कल एक दूकान पर फोटो स्टेट कराने गई थी। जीरॉक्स के बाद दूकानवाले ने मुझसे सात
रूपए मांगे तो मैंने उसे दस का नोट पकड़ा दिया। उसने नोट अपने हेल्पर को दिया और
बाकी पैसे वापस लौटाने को बोला। हेल्पर ने मुझे सात रूपए वापस किए जब तीन रूपए ही
वापस करने थे। मेरे हाथ में सामान ज्यादा था इसलिए मैंने जैसे-तैसे पैसे पकड़ तो
लिया लेकिन यह नहीं देखा कि कितना वापस
किया उसने। अगली दूकान पर जब मैंने सारे सामान बैग में भरे और पैसे जब पर्स में
रखने लगी तो मैंने देखा कि एक पांच और दो का सिक्का वापस किया था उसने। पहले तो
मेरा मन किया कि उस दूकान पर जाकर उसके सात रुपए वापस कर दूं और बचे तीन रूपए ले
लूं लेकिन जाने क्या दिमाग में आ रहा था कि मैं वहां जा न सकी।
उसके सात रूपए तो वापस करने मैं नहीं गई लेकिन पूरे रास्ते भर मुझे यह महसूस
हो रहा था जैसे किसी का कोई बड़ा सामान चुराकर भाग रही हूं मैं। जैसे ही मैं चार
कदम चलती मुझे एहसास होता कि जो मैं करके जा रही हूं ये भी तो चोरी ही है।
ईमानदारी तो इसमें थी कि जब मैंने देखा कि उसने तीन की बजाय सात रुपए वापस किए हैं
मुझे तो उसी वक्त उसके रुपए लौटा देने चाहिए थे मुझे लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पायी।
रास्ते भर इस बात का पछतावा रहा कि मैं दूकानदार के पैसे लेकर घर जा रही हूं।
घर पहुंचने पर इन सात रुपयों की वजह से मन जाने कैसा हो रहा था। ऐसे तो मैं खुद
कहते फिरती थी कि ईमानदारी का तो जमाना ही नहीं रहा और आज मैंने कौन सी ईमानदारी
दिखायी। मैं पछतावे से बाहर नहीं निकल पा रही थी। मैंने निश्चय किया है कि अब चाहे
जितने दिन बाद भी उस तरफ जाना हुआ मैं दूकानदार के सात रुपए वापस करके अपने तीन
रुपए ले आऊंगी अन्यथा अपनी खुद की ये चोरी मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगी।
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