चार साल का वह छोटा लड़का
अपने घर की बालकनी में खड़ा होकर आलू का परांठा खा रहा था। लड़की उसे अपने हॉस्टल
के कमरे की खिड़की से देख रही थी। लड़का पराठे को हाथ से तोड़-तोड़कर खा रहा था।
उसने अगली बार परांठे को तोड़ा तो उसमें भरा आलू थोड़ा सा जमीन पर गिर गया। लड़का
परांठा खाते-खाते ही कोई कविता याद कर रहा था.. वह हिल-डुल रहा था..नाच रहा
था..कविता रट रहा था और परांठा खा रहा था। थोड़ी देर बाद परांठा खत्म हो गया और
लड़का...मां एक और देना..बहुत अच्छा लग रहा है.. कहते हुए किचन में चला गया।
खिड़की के पास खड़ी लड़की
का मन रूआंसा हो गया। वह परांठे की खुशबू को महसूस कर रही थी। परांठे से आलू का
गिरना उसे अपने घर और मां की याद दिला रहा था। वह अपने घर पर ऐसे ही खड़े होकर आलू
के परांठे खाया करती थी। मां कितनी बार कहती कि प्लेट में परांठे रखकर खाए..बैठकर
आराम से खाए..लेकिन वह मां की बातें न सुनती और गर्मागरम परांठे अपने आंगन में
टहल-टहल कर खाती..कभी चारपाई पर भी बैठ जाती..लेकिन एकदम से बैठकर न खाती।
जब परांठे से थोड़े आलू
जमीन पर गिर जाते थे तो उसे कौवा और चिड़ियां उठा ले जाते। यह देखकर उसे बड़ा मजा
आता। वह अगर ज्यादा से ज्यादा परांठे खाती तो मां का दिल गद्गद हो उठता। फिर भी
मां कहती..एक-दो और खा लो। जैसे उसके ज्यादा परांठे खाने से ही मां का पेट भर जाता
था।
वह इन्हीं खयालों में खोई
हुई थी कि लड़का दूसरा परांठा लेकर फिर से बालकनी में आ गया। खिड़की में खड़ी
लड़की उस छोटे लड़के से जोर से बोली-अपना परांठा मुझे भी दोगे।
-लड़का बोला-नहीं।
वह बोली-मेरी मां भी बहुत
टेस्टी आलू के परांठे बनाती है।
-लड़का बोला-तो अपने घर ही
जाकर खाना, मैं अपना नहीं दूंगा।
लड़की बहुत मिस कर रही थी
मां को, परांठे को, घर के आंगन को।
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