काफी महंगे होते हैं, वे सब्जियों को हाथ नहीं लगाने देते और खुद उठाकर तौलते हैं। तीसरे तरह के ठेले वाले महंगी और सस्ती सब्जियों के साथ फल भी बेचते हैं । वे बाकी दोनों सब्जी वालों से कुछ ज्यादा इतराते हैं।
सुबह सब्जी वाले की ऊंची आवाज सुनकर ही नींद खुलती है। वह कॉलोनी में घुसते ही जोर-जोर से बोलने लगता है..सब्जी ए..सब्जीए...। उसकी बुलंद आवाज सुनकर ऐसा लगता है मानों वह सब्जी ए..सब्जीए नहीं बल्कि बोल रहा हो..सोने वालों जाग जाओ।

पचास लड़कियों वाला अपना हॉस्टल ज्यादातर सब्जी ए..सब्जीए से सब्जी खरीदना पसंद करता है। बाकी हरी सब्जी है...सब्जी और फल ले लो..कहकर सब्जी बेचने वाले ठेले वाले लाइनअप होते हैं। सब्जी ए..सब्जीए कहकर सब्जी बेंचने वाले को लड़कियां ज्यादा पसंद करती हैं..वजह वह लड़कियों को बताता रहता है कौन से जगह जाने वाली कौन से ट्रेन की टाइमिंग क्या है..कौन सी ट्रेन में राहत रहती है..कौन सी ट्रेन का कितना किराया है...इसके साथ ही कौन सी सब्जी में क्या डालकर पकाया जाए कि वह ज्यादा स्वादिष्ट बनें। और अंत में यह भी कह देता है कि बहन यदि खुल्ले पैसे नहीं हैं तो कल दे देना। इतना प्रोपेगेंडा काफी होता है लड़कियों के दिल में जगह बनाने के लिए।

ऐसा नहीं है कि बाकी के ठेले वालों से लड़कियां सब्जी नहीं खरीदती लेकिन उनके साथ सब्जी लेना और पैसे देना भर मतलब रहता है। कभी-कभी खुल्ले पैसे न रहने पर ठेले वाले मानते नहीं और मकानमालिक से खुल्ले पैसे लेकर ठेले वालों को देना पड़ता है।
ठेले वालों के आने से घर बैठे सब्जियां मिल जाती हैं और कॉलोनी में रौनक बनी रहती है।