मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

आज अखबार वाला नहीं आया...



पिछले दो दिनों से कुछ अजीब सा मन है...शायद उन लोगों जैसा जो सुबह की चाय और शाम की कॉफी किसी वजह से नहीं पी पाते तो अनमने से रहते हैं...सिर चकराने लगता है, रिफ्रेश फील नहीं करते, मन में कुछ कुलबुलाहट सी मचती है...थोड़ा वैसा सा ही मैं भी महसूस कर रही हूं।

मन नहीं माना...कई बार जाकर बालकनी में देखी...वह नहीं आया था शायद। उसे फोन करना ठीक होगा...कमरे में काफी देर तक घूम-घूमकर यही सोचती रही...हां क्यों नहीं ठीक होगा...आखिर किस दिन के लिए उसने मोबाइल नंबर दिया है अपना...अगर फोन करूंगी तो क्या कहूंगी..क्यों नहीं आए आज...नहीं..नहीं...मैं यह पूछूंगी कि भाई सब ठीक तो है ना...दो दिन से तुम आ नहीं रहे हो।

दिमाग में सब फिट कर ली कि फोन करके क्या बोलना है....उसका फोन स्विच्ड ऑफ जा रहा था...अब कोई रास्ता नहीं था। क्या किसी के साथ ऐसा भी होता है...यह कोई खाने-पीने की चीज थोड़े ही है कि ना मिले तो बेचैनी सी होने लगे...लेकिन हो रही थी भाई...क्या करती मैं....पिछले पांच महीनों में उसने दस दिन भी नागा किया होता तो मुझे आदत पड़ गई होती...लेकिन उसने ऐसा पहली बार किया...शायद इसी लिए तो कुछ खो गई चीज खोजने जैसी बेचैन हूं मैं।

सुबह नींद खुलते ही सबसे पहले बालकनी में जाकर अपना अखबार उठाती हूं। आज गई तो अखबार वहां नहीं था...किसी ने उठा लिया क्या...कभी किसी ने उठाया नहीं दूसरे का अखबार...चलो उस लड़की से भी पूछ लेती हूं जो उसी से अखबार लेती है...उसका भी अखबार नहीं आया..मतलब वह आया ही नहीं था। वापस कमरे में आकर लेट गई मैं....कुछ गिरने की आवाज आयी...भागी हुई बालकनी में गई मैं...अखबारवाला नहीं था... वहम था मेरा..वह जब बालकनी में रोज अखबार फेंकता है तो खट की आवाज आती है...अपने आप को यकीन दिलाने के लिए शायद मैनें वह आवाज सुनी थी।

पूरे दिन ऐसा लग रहा था जैसे कोई काम ही नहीं बचा है मेरे पास...रोज क्या करती थी मैं...शेड्यूल तो वही सब था...पढ़ाई करते-करते बोर हो जाती तो अखबार पढ़ने लगती...जमीन पर बैठकर अखबार पढ़ते-पढ़ते ही खाना खाने की आदत पड़ चुकी थी....सुबह अखबार...दोपहर में अखबार, शाम को अखबार...रात को सोने से पहले अखबार...कोई तो इतना चाय कॉफी भी नहीं पीता होगा...फिर कैसे रहा जा सकता था बिना अखबार के। किसी दिन समय न मिलने पर अखबार पढ़ूं चाहे न पढ़ूं लेकिन अखबार बेड पर पड़ा होना चाहिए।

अखबार क्या तुम्हें मेरी आदत नहीं पड़ी....देखो तो तुम्हें नहीं लगता है कि मैं पागल हो गई हूं....दोपहर में जाकर बालकनी झांक रही हूं...दुनिया में कोई ऐसा भी अखबार वाला होता है जो दोपहर को अखबार देता हो...नहीं ना....यह तो सभी को मालूम है...मुझे भी..फिर भी क्यों लग रहा है कि अखबार किसी भी टाइम आ सकता है...भगवान जी के आशीर्वाद की तरह...ओह्ह  अखबार...कितनी बुरी लत लग गई है मुझे।

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