रविवार, 7 सितंबर 2014

बस..दारू की कमी थी...



कोई कहता कि लड़कियों का कमरा गजल की तरह सजा होता है तो यह बात उसे मिथ्या लगती। थी तो वह खुद भी एक लड़की। लेकिन अपने को दूसरी लड़कियों से अलग नहीं मानते हुए भी जाने कैसी थी। ऑफिस से आने के बाद कभी बेड पर तो कभी जमीन पर यूं ही पसर जाती, पैर में जूते वैसे ही बंधे होते...और वह लेटे-लेटे कल्पना करती कि कोई आकर उसके जूते खोल रहा है...उसके माथे को हल्का सा सहला कर उसे गरम चाय का प्याला दे रहा है। लेकिन कौन....कोई तो नहीं था। वह उठकर बैठने की कोशिश कर रही थी...तभी उसके पैरों से लगकर पानी का बोतल गिर गया....वह उसे वैसे ही बेतरतीब छोड़ कर ऑफिस गई थी...जैसे कमरे का बाकी सामान.....बोतल गिरते ही पानी ठीक उसकी तरह ही जमीन पर पसर गया...वह उठी...और म्यूजिक सिस्टम पर अपना मनपसंद गाना चला दी। कपड़े निकालकर कोने में पड़े कपड़ों के गट्ठर पर धीरे से फेंक दिया....और अपने कमरे को एक तरफ से निहारने लगी। एक तरफ सभी जूठे बर्तन...साफ-सुथरे कपड़े लेकिन उनका कोई सलीका नहीं...यूं ही एक के ऊपर एक लदे हुए...कमरा उतने ही दूर का साफ जितनी जगह पर वह जमीन पर चटाई बिझाकर पसरती थी...बेड पर ईयरफोन, हेडफोन, लैपटॉप, माउस वगैरह को कायदे से सुलाया गया था...। वह सिर्फ वही बर्तन साफ करती जिसमें उसे कुछ बनाना होता। अगला दिन छुट्टी का था...वह सोच रही थी....क्या, कितना और कैसे साफ करे। किसी ने उसे कहा था...ऐसे तो लड़के रहते हैं यार...तुम्हारे जीने में सिर्फ एक कमी है....कि तुम्हारे कमरे में दारू की बोतल नहीं दिखती...बिखरी हुई, टूटी हुई...बेतरतीब।

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