गुरुवार, 13 जुलाई 2017

आंटी की दूकान...



गर्दन नीचे झुकी थी, हाथ कुर्सी से नीचे झूल रहा था, दोनों पैर पसारे वह आदमी कुर्सी पर लुल्ल सा पड़ा था। करीब 80 साल की वह आंटी दुकान पर बैठे हिसाब लगा रही थी। मैं उस आदमी को देख के सोच रही थी कि ये तो मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्म के कोमा में पड़े उस मरीज की तरह लग रहे हैं..फर्क सिर्फ इतना था कि वह व्हील चेयर पर बैठा होता है और ये प्लास्टिक की कुर्सी पर।

दिमाग से वह सीन खत्म नहीं हुआ था कि उस आंटी ने कड़क आवाज में पूछा-अरे बोलोगी क्या चाहिए या बस खड़ी ही रहोगी। उन्होंने लगे हाथ मेरे पीछे खड़े लड़के से भी पूछ लिया-बोलो बेटा क्या चाहिए। लड़का थोड़ा सकुचाते हुए बोला कि खरीदना नहीं है यह किताब वापस करनी है। सुबह अंकल से जो किताब मांगी थी वह कोई और निकली। अंकल डाटते बहुत ज्यादा है..मतलब सुनते कम और चिल्लाते ज्यादा हैं तो मैंने सोचा कि जब आप दूकान पर बैठेंगी तो जाकर वापस कर दूंगा।

सुन रहे हो...लड़का क्या कह रहा है...अरे ऐसे चिल्लाओगे तो कोई कस्टमर आएगा...लो सुनो अपने मुंह पर ही अपनी बुराई। इतना सुनते ही कुर्सी पर लुल्ल पड़े वह अंकल भन्नाकर उठे..जैसे बड़ी वाली चींटी उन्हें काट ली हो। आंख खोलते ही फौजियों की तरह तन कर खड़े हो गए और उस लड़के को घूरने लगे। लड़का डर गया और बोला आंटी आप ही दूसरी किताब दे दो...अंकल को आराम करने दो। उसकी बात सुनकर अंकल का गुस्सा नाक से जुबान आ गया और वे बोले इतना बूढ़ा दिखता हूं मैं तुम्हें...ला दे वह किताब...दूसरी देता हूं तुम्हें।

मैंने इंडिया का मैप खरीदा और जब पैसे देने लगी तो वो बोलीं..सुन लड़की...ये वाला दस का सिक्का नहीं चलेगा...ये वाला एक रूपए का सिक्का नहीं चलेगा कोई दूसरा दे दो। इतने कंचे लेकर आयी हो जैसे कोई गुल्लक तोड़ दिया हो। आंटी दस के सिक्के में क्या खराबी है..बताओ तो। वह बोलीं..एक्चुली बात ये है कि इस समय मुझे याद नहीं आ रहा है कि दस का कौन सा सिक्का मार्केट में चल रहा है...दस लकीरों वाला या बिना लकीरों वाला। मैं तो ले लूंगी...लेकिन कल को सिक्का नहीं चला तो मेरा घाटा होगा...और तुम मेरे देवर की बेटी तो हो नहीं की सिक्का नहीं चलेगा तो तुम्हें मैं वापस कर दूंगी...सामान लेकर चली जाओगी तो कौन जाएगा तुम्हें खोजने ।
ठीक है आंटी...मत लो आप...मैं दूसरा दे देती हूं....आपके बगल वाले दूकान से सामान लेने पर दूकानदार ने इतने कंचे दे दिए मुझे कि आपको देना पड़ रहा है। और हां...वो गुल्लक तोड़ने वाली बात बुरी लगी मुझे। अल्ले..अल्ले..बुरा नहीं मानते..मैं तो यूं ही कह रही थी। ये ले मुफ्त का इरेजर...कभी ड्रॉइंग बनाने का मन हो तो इसी से मिटाना और आंटी को याद करना और मेरी दूकान पे आते रहना।

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

आज अखबार वाला नहीं आया...



