ਗੌਤਮ ਬੁੱਧ ਨੇ ਕਿਹਾ ਸੀ ਜੀਵਨ ਇੱਕ ਦੁੱਖ ਹੈ । ਵੇਖਿਆ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਜੀਵਨ ਸੱਚ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਦੁੱਖ ਹੈ , ਦੁਖਾਂ ਦਾ ਪਹਾੜ ਹੈ ਜਿਨੂੰ ਲਾਂਘਤੇ ਹੋਏ ਅਸੀ ਜੀਵਨ ਭਰ ਅੱਗੇ ਵਧਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦੇ ਹਾਂ । ਜੀਵਨ ਵਿੱਚ ਇੱਕ ਪੜਾਉ ਇਹ ਵੀ ਆਉਂਦਾ ਹੈ ਜਦੋਂ ਸਾਡੀ ਪੜਾਈ ਪੂਰੀ ਹੋ ਚੁੱਕੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਸੀ ਨੌਕਰੀ ਲਈ ਮਾਰੇ - ਮਾਰੇ ਫਿਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ । ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਿੰਦਗੀ ਬੇਹੱਦ ਨੀਰਸ ਲੱਗਦੀ ਹੈ ਔऱ ਅਸੀ ਦੁਨੀਆ ਦੇ ਸਭਤੋਂ ਦੁਖੀ ਇੰਸਾਨ ਹੁੰਦੇ ਹਨ । ਇਸ ਸਾਰੀ ਚੀਜਾਂ ਦੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਚੱਲ ਹੀ ਰਹੀ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਕਿ ਘਰ ਵਾਲੇ ਵਿਆਹ ਕਰਣ ਦਾ ਦਬਾਅ ਬਣਾਉਣ ਲੱਗਦੇ ਹਾਂ । ਉਸ ਸਮੇਂ ਜਿਸ ਦੌਰ ਵਲੋਂ ਅਸੀ ਗੁਜਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਆਪਣੀ ਹਾਲਤ ਉਸ ਗਧੇ ਦੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਨੂੰ ਢੋਣ ਦਾ ਦਮ ਨਾ ਹੁੰਦੇ ਹੋਏ ਵੀ ਉਹ ਦਮ ਲਗਾਕੇ ਪਿੱਠ ਉੱਤੇ ਲਦਾ ਬੋਝ ਢੋਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦਾ ਹੈ । ਠੀਕ ਉਂਜ ਹੀ ਅਸੀ ਵੀ ਨਿਠੱਲੇ ਬਣਕੇ ਢਿੱਡ ਦੇ ਜੂਗਾੜ ਲਈ ਮਾਰੇ - ਮਾਰੇ ਫਿਰ ਰਹੇ ਹੁੰਦੇ ਹੈ । ਲੇਕਿਨ ਘਰ ਵਾਲੇ ਕਿਸੇ ਔऱ ਹੀ ਦੁਨੀਆ ਦਾ ਸੁਫ਼ਨਾ ਦਿਖਾਂਦੇ ਹਾਂ ਜਿਸ ਵਿੱਚ ਕੋਈ ਰੰਗ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ । ਅਤੇ ਆਖ਼ਿਰਕਾਰ ਅਜਿਹੇ ਸੰਸਾਰ ਵਿੱਚ ਪਰਵੇਸ਼ ਕਰਣਾ ਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਿੱਥੋਂ ਇੱਕ ਵਾਰ ਫਿਰ ਜਿੰਦਗੀ ਦੀ ਦੋਹਰੀ ਜੱਦੋਜਹਿਦ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ।
शुक्रवार, 6 जून 2014
मंगलवार, 3 जून 2014
एक सबक दूसरों के काम आ रहा...
