रविवार, 7 सितंबर 2014

रविवार कुछ यूं बीतता है.....

हर शनिवार की रात यह तय करके सोती हूं कि सुबह एकदम जल्दी या बहुत देर से उठुंगी। फिर फटाफट कपड़े-लत्ते धोकर, नहा  और खाना खाकर रविवार ऐसे मनाऊंगी...कि हफ्ते भर की दिमाग में जमी गंंदी चीजें साफ हो जाएं...मन तरोताजा हो जाए...और अगला हफ्ता बढ़िया बीते। क्यों न मूवी देखने चली जाऊं....थोड़ी बहुत शॉपिंग कर लू...कुछ भी कर लूं...झक्क ही मार लूं...लेकिन घर से बाहर निकलकर...घर में बैठकर नहीं...।
खैर....कहानी यहां से बनती है कि सोचा हुआ घर का काम तो समय से निपट भी जाता है। नहा भी लिया....सब कुछ तैयार। लेकिन मियां दोपहर का भोजन करने के बाद ऐसी नींद आती है न कि दिमाग का सब खुरापात सुत जाता है। आंखें बंद लेकिन चौकन्ना दिमाग यही कहता है कि दुनिया में नींद से प्यारी कोई चीज नहीं...चाहे वो घूमना ही क्यों न हो। दो-चार दोस्त जिनसे कि फोन पर पहले से ही यह तय रहता है कि फलाना टाइम घूमने चलना है...मोबाइल पर घंटियां मारकर थक जाते है...और मोबाइल दर्द के मारे बेचारा बेड से सीधे जमीन पर लुढ़क जाता है....फिर भी नहीं खुलती दोपहर की ये निद्रा।
जब शाम होती है तो लगता है रविवार तो खत्म...अब क्या जाएं घूमने। इस समय नींद नहीं आलस जकड़ती है। हम एक कप चाय लेकर कमरे से बाहर निकलते है.....मकानमालिक के बूढ़े पिता को देखते हैं......जो रोज ही ऐसा नीरस दिन गुजारते हैं....भगवान को याद दिलाते हैं कि वह उन्हें भूल गए हैं....। मकानमालिक के बच्चे शाम को खेलते हैं.....लड़ते-झगड़ते भी है....उन्हें ऐसे देखना....उन्हें सुनना...और एक कप चाय खत्म करना...मतलब हो गई शाम खत्म।

सच बताऊं तो मुझे पीली रोशनी से बहुत कोफ्त होती है। अंधेरा होते ही पीली रोड लाइड जल जाती है। ऐसी लाइट जिसमें सब कुछ दिखते हुए भी कुछ नहीं दिखता....घर के अंदर नीम का जो पेड़ है...वह भी काला और बूढ़ा दिखता है इस पीली रोशनी में....। रविवार को सब नीरस लगता है...बेजान भी। और यह कमरा....इसको कोई करीने से सजाने वाला होता तो खराब मूड के चलते इसे हम तहस-नहस कर देते। बस प्यारी लगती है तो रविवार के दोपहर की नींद...चाहे आप राजमा-चावल खाकर सोएं...चाहे दाल-भात , चोखा-चटनी। कोई तय समय नहीं होता उठने का।

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