पिछले दो दिनों से कुछ अजीब सा मन है...शायद उन लोगों जैसा जो सुबह की चाय और शाम की कॉफी किसी वजह से नहीं पी पाते तो अनमने से रहते हैं...सिर चकराने लगता है, रिफ्रेश फील नहीं करते, मन में कुछ कुलबुलाहट सी मचती है...थोड़ा वैसा सा ही मैं भी महसूस कर रही हूं।

मन नहीं माना...कई बार जाकर बालकनी में देखी...वह नहीं आया था शायद। उसे फोन करना ठीक होगा...कमरे में काफी देर तक घूम-घूमकर यही सोचती रही...हां क्यों नहीं ठीक होगा...आखिर किस दिन के लिए उसने मोबाइल नंबर दिया है अपना...अगर फोन करूंगी तो क्या कहूंगी..क्यों नहीं आए आज...नहीं..नहीं...मैं यह पूछूंगी कि भाई सब ठीक तो है ना...दो दिन से तुम आ नहीं रहे हो।

दिमाग में सब फिट कर ली कि फोन करके क्या बोलना है....उसका फोन स्विच्ड ऑफ जा रहा था...अब कोई रास्ता नहीं था। क्या किसी के साथ ऐसा भी होता है...यह कोई खाने-पीने की चीज थोड़े ही है कि ना मिले तो बेचैनी सी होने लगे...लेकिन हो रही थी भाई...क्या करती मैं....पिछले पांच महीनों में उसने दस दिन भी नागा किया होता तो मुझे आदत पड़ गई होती...लेकिन उसने ऐसा पहली बार किया...शायद इसी लिए तो कुछ खो गई चीज खोजने जैसी बेचैन हूं मैं।

सुबह नींद खुलते ही सबसे पहले बालकनी में जाकर अपना अखबार उठाती हूं। आज गई तो अखबार वहां नहीं था...किसी ने उठा लिया क्या...कभी किसी ने उठाया नहीं दूसरे का अखबार...चलो उस लड़की से भी पूछ लेती हूं जो उसी से अखबार लेती है...उसका भी अखबार नहीं आया..मतलब वह आया ही नहीं था। वापस कमरे में आकर लेट गई मैं....कुछ गिरने की आवाज आयी...भागी हुई बालकनी में गई मैं...अखबारवाला नहीं था... वहम था मेरा..वह जब बालकनी में रोज अखबार फेंकता है तो खट की आवाज आती है...अपने आप को यकीन दिलाने के लिए शायद मैनें वह आवाज सुनी थी।

पूरे दिन ऐसा लग रहा था जैसे कोई काम ही नहीं बचा है मेरे पास...रोज क्या करती थी मैं...शेड्यूल तो वही सब था...पढ़ाई करते-करते बोर हो जाती तो अखबार पढ़ने लगती...जमीन पर बैठकर अखबार पढ़ते-पढ़ते ही खाना खाने की आदत पड़ चुकी थी....सुबह अखबार...दोपहर में अखबार, शाम को अखबार...रात को सोने से पहले अखबार...कोई तो इतना चाय कॉफी भी नहीं पीता होगा...फिर कैसे रहा जा सकता था बिना अखबार के। किसी दिन समय न मिलने पर अखबार पढ़ूं चाहे न पढ़ूं लेकिन अखबार बेड पर पड़ा होना चाहिए।

अखबार क्या तुम्हें मेरी आदत नहीं पड़ी....देखो तो तुम्हें नहीं लगता है कि मैं पागल हो गई हूं....दोपहर में जाकर बालकनी झांक रही हूं...दुनिया में कोई ऐसा भी अखबार वाला होता है जो दोपहर को अखबार देता हो...नहीं ना....यह तो सभी को मालूम है...मुझे भी..फिर भी क्यों लग रहा है कि अखबार किसी भी टाइम आ सकता है...भगवान जी के आशीर्वाद की तरह...ओह्ह  अखबार...कितनी बुरी लत लग गई है मुझे।

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

उसके जाने का दुख....