सालों पहले जब हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं
में आज की तरह अच्छे प्रतिशत नहीं आते थे उसी दौर में जतिन ने इंटरमीडिएट की
परीक्षा में सर्वाधिक अंक लाकर स्कूल ही नहीं वरन अपने जिले में भी टॉप किया। जतिन
मेधावी छात्र था लेकिन इंटरमीडिएट के बाद आगे की पढ़ाई को लेकर उलझ गया। जतिन के
माता-पिता कम पढ़े लिखे थे, अतः उनसे आर्थिक मदद के अलावा आगे के भविष्य को लेकर
जतिन को कोई मार्गदर्शन नहीं मिला। जतिन के कुछ रिश्तेदारों ने उसे ग्रेजुएशन करने
को कहा तो किसी ने प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का सुझाव दिया।
जतिन दोनो लोगों की
बातों में इस तरह उलझा कि उसने कला वर्ग से स्नातक में दाखिला ले लिया जबकि वह अब
तक विज्ञान का छात्र था। पढ़ाई के प्रथम वर्ष में ही उसका मन न लगा।
अगले साल उसने
फिर से प्रवेश परीक्षा दी और इस बार वह विज्ञान वर्ग में दाखिला लिया। स्नातक पूरा
हो जाने के बाद भी उसका लक्ष्य स्पष्ट नहीं हुआ कि उसको अपने जीवन में क्या करना
है।जो कोई उसे जैसी राय दे देता वह उसी विषय में दाखिला ले लेता।
इस तरह उसके पास
डिग्रियों की भरमार हो गयी जबकि नौकरी अभी भी उससे कोसों दूर थी। वह रोजगार के
चक्कर में दिन भर यहां से वहां चप्पलें घिसता औऱ किसी भी नौकरी की जल्द कोई आसार न
दिखने पर वह मानसिक तनाव से गुजरने लगा। उसे लोगों का कहा अब बिल्कुल पसंद नहीं
आता औऱ चिड़चिड़ेपन ने उसे घेर लिया।
इस सब चीजों से निजात पाने के लिए उसने एक कोचिंग संस्था
में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया जिससे उसकी आजीविका चलनी शुरू हो गयी। धीरे-धीरे
उसने उन्नति की और आज खुद का एक बड़ा कोचिंग संस्थान चलाता है। जिसमें सैकड़ों
हाईस्कूल औऱ इंटरमीडिएट के बच्चे कोचिंग पढ़ने आते हैं।
बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट आ गए हैं और हर साल जतिन की तरह
ही लाखों बच्चे यह नहीं समझ पाते की उन्हें आगे करना क्या है। वह अपनी रुचि ना तो
समझ पाते हैं ना ही जाहिर कर पाते हैं और लोगों की कही बातों में उलझ कर कुछ भी
करने के चक्कर में किसी भी विषय में दाखिला ले लेते हैं। आगे उस विषय में मन ना
लगने पर उन्हें उसे मजबूरन छोड़ना पड़ता है। इससे पैसे के साथ-साथ उनका कीमती वक्त
भी बर्बाद होता है। इससे वे बच्चा मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं।
चूंकि जतिन इस दौर से गुजर चुका है। भटकते-भटकते ही सही
लेकिन आज उसके पास उसकी खुद की बड़ी कोचिंग संस्था है। वह इंटरमीडिएट के बाद आगे
की पढ़ाई को लेकर होने वाली उलझन को अच्छी तरह समझता है। इन उलझनों से तमाम बच्चों
को बाहर निकालने के वह हर साल अपने कोचिंग संस्था में बाहर से कुछ कॅरियर काउंसलर
को बुलाता है। जिनकी सहायता से बच्चों को आगे की पढ़ाई के लिए विषय चुनने में काफी
सहायता मिलती है। इस साल भी सैकड़ों बच्चे उसके कोचिंग संस्था में जाकर कॅरियर
काउंसलर से मार्गदर्शन लेकर अपने भविष्य की नींव खुद रखने के लिए तैयार हैं। जिससे
जतिन को इस बात की खुशी मिलती है कि बच्चा दूसरों की बातों में न आकर अपना निर्णय
खुद ले रहा है।
अगर हम अपनी गलतियों से सीखें और आने वाली पीढ़ी को एक
बेहतर मार्गदर्शन प्रदान कर उन्हें गर्त में जाने से बचाएं तो ऐसे लाखों बच्चों का
भविष्य खराब होने से बचाया जा सकता है, जो मेधावी तो होते हैं लेकिन यह नहीं समझ
पाते कि किस रास्ते पर चलकर जीवन में आगे बढ़ा जा सकता है।
शनिवार, 31 मई 2014
छोटी मगर बड़ी बात..
