देखते ही देखते फिर रविवार आ गया जी। हर सातवें दिन रविवार
को आना ही है तो मैं इसकी प्लानिंग शनिवार को रात में ही कर लेती हूं जी। क्या है
कि मेरे अंदर योग्यता तो नहीं लेकिन आलस ना कूट-कूट कर भरी है जी।
कल यानि शनिवार की रात सोने से पहले मैंने निश्चय किया कि
रविवार को मैं तड़के सुबह उठूंगी। जब सूरज उगने से पहले अपने घर में सज-संवर रहा
होगा। तब मैं जल्दी से उठकर कमरे से बाहर स्टूल (कुर्सी नहीं) निकालकर उस पर दोनो
पैर ऊपर रखकर उकड़ू बनकर बैठ जाउंगी, और मुंह बाए..आंख ऊपर उठाकर सूरज को निकलते
हुए देखूंगी जी। सूरज जब निकलता है ना तो उसे देखना मुझको बहुत अच्छा लगता है
जी....कितना प्यारा रंग दिखता है उसका....लेकिन थोड़ी देर बाद जब धूप बिखरा देता
है तो मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। निकलता हुआ सूरज बिल्कुल ऐसा लगता है...जैसे
सुबह-सुबह घर से तैयार होकर ऑफिस के लिए निकले लोग...खुशदिल...तरोताजा...।
कई महिनों से मैंने सूरज को ना तो उगते देखा और ना ही डूबते
जी। जब सूरज उगता है उस वक्त मैं किसी जन्नत में पसरी खर्राटे भर रही होती हूं और
जब सूरज डूबता है उस वक्त ऑफिस के काम में खट रही होती हूं जी। अब मैं क्या बताऊं जी !!
लेकिन शनिवार की रात खराब होना शायद पहले से ही तय था जी।
अब मैं क्या बताऊं....मैं बताऊंगी तो लोग कहेंगे कि परेशानियां हैं कि मोहतरमा का पीछा
ही नहीं छोड़तीं।
हुआ यह जी कि...शनिवार की रात जब मैं गहरी नींद में थी, उसी
वक्त कमरे में कुछ गिरने की आवाज आई। मैं तो एकदम से डर गई जी। मैं उठी, और मोबाइल
का टॉर्च जलाकर देखी तो एक डिब्बा लुढ़ककर बेड के पास पड़ा था जी। उस वक्त मेरा
दिमाग दुनिया भर के भूत-प्रेत और चुड़ैलों का दर्शन करके वापस लौट आया...लेकिन
डिब्बा गिरने की वजह नहीं पता चली जी। थोड़ी देर बाद मैं लाइट बंद करके फिर सो गई
। अभी नींद लगी ही थी कि किसी के चीखने की आवाज कानों में पड़ी जी। मैं तो इस बार
बेहद डर गई। मैं झट से उठी और कमरे की लाइट जलाई...देखी तो दरवाजे (जो कि लकड़ी का
है और नीचे से थोड़ा टूट जाने से एक छोटा सुराख हो गया है) के नीचे से करीब आधा
किलो वजन वाला मालगोदाम परिवार का एक चूहा निकलने की कोशिश कर रहा था जी। लेकिन
भारी-भरकम शरीर के चलते उसमें अटक गया था।
मेरी समझ में नहीं आया कि मैं इसे कैसे निकालूं...अगर
दरवाजा खोलती हूं तो सुराख में चप जाने से चूहे का राम नाम सत्य हो जाएगा। अब मैं
क्या बताउं जी !!!
फिर मैंने पीछे से चूहे की पूंछ को जैसे ही छुआ...मानो उसपर
वज्रपात गिर गया कि एक मनुष्य ने उसे छूने का दुस्साहस कैसे कर दिया...वह शायद
भड़क गया...और अपने शरीर को पीछे की ओर धकेला और फिर से कमरे में आ गया। निकलने के
बाद वह वहीं बैठा मुझे एक टक देखता रहा जैसे कह रहा हो कि कम से कम एक गिलास पानी
तो पिला दो। बताओ जी....भला ऐसे भी चूहे होते हैं क्या...जो इंसानों को एक टक
घूरते हों!!!
खैर, मैंने कमरे का दरवाजा खोल दिया और मोटू मल उसैन वोल्ट
की रफ्तार में भाग गए। लेकिन इनके चलते मुझे दुबारा नींद नहीं आयी, और मैं सुबह
होने का बेसब्री से इंतजार करने लगी। फिर तड़के सुबह ही मैंने कमरे का दरवाजा
खोला....स्टूल बाहर निकाली...दोनों पैर ऊपर रख उकड़ू बन....मुंह बाए...आंख ऊपर
उठाए...सूरज के निकलने का इंतजार करने लगी। लेकिन जुल्म की हद तब हो गई..जब खराब मौसम
के चलते सूरज सात बजे तक नहीं निकला....बैठे-बैठे मुझे जोर की नींद आने लगी...फिर
मैं कमरे में आकर लुढ़क गई....बाद में विश्वसनीय सूत्रों से पता चला जी कि सूरज
साढ़े आठ बजे निकला। मुझे तो यह सूरज और चूहे की मिलीभगत लगती है जी। अब मैं क्या
बताऊं जी।
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