वह बोली, चेहरा देखो अपना...मुझे तुम्हारा चेहरा देखकर टेंशन होता है...मैं ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाती। तुम्हें देखकर लगता है जैसे तुम इस ग्रह की हो नहीं। उसकी ऐसी बातों की वजह नहीं समझ में आयी मुझे। 

पिछली रात को दो बजे कमरे का फैन ऑफ करके वह चाय बना रही थी...खट-पट की आवाज से मेरी नींद खुल गई। सुबह मैंने उसे समझाते हुए कहा कि जब दो लोग एक ही कमरे में रहते हों को हमें एक दूसरे के सुविधा-असुविधा का ख्याल करते हुए काम करना चाहिए। जिस वक्त तुम सोती हो मैं जग जाती हूं तो ऐसे रहा करो कि रात की नींद न खराब हो।
बहुत दिनों से शायद कोई गुबार भरा था उसके अंदर, सुबह उठते ही उसने मुझे मेरा कैरेक्टर सर्टिफिकेट थमा दिया, ऐसी कोई भी बात कहने को नहीं बची थी जिसकी मुझे कभी कल्पना भी नहीं थी।

चार महीने पहले जब वह दिल्ली के मुखर्जी नगर से सिविल सर्विसेज की अपनी कोचिंग पूरी करके इस हॉस्टल में तैयारी करने के मकसद से आयी थी तो लगा चलो एक अच्छा एनवॉयरमेंट मिलेगा। दो टाइम घंटे भर योगा मेडिटेशन करती थी वह...दूसरी लड़कियों से काफी अलग थी...काफी हद तक बुद्धजीवी जैसी...हर मुद्दे पर एक अलग ही तरह का ओपिनियन...मैं उसे दीदी कहती थी। एक रूम में रहते हुए भी हम लोग बातें बहुत कम करते...जब मैं सोकर उठती तो वह सोने चलती...बाकी समय में हम दोनों का पढ़ाई करने का अपना-अपना समय तय था तो किसी के पास फालतू की बात करने का इतना समय नहीं होता था। कुल चौबीस घंटों में कभी आधे या एक घंटे ही हम दोनों में बातें हो पाती। खाने-पीने की कोई चीज वो शेयर नहीं करती थी..और मैं उसके कहीं आने-जाने...कुछ नया पहनने ओढ़ने पर कोई रोका टोकी या कुछ भी पूछा नहीं करती थी। 

वह गैस पर कुकर चढाकर जब पढ़ाई करने बैठती तो ऐसे खो जाती कि उसका खाना जल जाता। उसे किसी चीज का होश नहीं रहता...जब मैं खाना बना रही होती तो वह फैन ऑन कर देती और फिर बाद में सॉरी बोलते हुए ऑफ कर देती कि उसने ध्यान नहीं दिया। पता नहीं किस दुनिया में रहती थी...चलते-चलते ही चीजों से टकराकर उसे गिरा देती..लोगों से टकरा जाती।

उसका ज्यादा पढ़ाई करना और रिजर्व रहना मुझे ज्यादा पसंद था लेकिन अपनी ही चीजों का होश न होना...मेरे बीमार होने पर कुछ न कहना ना पूछना ना बोलना। बॉलकनी से उसके कपड़े उड़ कर सीढियों पर गिर जाएं तो अगले दिन तक वहीं पड़े रहते। बहुत सारी एक्टिविटीज उसकी ऐसी थी जो एक नॉर्मल इंसान के नहीं होते।

खैर, जब मैंने उससे जब यह कहा कि एक कमरे में जब दो लोग रहते हों तो हमें एक दूसरे की सुविधा का ख्याल रखना चाहिए। देखो जब तुम सुबह देर तक सोती हो तो मैं कोई खट-पट नहीं करती जिससे की तुम्हारी नींद खुल जाए। ना तो मैं लाइट ऑन करती हूं ना फैन ऑफ करती हूं ना ही पानी गरम करने के लिए गैस जलाती हूं। सब कुछ तुम्हारे जगने के बाद ही होता है। ठीक वैसे ही रात में मैं सोती हूं तो तुम्हें उतना ही शोर करना चाहिए जिससे की सोने वाले की नींद न खराब हो।
बात तो सिर्फ इतनी ही थी न.. लेकिन वह जा रही है...यह हॉस्टल छोड़कर वह जा रही है...मैंने उसे समझाने की कोशिश की..बहुत कोशिश की...ये सब छोटी-छोटी बातें हैं... होती रहती हैं...सबके साथ होती हैं...इसपे बात करके शॉर्टआउट किया जा सकता है...यह समस्या इतनी बड़ी भी नहीं कि कमरा छोड़ने की नौबत आ जाए। लेकिन वह कुछ नहीं सुनी...मुझे घूरने के सिवाय।

