पिछले तीन दिनों से मेरी रोटियां नहीं फुल रही
हैं। दो रोटी दोपहर के खाने में और तीन रोटी रात के खाने में बनानी पड़ती है। जब
रोटियां नहीं फुलती हैं और चिपटी होकर पापड़ की तरह हो जाती हैं तो अचानक से
गुस्सा आने लगता है। आत्मविश्वास इस कदर कमजोर पड़ जाता है कि अगली रोटी गोल नहीं बल्कि
टेढी-मेढी बन जाती है। कभी-कभी अपनी बनायी रोटियों को देखकर अपने पर तरस आता है । जब
पहली रोटी नहीं फुलती है तो यह बात मन में घर कर जाता है कि दूसरी भी नहीं फुलेगी।
बनानी तो सिर्फ दो या तीन रोटियां होती हैं तो उम्मीद खत्म हो जाती है कि अगली
रोटी फुलेगी।
रोटियां न फुलने का मेरे मूड से शायद कुछ गहरा
संबंध है। जिस दिन मेरी रोटियां नहीं फुलती हैं उस दिन खाना बनाते समय अजीबोगरीब
चीजें घटित होती हैं। सब्जी में नमक ज्यादा हो जाता है या फिर अरहर की दाल मिड-डे
मिल की तरह इतनी पतली बन जाती है कि उस पीले पानी में दाल खोजना पड़ जाता है। ये
सब चीजें ज्यादातर उसी दिन होती हैं मलतब रोटियां खराब तो सारा खाना खराब। ठीक उसी
तरह जैसे देने वाला किसी को छप्पर फाड़ के देता है तो बिगाड़ता भी वैसे ही है।
कल मेरी रूम मेट बाजार से आटा लेकर आयी
(ज्यादातर वह घर का आटा इस्तेमाल करती है)। रात के दस बजे जब वह रोटियां बना रही
थी तो उसकी पहली रोटी नहीं फुली। माथे से पसीना पोछते हुए वह मुझसे बोली-देखो यार
ये रोटी तो फुली ही नहीं। दो और बनानी है पता नहीं फुलेगी कि नहीं। उस वक्त वह
इतनी टेंशन में आ गई जैसे सारी खुशियों का रहस्य फुली हुई रोटी में ही छिपा हो। जब
मैं बर्तन धो रही थी तो वह मुझे जोर से आवाज लगायी और बोली-जल्दी से यहां आओ। मैं
हाथ धोकर दौड़कर आयी तो वो बोली-देखो ये तीसरी वाली रोटी फुल गई। अगर तुम जल्दी
नहीं आती तो ये रोटी पिचक जाती और तुम देख भी नहीं पाती। उस फुली हुई रोटी को
देखकर हम दोनों एक साथ खुश हो गए। जैसे हम दोनों की लॉटरी लग गई हो।
तीन दिनों से खाना बनाने का मन नहीं कर रहा था।
अचानक से जाने क्या हुआ कि रोटियां ही नहीं फुलती थीं। जैसे उन्होंने तय कर रखा हो
कि हफ्ते में तीन तीन नहीं फुलेंगे चाहे कुछ भी कर लो। जब रोटियां नहीं फुलती हैं
तो हम उन्हें हाथ में लेकर उलट-पलट कर ऐसे देखते हैं जैसे इन रोटियों को किसी
फिल्म में देखा हो। किसी साहब के घर से किसी गरीब को जो रोटी मिलती है उसके
क्लोज-अप जैसा, बूढ़ी सास को उसकी बहू सबके खाने के बाद अंत में जो रोटी परोसती है
उसके क्लोज-अप जैसा या कोई कुत्ता किसी के घर से रोटी उठाकर किसी और के घर के गेट
पर छोड़ देता है उसके क्लोज-अप जैसा। अपनी बनायी रोटियां जब फुलती नहीं हैं तो
उन्हें खाने में डर लगता है और मन करता है एक गिलास पानी के साथ इन्हें गटक जाएं।
मैं अपने गांव जब भी जाती हूं, मेरी माता जी कोई
काम नहीं करवाती हैं मुझसे लेकिन रोटियां जरूर बनवाती हैं। मां कहती है कि जिसको
अच्छी रोटियां बनाने आ गई वो खाने का हर आयटम बना सकता है। घर में छह लोगों के लिए
रोटियां बनाने के लिए जब मैं आटा गूथती हूं तो मेरी दादी मम्मी से कहती हैं कि देखो
आटे को कैसे सहला रही है। हाथ में इसके दम तो है नहीं जब आटे को ठीक से गूथ नहीं
पाएगी तो रोटियां फुलेंगी कैसे। तब मैं खूब मेहनत से आटे को गूथती हूं और जब भी
कोई रोटी नहीं फुलती तो दादी पास में लोटा भर पानी लाकर रख देती हैं। वे कहती हैं
ये सब टोटके हैं, खाना बनाते समय अगर ठीक से न बने तो ऐसा करना चाहिए औऱ फिर जब
अगली रोटी फुल जाती है तो मुझे इस टोटके पर विश्वास हो जाता है।
सच में जब भी मेरी रोटियां नहीं फुलती है तो मैं
रुआंसी हो जाती हूं। फिर बाकी का खाना बनाने का मन ही नहीं करता। आत्मविश्वास भी
कमजोर पड़ जाता है। मैं मानती हूं कि अच्छी रोटियां बनाना-फुलाना एक कला है। जो इस
कला में पारंगत है वो सच में अच्छा रसोईयां है।
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