पिछले दिनों एक मित्र अपनी बीवी के साथ एक शादी समारोह में
शरीक़ होने गए। वहां अलग-अलग स्टॉलों पर विभिन्न किस्म के व्यंजन सजाए गए थे। खाने
वालों की जबरदस्त भीड़ थी। खाने-पीने के बाद वापस आते समय वे कार्यक्रम के होस्ट
से मिले और उन्हें शुक्रिया अदा करते हुए घर वापसी की विदाई ली। होस्ट ने उनसे
आइसक्रीम खाने का निवेदन किया तब मित्र ने बताया कि वे आइसक्रीम खा चुके हैं। विदा
लेकर चलते हुए दोस्त की बीवी ने होस्ट से कहा- भाईसाहब सारे व्यंजन बहुत अच्छे थे
औऱ आइसक्रीम भी अच्छी थी।
रास्ते में मित्र ने अपनी बीवी को समझाते हुए कहा कि तुमने कहा
‘खाना बहुत अच्छा था’ अगर तुम कहती ‘खाना अच्छा था’ तब भी खाने का महत्व उतना ही रहता। उसके बाद तुमने यह कहा
कि ‘आइसक्रीम भी अच्छी थी’ मतलब खाना तो अच्छा था
लेकिन उसके आगे आइसक्रीम अच्छी नहीं थी।
मित्र की बीवी उनके इस बात से तुनक गयी। मित्र ने उन्हें
समझाते हुए कहा- कम शब्दों में बात को अच्छे ढंग से कहना आना चाहिए। खाना बहुत
अच्छा है कहने से बेहतर है अगर हम कहें खाना अच्छा है तब भी बात वही होती है।
चीजें या तो अच्छी होती हैं या बुरी। फिर उसमें ‘बहुत’ शब्द जोड़कर उन्हें ‘बहुत अच्छा’ या ‘बहुत खराब’ नहीं कहा जा सकता। यदि अच्छा है तो अच्छा और खराब है तो
खराब।
कहा जाता है कि हिटलर लोगों से बातें करते वक्त कम से कम
शब्दों के प्रयोग से ज्यादा से ज्यादा बातें समझा देता था। उसे लंबे और बड़े वाक्य
बिल्कुल पसंद नहीं थे।
यूं तो नाहक ही बोलना लोगों की आदत होती है। किसी भी बात को
कहने का सलीका या तो उन्हें पता नहीं होता या इसे कम लोग पसंद करते हैं। जो लोग
शब्दों और बड़े या छोटे वाक्यों पर बारीकी से ध्यान देते हैं ऐसे लोगों को अक्सर
चुप औऱ शांत ही देखा जाता है। वहीं कुछ लोग इतना बोलते हैं कि उनके शब्द और वाक्य
तो गलत होते ही हैं साथ में उन्हें दस-पन्द्रह मिनट तक सुनते रहने के बाद समझ में
आता है कि आखिर वे कहना क्या चाह रहे थे। छोटी सी बात को कहने के लिए लोग वाक्यों
में ना जाने कितने विशेषण जोड़कर उसे प्रस्तुत करते हैं जबकि सीधे तौर पर कम
शब्दों के इस्तेमाल से भी बात का सीधा और सटीक अर्थ वही होता है जो बात हम समझाना
चाहते हैं।
शुक्रवार, 30 मई 2014
कौन सिखाता है इन्हें!!