मुझे बार-बार कुछ खटक रहा था...मैंने फिर उसे समझाने की कोशिश की...मत जाओ...मैं एडजस्ट कर लूंगी...तुम रात के तीन बजे कमरे में पूड़ियां भी तलोगी तब भी मैं सो लूंगी। लेकिन वह नहीं मानी..बोली मैं अब और नहीं रह सकती तुम्हारे साथ। मैंने उसे फिर समझाया कि तुम सिविल सर्विसेज की एक कैंडिडेट हो...जब इस तरह की छोटी बातों को बिना समझे उसे सुलझाने की बजाय उसे छोड़कर जा रही हो तो बड़ी-बड़ी समस्याएं कैसे हल करोगी...फिर भी उसपे जाने की धुन सवार थी...आज सब कुछ इस तरह से हुआ जैसे उसने कोई प्लानिंग कर रखी हो और उसे निर्णय सुनाने के लिए बस इसी दिन का इंतजार हो।

मैं फिर भी उसे समझाने में लगी रही कि एक छोटी सी बात को वह समझे औऱ हॉस्टल न छोड़े....मैं पिछले चार महीने से उसकी समझदारी की कायल थी...लेकिन आज ऐसा लग रहा है जैसे मैं चार महीनों में उसे समझ ही नहीं पायी। अंततः वह जा रही है।

रविवार, 2 अप्रैल 2017

ओह्ह चांद.....



-सुनो..कहां हो अभी
रूम में हूं..क्यों क्या हुआ?
-कमरे की खिड़की खोलो..या फिर छत पे आकर देखो चांद निकला है
रोज निकलता है..नया क्या है इसमें?
-नहीं..आज कुछ खास है..तुम देखो..जब भी चांद निकले तुम देख लिया करो
हां बाबा..मुझे याद रहता है...मैं चांद नहीं देखूंगा तो तुम जान ले लोगी मेरी..वैसे तुम्हारे कहने से पहले ही मैंने देख लिया था।
-हां..अच्छा किया तुमने...जब भी चांद निकले देख लिया करो..क्यों कि मुझे पसंद है चांद देखना...तुम पास होते तो हम साथ बैठकर चांद देखते और बातें करते।
पगली हो तुम
-हां जो भी हूं...और मैं रहूं या ना रहूं...जब भी चांद निकले देख लेना
(वह छत पर बैठी हुई चाय की चुस्की लेते हुए यह सोच रही थी वह नहीं है तो चांद क्यों निकलता है)

जी आंटी....



अच्छा बेटा जी..तो आप पतंजलि के शैंपू से हेयर वॉश करती हो
-जी आंटी
लेकिन इसपे तो मिल्क प्रोटीन लिखा है..मिल्क वही न जिसका मतलब दूध होता है
-जी
तो ये बताओ बेटा..इस शैंपू में अगर दूध मिला है तो ये मेरे जैसे लंबे बालों को तो लिसलिसा कर देगा न
-नहीं आंटी, ये बालों को लिसलिसा नहीं करेगा।
अच्छा बताओ तो हम भी ले लें इस शैंपू को
-जी अगर आपका मन हो तो ले लीजिए
वो क्या है न कि तुम्हारे अंकल को मेरे लंबे, घुघराले बाल ज्यादा पसंद हैं..कहीं मेरे बाल टूटने लगे तो वो मुझसे खिसिया जाएंगे
-अगर आपके बाल नहीं टूट रहे तो शैंपू बदलने की जरूरत ही नहीं है..जो लगाती हैं वही लगाइये फिर तो
नहीं बेटा..एक ही शैंपू लगाते-लगाते ऊब गई हूं...बड़ा नाम सुना है पतंजलि का..सोच रही हूं खरीद ही लूं।
-जी आंटी..जरूर खरीद लीजिए फिर तो।