बचपन में गर्मी की दोपहरिया कुछ और ही होती थी। मां दोपहर में हमें अपने साथ लेकर सोती थी। मां के सोते ही हम धीरे से पैर दबाए निकल आते औऱ घर के बाहर खेलने लगते। शोरगुल की आवाज सुनकर मां गुस्से में आतीं और हमें पीटते हुए ठिठिराकर सोने के लिए ले जाती । जब हम सुबक-सुबक कर रो रहे होते तो मां कहती- दोपहर में बहरुपिया आता है, बच्चों को अकेला देखकर उन्हें अपने झोली में भरकर ले जाता है। हम डर जाते और बहरुपिया का चेहरा हमारे आंखों के सामने नाचने लगता। कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई डोरबेल बजाता तो हम डर के मारे दरवाजा नहीं खोलते कि क्या पता गेट पर बहरुपिया हो और दरवाजा खोलते ही हमें अपनी झोली में भरकर ले जाए।
घर के सारे लोग दोपहर में सोया करते थे लेकिन हम बच्चों को
नींद नहीं आती थी। पड़ोस के अपने एक दो साथियों को बुलाकर हम घर के बरामदे में
बोरी बिछाकर प्लास्टिक का घर बनाते, दुकान लगाते औऱ हरी घास को सब्जी बनाकर बेचते।
हम सोचते जब बेचना ही है तो क्यों न पानी को तेल बनाकर बेंचा जाय। हम किचन से जैसे
ही छोटी वाली गिलास में पानी लेकर निकल रहे होते ना जाने क्यों गिलास हाथ से छूट
जाती और मम्मी आकर ताबड़तोड़ पिटईया कर देती। फिर हम रोते हुए ही गुस्से में अपना
प्लास्टिक का बनाया घर तोड़ देते, दुकान उजाड़ देते औऱ अपने दोस्तों को कहते कि घर
जाओः आज का खेला यहीं खत्म।
मन नहीं मानता था आइसक्रीम खाए बिना। दोपहर से शाम तक गली
में आइसक्रीम वाले आते रहते थे। सब अलग-अलग ढंग की आइसक्रीम बेचते । आइसक्रीम
वालों से कई बार मां की लड़ाई हुई थी। मां हमें बार-बार आइसक्रीम नहीं खाने देती
थीं और आइसक्रीम वाला जब गली में आता तब घर के सामने खड़े होकर टन टन् टन टन देर
तक बजाता रहता जैसे हम उससे थोक के भाव से आइसक्रीम खरीदने वाले हों।
पैसा तो हमारे पास भी रहता था लेकिन गुल्लक में। मां जब
आइसक्रीम के लिए पैसे नहीं देती तो हम सोच में पड़ जाते कि अगर अपने गुल्लक से
पैसा निकालते हैं तो हमारा एक रुपिया कम हो जाएगा। दोपहर में जब सब कोई सो गया तब
हम गुल्लक से पैसा निकालने की कोशिश कर रहे थे। गुल्लक से एक रुपए निकालने में भी
समय लगता है जैसे गुल्लक से नहीं बैंक से निकाल रहे हों। पैसा गुल्लक के मुंह पर
आकर अटक गया निकल नहीं रहा था। हम गुल्लक को तेजी से हिला रहे थे। खटर-पटर की आवाज
सुनकर मम्मी आयीं और पीटने लगीं कि उठकर दबे पांव कैसे भाग आयी है औऱ गुल्लक से
पैसे निकालने की कोशिश में खटर-पटर मचायी है। एक बार फिर से हम पीट जाते औऱ अपना
गुल्लक उठाकर जमीन पर पटक देते । गुल्लक से सारे पैसे ऐसे गिरते जैसे आज धनतेरस हो
और लक्ष्मी हमारे घर में साक्षात धन की वर्षा कर रहीं हों। मेरा भाई सारा पैसा
बीनकर रख लेता औऱ हम उसे आंख दिखाते हुए मम्मी के साथ सोने चले जाते। जब हम रुलाई
बंद करने वाले होते औऱ टूटी-फूटी सिसकियां ले रहे होते तब मां धीरे से कहती कि
बच्चों को रोज आइसक्रीम नहीं खाना चाहिए। आइसक्रीम वाले उसमें रंग मिलाकर बेचते
हैं जिससे कि तुम लोग होली खेलते हो..औऱ हम मां कि बातें सुनते हुए..सिसकते हुए
जाने कब नींद की आगोश में आ जाते।
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