कल त्रिपाठी जी के यहां उनके एक रिश्तदार आए। अपनी बाइक घर के बाहर गली में खड़ी कर जैसे ही वे अन्दर गए वैसे ही त्रिपाठी जी के दोनो बच्चे निकले और बाइक पर बंदरों की तरह झूलने लगे। बड़ा वाला बच्चा दोनो हाथों से बाइक की हैंडल पकड़ कर मुंह से गर्र..गर्र की आवाज निकाल रहा था मानों बाइक स्टार्ट करने की उसकी पुरजोर कोशिश नाकाम हो रही हो। दूसरा बच्चा हैंडिल के ऊपर लगे शीशे ऐंठ रहा था। उस शीशे में उसे अपना चेहरा फैला हुआ और बड़ा भद्दा दिख रहा था औऱ वह सोच में पड़ा था कि मैं इतना बदसूरत तो नहीं। उसने बाइक के पेट्रोल टैंक का ढक्कन खोला औऱ उसके अंदर झांकने लगा औऱ बड़े वाले से बोला भैया चलो तुम पीछे बैठो मैं बाइक चलाता हूं। बड़े वाले ने कहा नहीं मैं चलाउंगा। दोनों बाइक पर बैठे-बैठे ही लड़ने लगे, और एक दूसरे का गला पकड़ने लगे। नीचे से बाइक अपने स्टैंड से फिसल गयी और बड़ा लड़का बाइक के नीचे दब गया औऱ जोर-जोर से रोने लगा। उसे काफी चोटें लगी जबकि छोटे वाले को पैर छिल गया औऱ गाढ़ा खून बहने लगा।
मैने छोटे बच्चों को देखा है। उनमें सीखने की ललक बहुत ही
ज्यादा होती है। पापा की नजर बचाकर उनकी मोबाइल का सारा बटन इधर-उधर दबाकर देखते
रहते हैं कि किससे क्या होता है। ज्यादातर बच्चे कंप्यूटर औऱ मोबाइल पर गेम खेलना
खुद ही सीखते हैं। इन्हें अलग से सीखाने की जरूरत नहीं पड़ती। कुछ बच्चे ऐसे भी
होते हैं जो अपनी घड़ी औऱ विडियोगेम्स के सारे पार्ट्स अलग करके उसे जोड़ने की
कोशिश में लगे रहते हैं। बचपन में सीखने की ललक तो लड़कियों में भी होती है लेकिन
ज्यादातर बच्चियां ऐसे टेक्निकल औऱ इलेक्ट्रिकल चीजों में कम रुचि लेती हैं।
उन्हें गुड्डे-गुड़ियों के साथ खेलना अच्छा लगता है, मां या बड़ी बहन के बालों में कंघी करना या उनकी
उल्टी सीधी चोटियां बनाना अच्छा लगता है। जबकि छोटे लड़के गुड्डे-गुड़ियों से
खेलते हुए कम ही दिखाई देते हैं। उन्हें चश्मा, घड़ी, विडियोगेम इत्यादि की जरूरत
होती है।
लड़के और लड़कियों की पसंद बचपन से ही अलग होती है। लेकिन
यह सच है कि सीखने के मामले में लड़के बचपन से ही लड़कियों से आगे होते हैं।
इन्हें सीखाने की जरूरत नहीं पड़ती ये खुद ही घर की चीजों या अपने टेक्निकल
खिलौनों पर एक्सपेरिमेंट शुरू कर देते हैं। बड़े होने पर हो सकता है
लड़के-लड़कियों की पसंद एक जैसे हो जाती हो, भले ही वह सीखने के मामले में हो।
गुरुवार, 29 मई 2014
जाने कहां गए वो दिन!!
बचपन में गर्मी की दोपहरिया कुछ और ही होती थी। मां दोपहर में हमें अपने साथ लेकर सोती थी। मां के सोते ही हम धीरे से पैर दबाए निकल आते औऱ घर के बाहर खेलने लगते। शोरगुल की आवाज सुनकर मां गुस्से में आतीं और हमें पीटते हुए ठिठिराकर सोने के लिए ले जाती । जब हम सुबक-सुबक कर रो रहे होते तो मां कहती- दोपहर में बहरुपिया आता है, बच्चों को अकेला देखकर उन्हें अपने झोली में भरकर ले जाता है। हम डर जाते और बहरुपिया का चेहरा हमारे आंखों के सामने नाचने लगता। कभी-कभी तो ऐसा होता कि कोई डोरबेल बजाता तो हम डर के मारे दरवाजा नहीं खोलते कि क्या पता गेट पर बहरुपिया हो और दरवाजा खोलते ही हमें अपनी झोली में भरकर ले जाए।
घर के सारे लोग दोपहर में सोया करते थे लेकिन हम बच्चों को
नींद नहीं आती थी। पड़ोस के अपने एक दो साथियों को बुलाकर हम घर के बरामदे में
बोरी बिछाकर प्लास्टिक का घर बनाते, दुकान लगाते औऱ हरी घास को सब्जी बनाकर बेचते।
हम सोचते जब बेचना ही है तो क्यों न पानी को तेल बनाकर बेंचा जाय। हम किचन से जैसे
ही छोटी वाली गिलास में पानी लेकर निकल रहे होते ना जाने क्यों गिलास हाथ से छूट
जाती और मम्मी आकर ताबड़तोड़ पिटईया कर देती। फिर हम रोते हुए ही गुस्से में अपना
प्लास्टिक का बनाया घर तोड़ देते, दुकान उजाड़ देते औऱ अपने दोस्तों को कहते कि घर
जाओः आज का खेला यहीं खत्म।
मन नहीं मानता था आइसक्रीम खाए बिना। दोपहर से शाम तक गली
में आइसक्रीम वाले आते रहते थे। सब अलग-अलग ढंग की आइसक्रीम बेचते । आइसक्रीम
वालों से कई बार मां की लड़ाई हुई थी। मां हमें बार-बार आइसक्रीम नहीं खाने देती
थीं और आइसक्रीम वाला जब गली में आता तब घर के सामने खड़े होकर टन टन् टन टन देर
तक बजाता रहता जैसे हम उससे थोक के भाव से आइसक्रीम खरीदने वाले हों।
पैसा तो हमारे पास भी रहता था लेकिन गुल्लक में। मां जब
आइसक्रीम के लिए पैसे नहीं देती तो हम सोच में पड़ जाते कि अगर अपने गुल्लक से
पैसा निकालते हैं तो हमारा एक रुपिया कम हो जाएगा। दोपहर में जब सब कोई सो गया तब
हम गुल्लक से पैसा निकालने की कोशिश कर रहे थे। गुल्लक से एक रुपए निकालने में भी
समय लगता है जैसे गुल्लक से नहीं बैंक से निकाल रहे हों। पैसा गुल्लक के मुंह पर
आकर अटक गया निकल नहीं रहा था। हम गुल्लक को तेजी से हिला रहे थे। खटर-पटर की आवाज
सुनकर मम्मी आयीं और पीटने लगीं कि उठकर दबे पांव कैसे भाग आयी है औऱ गुल्लक से
पैसे निकालने की कोशिश में खटर-पटर मचायी है। एक बार फिर से हम पीट जाते औऱ अपना
गुल्लक उठाकर जमीन पर पटक देते । गुल्लक से सारे पैसे ऐसे गिरते जैसे आज धनतेरस हो
और लक्ष्मी हमारे घर में साक्षात धन की वर्षा कर रहीं हों। मेरा भाई सारा पैसा
बीनकर रख लेता औऱ हम उसे आंख दिखाते हुए मम्मी के साथ सोने चले जाते। जब हम रुलाई
बंद करने वाले होते औऱ टूटी-फूटी सिसकियां ले रहे होते तब मां धीरे से कहती कि
बच्चों को रोज आइसक्रीम नहीं खाना चाहिए। आइसक्रीम वाले उसमें रंग मिलाकर बेचते
हैं जिससे कि तुम लोग होली खेलते हो..औऱ हम मां कि बातें सुनते हुए..सिसकते हुए
जाने कब नींद की आगोश में आ जाते।
मंगलवार, 27 मई 2014
कैसे भी..रास्ते तो निकलते ही हैं!!
आठ-दस साल पहले गांवों में मोबाइल का चलन बहुत कम था।
गिने-चुने हुए लोगों के पास बीएसएनएल की सिम लगी हुई नोकिया का मोबाइल फोन था।
गांव से साइकिल चलाकर 15 किलोमीटर की दूरी तय करके पढ़ाई करने वाली परास्नातक की
एक लड़की काव्या को उसके एक दोस्त ने नोकिया की मोबाइल भेंट की। काव्या उस मोबाइल
से सबसे पहले मैसेज भेजना सीखी, और डायरी में लिखी शेरो-शायरी मोबाइल से टाइप कर
दोस्तों के नंबर पर भेजती।
कुछ दिनों बाद उसके
फोन से मैसेज जाना बंद हो गया। अब उसकी समझ में नहीं आया कि इसके लिए वह क्या करे।
दोस्त से पूछने पर उसने बताया कि कस्टमर केयर में फोन करके समस्या का समाधान पाया
जा सकता है।
उस वक्त रात के
बारह बज रहे थे जब कस्टमर केयर में काव्या ने फोन लगाया। उधर बात हुई औऱ समस्या का
समाधान भी सुलझा दिया गया लेकिन कस्टमर केयर से बात करने वाले लड़के ने काव्या का
फोन नंबर रख लिया और अगले दिन उसे अपने पर्सनल नंबर से फोन किया।
दोनों बाते करने
लगे। धीरे-धीरे बातें बढ़ने लगी औऱ दोनो को एक दूसरे से प्यार हो गया। बात करते
हुए छः महिने बीत गए तब दोनो ने डिसाइड किया कि उनको मिलना चाहिए अगर वे एक दूसरे
को पसंद आ गए तो घर वालों से बात करके शादी कर ली जाएगी।
हफ्ते भर के अंदर वह लड़का काव्या के शहर आया। दोनो मिले एक
दूसरे को पसंद किए और लड़का वापस चला गया। पंद्रह दिन बाद लड़का अपनी मां औऱ बहन
के साथ पुनः आया और काव्या से सगाई करके चला गया।
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फ्लैश बैक-
काव्या एक गरीब परिवार से थी। बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपनी
परास्नातक की पढ़ाई पूरी कर रही थी। उसके पिता को उसकी शादी की चिन्ता खाए जा रही
थी। उसके लिए उन्होंने कई लड़के भी देखे थे लेकिन मोटे दहेज की मांग से उनके हाथ
तंग थे। उन्होंने निश्चय किया कि वे अपनी आधी जमीन बेंचकर बेटी का ब्याह करेंगे
लेकिन जमीन की बोली लगाने वालों को यह पता चल गया कि किस कारण से जमीन बेची जा रही
है । इसका फायदा उठाते हुए खरीददारों ने जमीन की कम कीमत लगाई। ठीक दाम न मिलने के
कारण जमीन ना बिक सकी और बेटी का ब्याह रूका रह गया। बेटी की ब्याह की चिंता में
डूबे पिता को सारा रात नींद नहीं आती थी।
काव्या के कुछ दोस्त अच्छे थे वे उसे कापी-किताब अपने ही
पैसे से खरीद कर दे देते थे और उस दिन उसके एक दोस्त ने उसे मोबाइल फोन भी खरीद कर
दे दिया जिसकी जरूरत काव्या को न के बराबर थी।
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सगाई के बाद काव्या ने उस लड़के की चर्चा घर में की। इस बात
को सुनते ही उसके पिता बहुत नाराज हुए। लड़का दिल्ली का रहने वाला था। एक गरीब बाप
एक अनजान दिल्ली के लड़के से अपनी बेटी की शादी कैसे कर सकता था। पिता को सबसे
ज्यादा फिक्र लड़के की बिरादरी को लेकर हुई।
पिता के कहने पर एक
बार फिर लड़के को उसके परिवार सहित बुलाया गया। दोनों के परिवारों ने आपस में
बातचीत की। लड़का उन्हीं की बिरादरी का था। बात बन गई और दोनों की शादी हो गई।
लड़के ने दहेज के रुप में काव्या के पिता से कुछ भी नहीं लिया और शादी कर उसे लेकर
दिल्ली चला गया।
काव्या के पिता की
जमीन बिकने से बच गई। उसके घरवालों की
गरीबी तो नहीं दूर हुई लेकिन उनके घर में जीने खाने का सामान तो है ही। काव्या के
भाई के बच्चों को कम से कम स्कूल जाकर पढ़ने का अवसर मिला है। इस तरह काव्या के
पिता की फिक्र दूर हुई।
जिंदगी में छत्तीस तरह की परेशानियां होती हैं लेकिन किसी
भी काम पर बट्टा नहीं लगता। देर-सबेर भटकते ही सही कोई ना कोई रास्ता मिल ही जाता
है। जीवन में आने वाली समस्याएं अपने साथ एक रास्ता लिए ना आतीं तो इंसान निराशा
के अलावा किसी औऱ चीज की बातें ही ना करता। समस्याएं औऱ सॉल्यूशन दोनों आसपास ही
होते हैं लेकिन हां सब्र उनसे कोसों दूर होता है।
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